राहुल गांधी के सामने फिलहाल सबसे बड़ा चैलेंज मुश्किल मुक्त कांग्रेस ही है. कांग्रेस की मुश्किलों की फेहरिस्त भी बहुत लंबी है - और दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. राहुल गांधी की तमाम कोशिशें बेकार जा रही हैं - यहां तक कि इस्तीफे का दाव भी नाकाम होता दिख रहा है. नेताओं के इस्तीफे तो आ रहे हैं, लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे सीनियर नेता दबाव डाल कर छोटे नेताओं के इस्तीफे दिलवा रहे हों.
देश भर में गुटबाजी से जूझ रही कांग्रेस में दिल्ली का झगड़ा कुछ ज्यादा ही बढ़ चुका है. देश के विभिन्न हिस्सों में कांग्रेस की मुश्किलें हैं तो एक जैसी ही, लेकिन दिल्ली तो दिल्ली है - शीला दीक्षित और पीसी चाको का झगड़ा है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. शीला दीक्षित दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष हैं और पीसी चाको प्रभारी. राहुल गांधी ने दोनों को इतने पावर दे रखे हैं कि पलक झपकते ही एक दूसरे के फैसलों को वीटो लगाकर पलट देते हैं - वैसे सब कुछ ठीक करने के लिए राहुल गांधी ने एक महीने की मोहलत दी हुई है.
ये हाल रहा तो झगड़ा तो खत्म होने से रहा
पंजाब और तमिलनाडु को अलग करके देखें तो आम चुनाव में केरल के बाद कांग्रेस का प्रदर्शन कहीं अच्छा रहा तो वो दिल्ली ही है. दिल्ली में कांग्रेस लोक सभा सीटें जीतने में तो लगातार दूसरी बार नाकाम रही लेकिन सत्ताधारी आम आदमी पार्टी को पछाड़ कर दूसरे स्थान पर जरूर रही. दिल्ली में कांग्रेस के प्रदर्शन के लिए परिस्थितिजन्य चीजों को छोड़ दें तो काफी हद तक श्रेय पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी मिलेगा - वो भी पीसी चाको के कदम कदम पर रोड़ा अटकाने के बावजूद. शीला दीक्षित आखिर तक अपनी बात पर डटी रहीं कि आप के साथ गठबंधन से कांग्रेंस को अरविंद केजरीवाल सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर से नुकसान ही होगा, फायदा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. ऐन उसी वक्त पीसी चाको चुनावी गठहबंधन के लिए जी जान से जुटे रहे. शीला दीक्षित को बताये बगैर ही शक्ति ऐप पर सर्वे भी कराया - लेकिन अरविंद केजरीवाल ने राहुल गांधी पर ठीकरा फोड़ गठबंधन से इंकार कर दिया.
पीसी चाको केरल से आते हैं और शीला दीक्षित 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. दिल्ली में शीला दीक्षित और और पीसी चाको में लगातार ठनी रहती है. चुनाव जरूर खत्म हो गये लेकिन शीला दीक्षित और पीसी चाको आमने-सामने बने हुए हैं. बात बात पर दो-दो हाथ करने को तैयार हैं.
करीब दो हफ्ते पहले शीला दीक्षित ने चुनावी हार की समीक्षा के लिए पांच लोगों की एक कमेटी बनायी थी. खास बात ये रही कि शीला दीक्षित ने इस बारे में न तो पीसी चाको को बताना जरूरी समझा और न ही तीनों कार्यकारी अध्यक्षों को जानकारी देना. पीसी चाको और कार्यकारी अध्यक्षों के साथ साथ कांग्रेस के कई सीनियर नेताओं ने शीला दीक्षित के इस कदम पर कड़ी नाराजगी जाहिर की.
28 जून को कांग्रेस की एक मीटिंग हुई. मीटिंग राहुल गांधी के साथ थी जिसमें शीला दीक्षित और पीसी चाको दोनों शामिल हुए. राहुल गांधी के सामने सभी नेताओं ने एकजुट होकर काम करने का वादा किया - लेकिन तोड़ते भी देर न लगी.
राहुल गांधी आखिर अंदरूनी झगड़ों का स्थायी हल क्यों नहीं निकालते
बीजेपी में कुछ दिन गुजार कर कांग्रेस में लौट आये अरविंदर सिंह लवली और हारून यूसुफ ने भी पार्टी में एकजुटता पर जोर दिया. राहुल गांधी सभी की बात चुपचाप सुन रहे थे, लेकिन अपनी तरफ से कम ही बोल रहे थे.
तभी एक नेता ने राहुल गांधी से अपना इस्तीफा वापस लेने की गुजारिश की. फिर क्या था, हर किसी ने आगे बढ़ कर हामी भरी. राहुल गांधी बोले ये बात आप लोग छोड़ दीजिए. आखिर में राहुल गांधी ने पीसी चाको से पूछा - आप भी कुछ कहना चाहेंगे? पीसी चाको ने ना में सिर हिला दिया.
पार्टी में एकजुटता को लेकर जब शीला दीक्षित ने कहा कि एक महीने में सब कुछ ठीक हो जाएगा, तो राहुल गांधी बोले - ठीक है, एक महीने बाद मिलते हैं और मीटिंग खत्म हो गयी.
मीटिंग की के वादे भूलते शीला दीक्षित को देर भी न लगी. कुछ ही घंटे बीते होंगे कि दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित ने 250 से ज्यादा ब्लॉक कमेटियां भंग कर दीं. फिर तो बवाल मचना ही था. मगर उसके बाद जो हुआ वो तो ज्यादा ही बवाल मचाने वाला था - पीसी चाको ने शीला दीक्षित के फैसले को पलट दिया. फैसले की जानकारी का पत्र पीसी चाको ने शीला दीक्षित को तो भेजा ही, उसकी कॉपी राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल को भी भेज दी है. शीला दीक्षित महीने भर में चीजों को दुरूस्त करने वाले पहले ही फैसले को पीसी चाको ने ये कहते हुए पलट दिया क्योंकि AICC से कोई अनुमति नहीं ली गयी है. दरअसल, राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद AIICC ही पार्टी के फैसलों पर मुहर लगा रही है. पीसी चाको ने दलील दी है कि सभी ब्लॉक अध्यक्ष निर्वाचित हैं और उन्हें ऐसे हटाना सही नहीं है. पीसी चाको का कहना है कि जिस रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ब्लॉक अध्यक्षों को हटाया जा रहा है उसका कोई आधार ही नहीं बनता. तर्क है कि जिस कमेटी के सामने आधे से ज्यादा लोक सभा उम्मीदवार पेश नहीं हुए - न अपना पक्ष रखा उस कमेटी का आधार ही क्या हो सकता है.
असल में पीसी चाको तो कमेटी के गठन से ही खार खाये हुए थे, जैसे ही मौका मिला हिसाब बराबर कर लिया. शीला दीक्षित के पास गांधी परिवार का करीबी होने का वीटो है तो पीसी चाको शीला विरोधी आवाज और नियमों और प्रक्रिया के हवाले से फैसले लेकर भारी पड़ते हैं.
हो सकता है शीला दीक्षित और पीसी चाको दोनों अपनी अपनी जगह सही हों, लेकिन दोनों के झगड़े की कीमत तो पूरे कांग्रेस को चुकानी पड़ रही है. ऐसा भी नहीं कि ये सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित हो. जिन तीन राज्यों - राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीस गढ़ में 2018 में बीजेपी को पछाड़ कर कांग्रेस ने सरकार बनायी है वहां भी आलम वही है. इतना ही नहीं, पंजाब और हरियाणा से लेकर उत्तर प्रदेश तक सारे झगड़े दिल्ली जैसे ही हैं.
कांग्रेस में हर नियुक्ति झगड़े की जड़ क्यों?
कांग्रेस में एक बार फिर एक से ज्यादा पावर सेंटर हो गये हैं - और वैसा ही हाल दिल्ली कांग्रेस का भी है. जब राहुल गांधी अध्यक्ष हुआ करते थे, कांग्रेस नेताओं की दिक्कत हुआ करती थी कि किसी भी काम के लिए फाइनल अप्रूवल किससे लें - तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी से या राहुल गांधी से?
ताजपोशी के बाद शक्ति केंद्र राहुल गांधी बन तो गये, लेकिन जब मामला उलझता तो फिर से सोनिया को आगे आना पड़ता और प्रियंका गांधी वाड्रा को भी. आम चुनाव के नतीजे आने के बाद ये दौर भी खत्म हो गया.
राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश से तो स्थिति डगमगाने ही लगी थी, इस्तीफा वापस लेने की जिद के बाद स्थिति गंभीर हो चली है. कांग्रेस की ट्विटर टाइमलाइन भी मुश्किलों की नुमाइश कर रहा है. राहुल गांधी का कहना है कि वो अध्यक्ष नहीं हैं और न ही नये अध्यक्ष की चयन प्रक्रिया से ही उनका कोई वास्ता है - फिर भी सारी बातें पूछी उनसे ही जा रही हैं.
सुना जा रहा है कि अध्यक्ष पद की रेस में मल्लिकार्जुन खड्गे से लेकर मनमोहन सिंह तक के नाम चल पड़े हैं. अशोक गहलोत तो हैं ही, अब महाराष्ट्र से आने वाले सुशील कुमार शिंदे भी शुमार हो चुके हैं. यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी के ही कुछ दिन के लिए फिर से कमान संभालने की भी सलाहियत चल रही है.
मनमोहन सिंह खोज तो सोनिया गांधी के हैं, लेकिन वो प्रियंका वाड्रा के समर्थकों को भी भाने लगे हैं. आइडिया ये है कि अभी मनमोहन सिंह कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ जायें और फिर सही वक्त आने पर प्रियंका वाड्रा के लिए खाली कर दें.
सवाल ये है कि कांग्रेस में हर नियुक्ति झगड़े की जड़ क्यों बन जाती है?
ऐसा लगा था कि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल से अधीर रंजन चौधरी को दिल्ली लाकर कोई गलती नहीं की, लेकिन ये गलतफहमी भी धीरे धीरे दूर होने लगी है. इंडियन एक्सप्रेस के एक कॉलम में दी गयी जानकारी के मुताबिक नौबत ये आ चुकी है कि गांधी परिवार का कोई करीबी कांग्रेस छोड़ भी सकता है. बताते हैं कि अधीर रंजन की नियुक्ति के बाद लोक सभा में कांग्रेस का उप नेता चुना जाना मुश्किल हो गया है - क्योंकि मनीष तिवारी और शशि थरूर ने अधीर रंजन चौधरी के मातहत काम करने से इंकार कर दिया है.
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