राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को कांग्रेस के राजनीतिक विरोधी पार्ट-टाइम पॉलिटिशियन बताते रहे हैं. कांग्रेस (Congress) के बगैर विपक्ष की कल्पना मात्र को बेमानी बताने वाले शरद पवार की राय भी राहुल गांधी को लेकर वैसी ही है - और ममता बनर्जी भी पवार की ही तरह सक्रियता और निरंतरता को लेकर सवाल उठाती रही हैं.
यहां तक कि प्रशांत किशोर भी कुछ दिनों से राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता को लेकर ऐसे ही सवाल खड़े कर रहे हैं. खासकर बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2024 के आम चुनाव में चैलेंज करने के प्रसंग में.
राहुल गांधी को अक्सर बड़ी ही साफगोई से अपनी बात कहते देखा गया है. ये बात अलग है कि बीजेपी नेता और दूसरे राजनीतिक विरोधी ऐसी चीजों को उनकी मूर्खतापूर्ण हरकतों से जोड़ देते हैं. राहुल गांधी खुद भी ऐसी बातों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं. भरी संसद में लाइव टीवी के कैमरे के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले लग कर आंख मारने के बाद तो ये धारणा और भी मजबूत हो चुकी है.
राहुल गांधी ने सत्ता और राजनीति (Power and Politics) को लेकर दो बातें कही हैं. एक तो सौ फीसदी सच है, लिहाजा दूसरी बात को भी उतनी ही तवज्जो दी जा सकती है. राहुल गांधी ने ये ध्यान दिलाया है कि वो सत्ता के बीच पैदा हुए. बिलकुल सही बात है. पैदा ही नहीं हुए, पले-बढ़े भी - और ये भी सच ही है कि उसी बदौलत राजनीति में आये भी. ये भी उसी सच का साइड इफेक्ट है कि जिन वजहों से वो राजनीति में आये उसी के चलते विरोधियों के निशाने पर भी रहते हैं.
साफगोई का आलम ये है कि जैसे संसद में कभी कहा था, 'आप लोग मुझे पप्पू समझते हो...' - और लगे हाथ ये भी साफ कर दिया था कि ऐसी बातों से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता. ठीक वैसे ही अब साफ साफ ये भी बोल दिया है कि न तो सत्ता...
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को कांग्रेस के राजनीतिक विरोधी पार्ट-टाइम पॉलिटिशियन बताते रहे हैं. कांग्रेस (Congress) के बगैर विपक्ष की कल्पना मात्र को बेमानी बताने वाले शरद पवार की राय भी राहुल गांधी को लेकर वैसी ही है - और ममता बनर्जी भी पवार की ही तरह सक्रियता और निरंतरता को लेकर सवाल उठाती रही हैं.
यहां तक कि प्रशांत किशोर भी कुछ दिनों से राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता को लेकर ऐसे ही सवाल खड़े कर रहे हैं. खासकर बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2024 के आम चुनाव में चैलेंज करने के प्रसंग में.
राहुल गांधी को अक्सर बड़ी ही साफगोई से अपनी बात कहते देखा गया है. ये बात अलग है कि बीजेपी नेता और दूसरे राजनीतिक विरोधी ऐसी चीजों को उनकी मूर्खतापूर्ण हरकतों से जोड़ देते हैं. राहुल गांधी खुद भी ऐसी बातों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं. भरी संसद में लाइव टीवी के कैमरे के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले लग कर आंख मारने के बाद तो ये धारणा और भी मजबूत हो चुकी है.
राहुल गांधी ने सत्ता और राजनीति (Power and Politics) को लेकर दो बातें कही हैं. एक तो सौ फीसदी सच है, लिहाजा दूसरी बात को भी उतनी ही तवज्जो दी जा सकती है. राहुल गांधी ने ये ध्यान दिलाया है कि वो सत्ता के बीच पैदा हुए. बिलकुल सही बात है. पैदा ही नहीं हुए, पले-बढ़े भी - और ये भी सच ही है कि उसी बदौलत राजनीति में आये भी. ये भी उसी सच का साइड इफेक्ट है कि जिन वजहों से वो राजनीति में आये उसी के चलते विरोधियों के निशाने पर भी रहते हैं.
साफगोई का आलम ये है कि जैसे संसद में कभी कहा था, 'आप लोग मुझे पप्पू समझते हो...' - और लगे हाथ ये भी साफ कर दिया था कि ऐसी बातों से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता. ठीक वैसे ही अब साफ साफ ये भी बोल दिया है कि न तो सत्ता में उनकी कोई दिलचस्पी है, न ही राजनीति में. हां, एक और महत्वपूर्ण बात राहुल गांधी ने कही है वो ये कि अपने देश से वो बेपनाह मोहब्बत करते हैं.
अगर राहुल गांधी सरेआम ये कहते हैं कि देश ने उनको खूब प्यार और दुलार दिया, लेकिन जूते भी मारे तो ये बहुत ही गंभीर मामला है. ये सब न समझना राहुल गांधी का सबसे बड़ा अपमान है - और ऐसा करने वाले गांधी परिवार के लोग भी उनके लिए बीजेपी नेताओं जैसे ही लगते हैं.
राहुल गांधी को समझें तो उनका कहना है कि देश से वो बिलकुल वैसे ही प्यार करते हैं जैसे कोई आशिक अपनी महबूबा से - और उनकी पूरी कोशिश देश को समझने की होती है. हर रोज वो यही काम करते हैं.
राजनीति अपनी जगह है, लेकिन सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी की साफगोई और ईमानदारी का सम्मान नहीं किया जा सकता? क्यों नहीं राहुल गांधी को जो करना चाहते हैं करने दिया जाता? अगर राहुल गांधी का मन नहीं है तो क्यों उनको कांग्रेस अध्यक्ष की कमान फिर से सौंपे जाने की कोशिशें हो रही हैं? क्यों राहुल गांधी के लिए कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी अपने पास रिजर्व रखे हुए है?
'जियो और जीने दो' के हकदार तो राहुल गांधी भी हैं. राहुल गांधी पर पारिवारिक विरासत बचाने भर के लिए चीजों को जबरन थोपे जाने की कोशिशें उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन तो है ही, मानवाधिकारों पर भी कुठाराघात ही है.
राजनीति करने के लिए मजबूर क्यों किया जाये?
राहुल गांधी को लेकर अक्सर उनके नये अवतार की चर्चा होती रही है. हाल फिलहाल उनका नया अवतार मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में देखने को मिला है. पहले गुजरात और फिर कर्नाटक में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की हौसलाअफजाई वाले राहुल गांधी के अंदाज में तो यही नजर आता है.
गुजरात चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में राहुल गांधी कांग्रेस के चिंतन शिविर में द्वारका पहुंचे थे. कांग्रेस कार्यकर्ताओं को राहुल गांधी ने अलग अलग तरीके से समझाने और उनमें जोश भरने की कोशिश की और उसी दौरान कहने लगे, 'सीबीआई, ED, पुलिस, गुंडे, हर रोज कोई न कोई, एक तरफ सत्ता... फर्क नहीं पड़ता...'
जब कांग्रेस कार्यकर्ता तन्मय होकर भाषण सुन रहे होते हैं तभी राहुल गांधी बोल पड़ते हैं - "सब माया है!"
सत्ता-राजनीति में दिलचस्पी क्यों नहीं: दिल्ली में ही एक किताब के रिलीज के मौके पर राहुल गांधी कहते हैं, 'मैं सत्ता के बीच में पैदा हुआ... और बड़ी अजीब सी बीमारी है... मुझे उसमें इंटरेस्ट ही नहीं है... मैं ईमानदारी से बोल रहा हूं... मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है.'
शरद यादव जब अपनी तरफ से राहुल गांधी को अध्यक्ष बना देने के लिए कांग्रेस को सलाह दे रहे थे, राहुल गांधी निर्विकार भाव से सुन रहे थे. जब मीडिया ने रिएक्शन मांगा तो बोले, 'ये देखने वाली बात है.'
सुन कर तो ऐसा ही लगा जैसे कह रहे हों कि सब माया है - और देखिये कि राहुल गांधी को ये बताने में भी ज्यादा देर नहीं लगी कि सत्ता और राजनीति में उनकी जरा भी दिलचस्पी नहीं है - अब दिलचस्पी नहीं है तो नहीं है. कोई जबरदस्ती है क्या?
प्यार भी मिला और 'जूते भी मारे': राहुल गांधी का राजनीतिक संघर्ष लंबा रहा है. दो साल बाद पूरी बीस साल हो जाएंगे. कहते हैं कोई भी इंसान अगर किसी काम में 10 हजार घंटे या बीस साल लगा दे तो मास्टर बन जाता है. अफसोस की बात ये है कि दो साल बाद भी राहुल गांधी के साथ ऐसा कुछ होता लगता तो नहीं है - 2024 में तो बिलकुल भी ऐसा कोई चमत्कार नहीं होने वाला है.
राहुल गांधी ने अपनी पीड़ा सरेआम साझा किया है, 'देश ने सिर्फ मुझे प्यार नहीं दिया... देश ने मुझे जूते भी मारे...'
आप जरा ध्यान से सोचिये. भले ही आप राहुल गांधी के समर्थक हों या विरोधी फर्क नहीं पड़ता. एक बार खुद को उनकी जगह रख कर सोचिये. भला किस नेता ने ऐसी बातें कही है? अगर कोई ऐसी बातें कहता है तो मंशा अलग होती है. किसी न किसी पर हमला या कटाक्ष होता है.
राहुल गांधी भी समझते हैं, उनकी बातें सुन रहे लोग क्या सोच रहे होंगे, 'नहीं, आप समझ नहीं सकते... कितने जोरों से... कितनी हिंसा से इस देश ने मुझे मारा है... पीटा है... तो मैंने सोचा कि हो क्यों रहा है? और जवाब मिला... देश मुझे सिखाना चाहता है... देश मुझे कह रहा है कि तुम सीखो, तुम समझो - दर्द हो तो कुछ नहीं, सीखो और समझो.'
राहुल गांधी की भावनाओं का आदर क्यों नहीं हो रहा
2019 के आम चुनाव में हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे देते हैं. कहते हैं कि गांधी परिवार से अलग किसी को अध्यक्ष चुन लो. CWC में हार की पर मंथन के दौरान जब कुछ कांग्रेस नेता कमान संभालने को लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा का नाम लेते हैं तो मौके पर ही झिड़क देते हैं, 'मेरी बहन को मत फंसाओ.'
राहुल गांधी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव प्रक्रिया से भी खुद को अलग कर लेते हैं और कोशिश करते हैं कि सोनिया गांधी या प्रियंका गांधी में से भी कोई चुनाव प्रक्रिया से जुड़े नेताओं के संपर्क में भी न रहे - लेकिन ये सब सोनिया गांधी को ठीक नहीं लगता.
सोनिया गांधी को भी राहुल गांधी को समझना होगा: एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया जाता है. समझा जाता है कि सोनिया गांधी नहीं चाहतीं कि कांग्रेस की कमान गांधी परिवार के हाथ से निकल कर किसी और के हाथ में पहुंच जाये.
कुछ दिन बाद ही कांग्रेस में स्थायी अध्यक्ष की मांग शुरू हो जाती है. G-23 के नाम से पहचाने जाने वाले नेताओं का एक गुट सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखता है. कार्यकारिणी की बैठक बुलायी जाती है - और सोनिया गांधी अध्यक्ष पद छोड़ने का दांव चलती हैं.
मान मनौव्वल शुरू हो जाती है. मान भी जाती हैं. फिर पंजाब की घटनाओं के बीच G-23 की तरफ से कपिल सिब्बल सवाल उठाते हैं - जब कोई स्थायी अध्यक्ष ही नहीं तो कांग्रेस में फैसले कौन ले रहा है?
सोनिया गांधी फिर से कार्यकारिणी में प्रकट होती हैं और अंग्रेजी में बड़े ही सोफियाने अंदाज में कहती हैं - 'अगर आपकी अनुमति हो तो मैं बताना चाहती हूं कि मैं ही कांग्रेस अध्यक्ष हूं.' मतलब, मैं ही सारे फैसले लेती हूं. ताली बजती है और हर कोई श्रद्धापूर्वक सब कुछ कबूल कर लेता है. तकनीकी रूप से भले ही कार्यकारिणी ने सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष ही बनाया हो, फर्क नहीं पड़ता.
राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनना: जो बातें पहले से भी सबको पता हैं, शरद यादव भी वही दोहराते हैं - ये राहुल गांधी ही तो हैं जो कांग्रेस को 24 घंटे चलाते हैं. राहुल गांधी बगल में खड़े रहते हैं. कुछ भी नहीं बोलते. चेहरे के भाव भी न इनकार वाले लगते हैं और न ही मौन की स्वीकारोक्ति वाले.
बातों बातों में ही शरद यादव ये सलाह भी दे डालते हैं कि कांग्रेस को चाहिये कि वो राहुल गांधी को अध्यक्ष बना कर कमान सौंप दे, मास्क पहने राहुल गांधी के चेहरे पर तब भी कोई नये भाव देखने को नहीं मिलते.
फिर मीडिया का सवाल होता है, रिएक्शन के लिए तो सिर्फ इतना ही कहते हैं, 'ये देखने वाली बात है.'
राहुल गांधी आखिर कितने इशारे करें. हो सकता है, घर पर राहुल गांधी के बयान पर चर्चा हुई हो. ये जानने के लिए ही सही कि क्या सोचा है? धीरे धीरे वो समय भी तो करीब ही आ रहा है. कई बार टाल दिये जाने के बाद कांग्रेस की तरफ से अलग अलग तरीके से यही समझाने की कोशिश रही है कि सितंबर तक अध्यक्ष का नाम सामने आ जाएगा.
ये बताने का लहजा भी कुछ ऐसा होता है - सितंबर तक राहुल गांधी का नाम अध्यक्ष के रूप में सामने आ जाएगा. अभी ये जानकारी सब तक पहुंची भी नहीं होती, तभी ऐसी खबरें भी लीक होने लगती हैं कि राहुल गांधी ने तो अभी तक मंजूरी ही नहीं दी है. फिर कहां से नया अध्यक्ष सामने आएगा. यहां तो मुकदमों की तारीखें भी पीछे लगती हैं और नयी तारीख आ जाती है.
राहुल गांधी को भी मन के काम का हक है: सवाल ये है कि राहुल गांधी को अपने मन की बात की छूट क्यों नहीं मिलती? जैसे इस देश में रोजी रोटी की मजबूरी में कोई कलाकार एकाउंट का काम देखता है - और हिसाब किताब में दिलचस्पी रखने वाला ग्राफिक्स डिजायनर की नौकरी करने को मजबूर होता है, लगता है राहुल गांधी का हाल भी ज्यादा अलग नहीं है.
बेशक कभी कभी राहुल गांधी बोल देते हैं कि अगर कांग्रेस ने केंद्र में सत्ता हासिल की तो वो प्रधानमंत्री बनने को तैयार हैं. 2018 के कर्नाटक चुनाव में ये बोला ही था कि बीजेपी नेता टूट पड़े. ऐसे ही जब संसद में भाषण देते देते राहुल गांधी अचानक ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास जाकर गले मिल लिया तो भी निशाने पर आ गये. टीवी पर टू-विंडो में प्रिया वॉरियर के आंख मारने वाले शॉट से तुलना होने लगी. प्रधानमंत्री ने भी कह ही दिया, मेरी कुर्सी हासिल करने की बड़ी जल्दबाजी है.
संसद में ही एक बार राहुल गांधी के भाषण के नोट्स को लेकर काफी चर्चा हुई थी. बाद में एक कार्यक्रम में राहुल गांधी ने सच सच बता दिया. हां, मेरा भाषण कोई और लिखता है. मेरे ऑफिस में एक लड़का भी है जो कहानियां भी सुनाता है - भाषणों में इस्तेमाल के लिए.
भला अब कितनी इमादारी चाहिये. जो शख्स मीडिया के सवालों पर स्वीकार कर चुका हो कि हां जांच एजेंसियों का थोड़ा बहुत इस्तेमाल तो होता ही है. ये 2009 के आम चुनावों के बाद की बात है जब राहुल गांधी के यूपी में परफॉर्मेंस की हर तरफ तारीफ हो रही थी.
ऐसे कई सारे लोग हैं जो लिखे हुए भाषण पढ़ते हैं. मायावती तो बिना पढ़े सिर्फ मुस्कुराती भर हैं, एक शब्द बोलने को कभी कभार ही तैयार हुई हों, मीडिया सवाल पूछते रहता है वो उठ कर चल देती हैं.
आप 2004 से 2014 का दौर जरा याद कीजिये. केंद्र में यूपीए की सरकार थी. डॉक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे. अव्वल तो उनकी खामोशी ही याद रखी जाती है, लेकिन अक्सर वो राहुल गांधी के लिए कुर्सी छोड़ने को तैयार रहते थे. कई बार तो ऐसा बोले भी.
राहुल गांधी की भावनाओं का सम्मान होना चाहिये: क्या राहुल गांधी चाहते तो तब प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे? बीजेपी ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा तो 2004 में उठाया था, 2009 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए को दोबारा मिली जीत के बाद तो सबके मुंह बंद ही हो गये थे. अगर तभी सोनिया गांधी चाहतीं तो क्या प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक लेता? अगर राहुल गांधी तब भी नहीं बने तो यही समझा जाएगा कि वास्तव में दिलचस्पी नहीं थी.
राहुल गांधी तो तब भी कहा करते थे कि सत्ता में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं है. अक्सर ही कहते थे - मैं सिस्टम बदलना चाहता हूं. हो सकता है 2014 में कांग्रेस को सत्ता नहीं गंवानी पड़ी होती तो राहुल गांधी के एक्सपेरिमेंट के कुछ नतीजे देखने को मिले होते.
सत्ता और राजनीति को लेकर राहुल गांधी ने अपनी दिलचस्पी की जो बात कही है, उसकी रिस्पेक्ट होना चाहिये. जैसे हलवाई को दुकान की मिठाइयों में कोई दिलचस्पी नहीं होती, राहुल गांधी ने भी वैसी ही मन की बात शेयर की है. अब तो बहस का कोई मतलब भी नहीं लगता. बात ही खत्म होनी चाहिये. अगर अब कोई कांग्रेस नेता राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की बात करता है तो टॉर्चर का मामला बनेगा - और राजनीतिक विरोधियों पर टारगेट किये जाने का.
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