उरी अटैक से पूरा देश बहुत गुस्से में हैं. राहुल गांधी का गुस्सा भी स्वाभाविक है. खासकर तब जबकि उन्होंने अरुण जेटली को पहले ही अलर्ट किया था - 'कश्मीर में आपको बड़ी प्रॉब्लम आ रही है.' जिस अरुण जेटली को यही भरोसा नहीं कि ना जाने राहुल गांधी कब सीखेंगे वो भला उनकी बातों पर कितना ध्यान देते इसलिए यूं ही कह दिया होगा - 'कश्मीर में कोई प्रॉब्लम नहीं है.' मालूम नहीं, जेटली को ये पक्का यकीन कैसे हुआ कि कोई खुफिया अधिकारी राहुल से मिलकर कुछ बताया नहीं होगा!
जय जवान, जय किसान
अपनी किसान यात्रा में खाट लूटे जाने को स्वाभाविक प्रतिक्रिया मान कर चलने वाले राहुल गांधी को किसानों की हालत देखते ही विजय माल्या की याद आ जाती और फिर वो मोदी सरकार को जीभर कोसते देखे गये. एक तरफ किसान कर्ज में डूबे हुए हैं और दूसरी तरफ माल्या बैंकों का पैसा लेकर भाग जा रहे हैं और सरकार कुछ नहीं कर रही. सच में ये तो अंधेरगर्दी है. अब इसे सूट बूट की सरकार न कहा जाये तो क्या कहा जाये.
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अगर राहुल गांधी को लगता है कि सरकार न तो किसानों के लिए कुछ कर रही है और न ही जवानों के लिए तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है. उरी का हमला जवानों की सुरक्षा में बड़ी चूक है. दिन रात मुस्तैद रह कर पूरे मुल्क को चैन की नींद सोने का मौका देने वाले जवानों को तो थकान मिटाने का भी मौका नहीं मिला. थोड़ी झपकी क्या ली कि आतंकवादियों ने उन्हें मौत की नींद सुला दिया.
जिस तरह न्यायपालिका में अकाउंटेबिलिटी को लेकर बहस जारी है, उस तरह सेना में भी ऐसी चूकों के लिए बात होनी चाहिये. अगर कारगिल और मुंबई हमले को छोड़ भी दें तो पठानकोट के बाद उरी अटैक क्यों हुआ? जाहिर है सुरक्षा में बड़ी...
उरी अटैक से पूरा देश बहुत गुस्से में हैं. राहुल गांधी का गुस्सा भी स्वाभाविक है. खासकर तब जबकि उन्होंने अरुण जेटली को पहले ही अलर्ट किया था - 'कश्मीर में आपको बड़ी प्रॉब्लम आ रही है.' जिस अरुण जेटली को यही भरोसा नहीं कि ना जाने राहुल गांधी कब सीखेंगे वो भला उनकी बातों पर कितना ध्यान देते इसलिए यूं ही कह दिया होगा - 'कश्मीर में कोई प्रॉब्लम नहीं है.' मालूम नहीं, जेटली को ये पक्का यकीन कैसे हुआ कि कोई खुफिया अधिकारी राहुल से मिलकर कुछ बताया नहीं होगा!
जय जवान, जय किसान
अपनी किसान यात्रा में खाट लूटे जाने को स्वाभाविक प्रतिक्रिया मान कर चलने वाले राहुल गांधी को किसानों की हालत देखते ही विजय माल्या की याद आ जाती और फिर वो मोदी सरकार को जीभर कोसते देखे गये. एक तरफ किसान कर्ज में डूबे हुए हैं और दूसरी तरफ माल्या बैंकों का पैसा लेकर भाग जा रहे हैं और सरकार कुछ नहीं कर रही. सच में ये तो अंधेरगर्दी है. अब इसे सूट बूट की सरकार न कहा जाये तो क्या कहा जाये.
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अगर राहुल गांधी को लगता है कि सरकार न तो किसानों के लिए कुछ कर रही है और न ही जवानों के लिए तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है. उरी का हमला जवानों की सुरक्षा में बड़ी चूक है. दिन रात मुस्तैद रह कर पूरे मुल्क को चैन की नींद सोने का मौका देने वाले जवानों को तो थकान मिटाने का भी मौका नहीं मिला. थोड़ी झपकी क्या ली कि आतंकवादियों ने उन्हें मौत की नींद सुला दिया.
जिस तरह न्यायपालिका में अकाउंटेबिलिटी को लेकर बहस जारी है, उस तरह सेना में भी ऐसी चूकों के लिए बात होनी चाहिये. अगर कारगिल और मुंबई हमले को छोड़ भी दें तो पठानकोट के बाद उरी अटैक क्यों हुआ? जाहिर है सुरक्षा में बड़ी चूक हुई है - और जो भी सैन्य अफसर हों सिर्फ ये कह कर कि मुहंतोड़ जवाब दिया जाएगा जिम्मेदारी से बच नहीं सकते.
जवानों की शहादत के बाद भी सरकारी तौर पर भेदभाव देखने को मिले हैं. पत्रकार नवीन पाल फेसबुक पर लिखते हैं, "किसी ने दस लाख और किसी ने बारह लाख. क्या ये मुमकिन नहीं था कि जिन भी राज्यों ने सहायता राशि का एलान किया वो अपने नागरिकों के साथ बाकी शहीदों को भी बराबर राशि का एलान करते? इससे उनके सरकारी खजाने पर महज पांच सात करोड़ का असर पड़ता पर इससे देश में संदेश बड़ा जाता कि हम एक हैं."
पठानकोट जैसा न हो उरी का हाल... |
बिहार में तो एक शहीद की पत्नी का गुस्सा फूट ही पड़ा, "मेरा पति शहीद हुआ है. वो शराब पीकर या नाले में गिरकर नहीं मरा." इतना सुनने के बाद बिहार सरकार को समझ आई और तब कहीं जाकर पांच लाख से बढ़ाकर शहीद के परिवार को 11 लाख का चेक दिया गया.
'जय जवान जय किसान'. लगता है सरकारें अब ये नारा भी भूलने लगी हैं - जबकि 2 अक्टूबर आने में ज्यादा दिन बाकी नहीं हैं.
जीत का इवेंट मैनेजमेंट नहीं होता
उरी हमले के बाद प्रधानमंत्री ने देश को भरोसा दिलाया है कि दोषी बख्शे नहीं जाएंगे. प्रधानमंत्री की बातों पर यकीन के साथ उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार पठानकोट से कुछ अलग रिजल्ट होगा.
वैसे प्रधानमंत्री को पता होना चाहिये कि देश के लोग बहुत इंतजार के मूड में नहीं दिख रहे. यहां तक कि ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ के सर्वे में भी 60 फीसदी से ज्यादा लोगों ने सैन्य बल के इस्तेमाल का सपोर्ट किया है. इसी सर्वे में शामिल आधे से अधिक लोगों ने मोदी की पाकिस्तान नीति को भी नामंजूर कर दिया है.
ये बात अलग है कि सर्वे में शामिल लोग बयान को कार्रवाई का हिस्सा नहीं मानते, जैसा कि केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने दावा किया था. ऐसे सर्वे में शामिल लोगों को डिप्लोमैटिक एक्शन की बात भी बहुत समझ में नहीं आती, देश के अंदर के कानून की बात और है - बाहर के लिए उन्हें बस आंख के बदले आंख वाली भाषा ही समझ आती है. वैसे सर्वे में शामिल वे ही लोग होते हैं जो वोट देकर सरकार चुनते हैं.
राहुल गांधी के भाषण में फिलहाल जो तेवर दिख रहा है चुनावों से पहले मोदी की बातें इससे भी धारदार हुआ करती थीं, लेकिन सत्ता की अपनी जिम्मेदारियां और मजबूरियां होती हैं.
वैसे पाकिस्तान शुरू से ही मोदी के एजेंडे में दिखा - शपथ के मौके पर सार्क देशों के नेताओं को बुलाने के साथ ही मोदी ने नवाज शरीफ से अलग से खास तौर पर मुलाकात की. शरीफ को बर्थडे विश करने लाहौर भी पहुंचे - और जब भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मुमकिन हुआ मोदी और नवाज को साथ साथ देखा गया.
निश्चित रूप से ये इवेंट मैनेजमेंट था. अब राहुल गांधी इन इवेंट्स की बात कर रहे हैं या फिर जो मैडिसन स्क्वायर पर आयोजित हुआ था. या फिर मोदी की विदेश यात्राओं के दौरान उन कार्यक्रमों को लेकर जिनमें 'मोदी-मोदी' की गूंज सुनाई दे रही थी.
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राहुल गांधी को एतराज किस इवेंट से है ये साफ नहीं हो पा रहा है. क्या राहुल गांधी को मोदी का लाहौर दौरा ठीक नहीं लगा? फिर तो उन्हें वाजपेयी की लाहौर यात्रा से भी शिकायत होगी. तो क्या समझा जाए कि राहुल के चलते ही दस साल तक प्रधानमंत्री रहने के बावजूद मनमोहन सिंह एक बार भी लाहौर नहीं जा सके - या फिर उस जगह जहां वो पैदा हुए थे.
क्या राहुल गांधी को सुषमा स्वराज का हरी साड़ी में इस्लामाबाद जाना अच्छा नहीं लगा या राजनाथ सिंह का बगैर लंच किये पाकिस्तान से लौट आना? कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल गांधी भी उन्हीं लोगों की तरह सोच रहे हैं जैसे सर्वे में शामिल लोग. आखिर वे आम लोग ही तो हैं - और राहुल भी तो उन्हीं की बात करते हैं.
अगर राहुल पीएम होते...
अभी अभी की तो बात है ऑल पार्टी मीट में कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष ने प्रधानमंत्री को कश्मीर समस्या सुलझाने के लिए पूरा मैंडेट दिया था. बाद में विपक्षी दलों के नेताओं का डेलीगेशन भी कश्मीर गया था - अब अलगाववादियों ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया तो उसमें इवेंट मैनेजमेंट जैसा तो कुछ नहीं लगता.
राहुल गांधी का आरोप ये भी है कि जब से जम्मू कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की गठबंधन सरकार बनी है स्थिति बदतर हो गयी है.
राहुल गांधी कहते हैं, "मैं पाकिस्तान के कृत्य की निंदा करता हूं. हालांकि, इसके लिए जमीन कश्मीर में एनडीए द्वारा की जा रही राजनीति ने ही तैयार की है. पीएम मोदी ने पीडीपी के साथ गठबंधन कर के कश्मीर में आतंक के लिए रास्ता खोला. हमारे जवान शहीद हुए हैं और मैं इसकी निंदा करता हूं."
लेकिन राहुल के इस बयान में पीडीपी के साथ बीजेपी के गठबंधन से आतंक के लिए रास्ता खोले जाने की बात नहीं समझ आ रही है. कानून व्यवस्था लागू करना सूबे की सरकार की जिम्मेदारी होती है - और जम्मू कश्मीर में अब तक सबसे लंबा कर्फ्यू लगा रहा है. निश्चित रूप से ये महबूबा सरकार की नाकामी है. मगर, बात सिर्फ इतनी भर ही है या कुछ और भी?
मान लेते हैं कि पीडीपी के सत्ता में आने के बाद ही मसरत आलम की रिहाई हुई थी, लेकिन जल्द ही उसे जेल भी भेज दिया गया. अभी तो ये महबूबा मुफ्ती ही हैं जो अलगाववादियों को अपनी हरकतों से बाज आने की बात कर रही हैं. जो महबूबा कल तक सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मारे गये लोगों के साथ खड़ी होती रहीं, वो सवाल खड़े कर रही हैं कि पत्थरबाज सड़कों पर दूध-ब्रेड लेने नहीं निकले थे.
क्या बीजेपी और पीडीपी के गठबंधन की सरकार नहीं होती तो महबूबा ऐसे कभी बोल पातीं?
कोई भी लड़ाई कैसे जीती जाती है? क्या लड़ाई जीतने का कोई खास तरीका हो सकता है? एक तरीके से एक ही लड़ाई जीती जा सकती है - दूसरी नहीं, ऐसा माना जाता है.
वैसे गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष भरत सोलंकी का दावा है कि अगर राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर समस्या इतनी खराब स्थिति में नहीं पहुंचती. अब ये तो किस्मत की बात है - क्योंकि हर कोई नसीबवाला नहीं होता.
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