कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी (Cambridge niversity Lecture) में राहुल गांधी को सुनने की अहमियत समझानी थी. सुनना कैसे सीखा जा सकता है? ये समझाना था. अव्वल तो ये सुनना ही अपनेआप में मुश्किल है, ऊपर से उसे सीखना तो और भी मुश्किल हो सकता है.
कुछ लोगों को सुनने की आदत होती है. ऐसे लोगों के लिए कह सकते हैं कि सुनना एक कला है. लेकिन कुछ लोग हालात और गुजरते वक्त के साथ धीरे धीरे सुनना सीख लेते हैं - ऐसे लोगों के लिए सुनना किसी हुनर जैसा ही समझा जाना चाहिये.
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की जो छवि उनके राजनीतिक विरोधियों ने बनायी है, उससे इतर भी उनकी जो छवि नजर आती है - ऐसा तो कम ही लगता है कि वो किसी की सुनते होंगे. चंद चाटुकारों की बात अलग है, लेकिन सही सलाह देने वालों की तो हरगिज नहीं सुनते हैं.
ऐसे कई उदाहरण हैं. कांग्रेस के कई सीनियर नेता सलाह दे चुके हैं कि वो केंद्र की बीजेपी सरकार की नीतियों को बारे में चाहे जो मर्जी कहें, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमलों से हर हाल में बचने की कोशिश करें. मोदी के प्रति राहुल गांधी का सदाबहार आक्रामक रुख देख कर तो ऐसा कभी नहीं लगा कि वो सुनते भी हैं. 'चौकीदार चोर है' को अगर राजनीतिक स्लोगन मान भी लें तो ये कहने का क्या मतलब है - 'युवा डंडे मारेंगे...'
कांग्रेस की कश्मीर पॉलिसी से भी कई नेता सहमत नहीं रहे हैं. उनमें से कई तो कांग्रेस छोड़ भी चुके हैं. छोड़ने को तो कांग्रेस की कश्मीर पॉलिसी के कर्ता धर्ता गुलाम नबी आजाद भी पार्टी छोड़ चुके हैं - लेकिन राहुल गांधी कश्मीर पर कांग्रेस के स्टैंड के साथ डटे हुए हैं.
आखिर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी को क्यों लगा होगा कि सुनने को लेकर राहुल गांधी ही छात्रों को अच्छे से समझा सकते हैं? ये तो नहीं पता चला है कि ये टॉपिक...
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी (Cambridge niversity Lecture) में राहुल गांधी को सुनने की अहमियत समझानी थी. सुनना कैसे सीखा जा सकता है? ये समझाना था. अव्वल तो ये सुनना ही अपनेआप में मुश्किल है, ऊपर से उसे सीखना तो और भी मुश्किल हो सकता है.
कुछ लोगों को सुनने की आदत होती है. ऐसे लोगों के लिए कह सकते हैं कि सुनना एक कला है. लेकिन कुछ लोग हालात और गुजरते वक्त के साथ धीरे धीरे सुनना सीख लेते हैं - ऐसे लोगों के लिए सुनना किसी हुनर जैसा ही समझा जाना चाहिये.
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की जो छवि उनके राजनीतिक विरोधियों ने बनायी है, उससे इतर भी उनकी जो छवि नजर आती है - ऐसा तो कम ही लगता है कि वो किसी की सुनते होंगे. चंद चाटुकारों की बात अलग है, लेकिन सही सलाह देने वालों की तो हरगिज नहीं सुनते हैं.
ऐसे कई उदाहरण हैं. कांग्रेस के कई सीनियर नेता सलाह दे चुके हैं कि वो केंद्र की बीजेपी सरकार की नीतियों को बारे में चाहे जो मर्जी कहें, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमलों से हर हाल में बचने की कोशिश करें. मोदी के प्रति राहुल गांधी का सदाबहार आक्रामक रुख देख कर तो ऐसा कभी नहीं लगा कि वो सुनते भी हैं. 'चौकीदार चोर है' को अगर राजनीतिक स्लोगन मान भी लें तो ये कहने का क्या मतलब है - 'युवा डंडे मारेंगे...'
कांग्रेस की कश्मीर पॉलिसी से भी कई नेता सहमत नहीं रहे हैं. उनमें से कई तो कांग्रेस छोड़ भी चुके हैं. छोड़ने को तो कांग्रेस की कश्मीर पॉलिसी के कर्ता धर्ता गुलाम नबी आजाद भी पार्टी छोड़ चुके हैं - लेकिन राहुल गांधी कश्मीर पर कांग्रेस के स्टैंड के साथ डटे हुए हैं.
आखिर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी को क्यों लगा होगा कि सुनने को लेकर राहुल गांधी ही छात्रों को अच्छे से समझा सकते हैं? ये तो नहीं पता चला है कि ये टॉपिक यूनिवर्सिटी की तरफ से ही तय किया जा चुका था, या काफी समय से कांग्रेस के तकनीकी सलाहकार की भूमिका में रहे सैम पित्रोदा की ये सलाह रही - या फिर राहुल गांधी ने ही ये शर्त रख दी होगी कि मैं तो इसी टॉपिक पर बोलूंगा. कुछ भी हो सकता है. अगर आम सहमति बन जाती है तो बाकी बातें पीछे छूट ही जाती हैं.
अब सवाल है कि राहुल गांधी ने अगर सुनना सीखा भी होगा तो ट्रेनर कौन रहा होगा? ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ती है, जिस माहौल में इंसान पलता बढ़ता है, सीखता तो सब कुछ आस पास से ही है - ये सीखने के लिए राहुल गांधी के बेहद करीब रोल मॉडल पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो हैं ही. पहले एक बार मनमोहन सिंह को राहुल गांधी अपना गुरु भी बता चुके हैं.
संयोग से भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी को सुनने का फायदा भी समझ में आ गया. ये तब की बात है जब वो यात्रा करते करते जम्मू-कश्मीर पहुंचे थे. सुनने की अहमियत को लेकर कश्मीर से जुड़ा एक किस्सा राहुल गांधी ने अपने कैम्ब्रिज लेक्चर में सुनाया है.
ये किस्सा है, जम्मू कश्मीर (Modi Kashmir Policy) में आतंकवादियों से एनकाउंटर का. एक ऐसा एनकाउंटर जिसमें न तो किसी ने किसी पर हमला किया, न ही किसी ने किसी को कोई नुकसान ही पहुंचाया - राहुल गांधी की मानें तो घाटी में ये पहला अहिंसक एनकाउंटर रहा.
ये तो नहीं मालूम कि राहुल गांधी ने कश्मीर में आतंकवादी से मुलाकात वाली बात उन खुफिया अफसरों को बतायी है या नहीं, जिन्होंने पेगासस को लेकर उनको अलर्ट किया था. या फिर सुरक्षा बलों के उन लोगों से जो उनको कश्मीर में यात्रा निकालने से मना कर रहे थे. फिर भी वो नहीं माने.
ये भी कितना अजीब है. राहुल गांधी सुनना सीखने के लिए ऐसा किस्सा समझा रहे हैं, जिसमें वो खुद सुरक्षा कर्मियों की बात नहीं सुन रहे हैं - और आतंकवादी के रास्ते में मिलने की बात भी देश के लोगों से पहले दूर के लोगों को बता रहे हैं.
लेकिन सवाल ये है कि कोई आतंकवादी क्या सिर्फ इसलिए किसी को छोड़ देगा क्योंकि उसे कोई सुन रहा है? सरगना की बात अलग है, लेकिन कमांडरों तक के पास सुनने की कोई समझ तो होती नहीं - वे तो सिर्फ वही सुनते हैं जो उनके आका का हुक्म होता है - राहुल गांधी ने जो किस्सा सुनाया है, बाबा भारती और खड़ग सिंह जैसे किरदारों वाली कहानी 'हार की जीत' की याद दिला दी है.
ये किस्सा सुनने के बाद मालूम नहीं बीजेपी नेता क्यों राहुल गांधी के पीछे क्यों पड़े हुए हैं? राहुल गांधी ने कैंब्रिज जाकर मोदी के मन की बात ही कर डाली है. एक बार जरा ध्यान से समझ कर तो देखें. क्या ऐसा नहीं लगता है जैसे राहुल गांधी ने गलती से मिस्टेक कर दी हो - ये तो ऐसा लगता है जैसे कश्मीर पर मोदी सरकार को सर्टिफिकेट दे डाला हो?
किसी आतंकवादी से एनकाउंटर कैसा होता है?
करीब बीस साल पुरानी बात होगी. मेरे एक प्रोफेसर अपने बेटे की जिद से थोड़े परेशान रहते थे. बेटे को आर्मी में ही जाना था. और सीडीएस के जरिये सेलेक्शन के बाद उसने इंफैंट्री को ही चुना. कई बरस बाद मिला तो प्रोफेसर साहब ने हमेशा की तरह बहुत सारी बातें बतायीं. बेटे के फैसले पर उनकी बातों से गर्व की अनुभूति तो हो रही थी, लेकिन एक उलझन भी समझ में आ रही थी क्योंकि वही एक मात्र संतान है.
मैं मिलने बनारस गया तो संयोग से वो अफसर भी घर आया हुआ था. बाकी बातें तो हुईं ही, उसकी एक बात मुझे कभी नहीं भूलती. वो बड़ी ही जबरदस्त मोटिवेशनल लाइन थी - 'हम लोग जिंदगी के हर मोमेंट को सेलीब्रेट करते हैं.'
और फिर समझाया भी, 'जब हम लोग ऑपरेशन के लिए निकलते हैं तो ये नहीं मालूम होता कि लौटेंगे भी या नहीं. क्या मालूम कौन सी गोली अगल बगल से गुजरने की जगह सीधे आ धमके?'
तब जम्मू-कश्मीर में ही उसकी पोस्टिंग थी. और जिस स्थिति की वो अफसर बात कर रहा था, वैसा कई बार उसके साथियों के साथ हो चुका था. जैसे कवि धूमिल के सामने हर आदमी एक जोड़ी जूता होता है, हर आतंकी के सामने हर आदमी महज एक टारगेट होता है - वो सिर्फ शूट करना जानता है. और कुछ नहीं.
राहुल गांधी जो भी समझाने की कोशिश करें, लेकिन उनका बातें एक राजनीतिक बयान से ज्यादा नहीं लगतीं. तब भी जबकि उनका परिवार खुद आतंकवाद का शिकार रहा है. वो बताते भी रहते हैं कि आतंकवाद को वो छोटी सी उम्र से कितने ही करीब से महसूस कर चुके हैं.
ब्रेन वॉश की भी लंबी प्रक्रिया होती है. कोई यूं ही आतंकवादी नहीं बन जाता. या फिर आत्मघाती बनने के लिए राजी नहीं होता - लेकिन हथियार उठाने के बाद जब वो टारगेट के लिए निकल पड़ता है तो उसके पास कुछ सुनाने के लिए भी होता है, राहुल गांधी की बातें सुनकर समझना काफी मुश्किल हो रहा है.
अगर कश्मीर के लोगों की बात करें तो समझ में भी आता है. लेकिन ये सुनने भी काफी अजीब लगता है कि कोई आतंकवादी ये सोच कर किसी को छोड़ देगा कि कोई उसे सुन रहा है. अगर ये बात उसके सरगना को पता चल जाये तो दूसरी टीम भेज कर वो वहीं उसका काम तमाम कर देगा.
राहुल गांधी ने कश्मीर में आतंकवादी से मुलाकात की बात ऐसे बतायी है, जैसे कुछ हुआ ही न हो. वो इतना जरूर कह रहे हैं कि एकबारगी उनको लगा कि परेशानी में पड़ जाएंगे - लेकिन उनकी आशंका गलत साबित हुई.
सुन कर ये सवाल तो उठता ही है कि राहुल गांधी को अचानक सामने आंतकवादी पाकर कैसा लगा होगा?
राहुल गांधी तो कहते हैं कि वो डरते नहीं हैं. लेकिन मोदी से नहीं डरने और किसी आतंकवादी से नहीं डरने में तो जमीन आसमान का फर्क है - क्या वास्तव में राहुल गांधी को सामने आतंकवादी खड़ा देख कर ज्यादा डर नहीं लगा होगा?
हो सकता है, जब तक उसके आतंकवादी होने से अनजान रहे हों तब तक डर नहीं लगा होगा, लेकिन उसके बाद? क्या उसके बाद भी, बिलकुल भी डर नहीं लगा होगा?
जाहिर है, घर में आकर सोनिया गांधी को भी बताये ही होंगे. तब तो प्रियंका गांधी भी साथ ही रही होंगी. वो तो, वैसे भी भाई को बहुत बहादुर बताती हैं. वायनाड में 2019 में नामांकन दाखिल करने के बाद तो ऐसा ही बताया था - अमेठी में आखिरी बार चूक गयी होंगी.
लेकिन क्या भाई के सामने आतंकवादी को पाकर प्रियंका गांधी को भी डर नहीं लगा होगा? अपने लिए न सही भाई के लिए ही सही? भाई के लिए न सही अपने लिए या अपने साथ चल रहे लोगों के लिए ही सही?
आखिर वो आतंकवादी राहुल गांधी के बारे में क्या सोच और समझ रहा होगा? क्या वो ये भी मान रहा होगा कि राहुल गांधी अगर प्रधानमंत्री बने तो कश्मीर में पुरानी स्थिति बहाल कर देंगे? या फिर ये सोच रहा होगा कि जब वो कश्मीर में सब अच्छा अच्छा महसूस कर रहे हैं - तो भला क्यों बदलाव करेंगे, जैसे चल रहा है चलने देंगे. ऐसा लगता है जैसे वो आतंकवादी भी कंफ्यूज रहा होगा. अगर पहले से नहीं तो मिलने के बाद तो पक्का कंफ्यूज हो गया होगा.
प्रमाणित किया जाता है कि...
कैम्ब्रिज यूनिवर्टिसी के एक हाल में राहुल गांधी अपने लेक्चर में कहते हैं, जम्मू-कश्मीर में... भारत जोड़ो यात्रा के दौरान... एक शख्स पास आया, और कहने लगा... उसे मुझसे बात करनी है. फिर उसने कुछ लोगों की ओर इशारा किया... और कहा वे आतंकवादी हैं... मैंने उन्हें देखा और उन्होंने मुझे - लेकिन किया कुछ नहीं.'
ये किस्सा तो मैजिक रिअलिज्म का फील दे रहा है. बिलुकल जादुई एहसास. नॉन फिक्शन में भी ऐसी किस्सागोई होती है? ये तो ऐसा लग रहा है जैसे संदेह और भ्रांतिमान में फर्क समझाया जा रहा हो - सारी है कि नारी है, नारी है कि सारी है?
एक बार राहुल गांधी की बातें भी सुन लेते हैं, ‘मैंने आतंकियों को देखा... उन्होंने भी मेरी तरफ देखा, लेकिन किया कुछ नहीं... यही सुनने की ताकत होती है.’
इति सिद्धम्.
पाइथागोरस के प्रमेय के अंत में यही लिखना होता है. सुनना सीखने के लिए ये सब भी सुनना पड़ता है!
क्या राहुल गांधी कैम्ब्रिज जाकर मोदी सरकार को एक साथ एक से ज्यादा सर्टिफिकेट नहीं दे दिये?
एक सर्टिफिकेट तो इस बात के लिए कि राहुल गांधी से एसपीजी सुरक्षा वापस लेने का मोदी सरकार का फैसला भी गलत नहीं था. राहुल गांधी को कोई खतरा नहीं है.
जब कोई आतंकवादी आये और मिल कर चुपचाप चला जाये तो किस बात का खतरा. समझ में नहीं आता कांग्रेस नेता क्यों राहुल गांधी की सुरक्षा में सेंध का इल्जाम लगाकर शोर मचाते रहते हैं? ये कोई फैशन ट्रेंड थोड़े ही है?
और सबसे बड़ा सर्टिफिकेट तो ये है कि धारा 370 हटा दिये जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में सब कुछ ठीक ठाक है. बल्कि सब कुछ दुरूस्त है. बिलकुल चाक चौबंद. ये ग्राउंड रिपोर्ट 'अपोजिशन लीडर' राहुल गांधी ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पेश की है - अब तो इलेक्शन कमीशन को भी फटाफट जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर देना चाहिये.
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