बीती 12 जनवरी को लखनऊ के एक फाइव स्टार होटल में मायावती और अखिलेश लोकसभा चुनाव में गठबंधन के साथ सीटों के बंटवारे का एलान कर चुके हैं. मायावती ने साझा सपा-बसपा की साझा प्रेसवार्ता में बीजेपी के साथ कांग्रेस को भी जमकर छीला था. इस प्रेस कांफ्रेस में मायावती शायद अपने दिल का पूरा गुबार निकाल नहीं पायी थी. इसलिए 15 जनवरी को अपने जन्म दिन के मौके पर मायावती ने मीडिया के सामने फिर बीजेपी और कांग्रेस को जमकर धोया. बीजेपी से सपा-बसपा गठबंधन की लड़ाई समझ आती है, लेकिन मायावती का बार-बार कांग्रेस पर हमलावर होना कईयों को हैरान कर गया. इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि मायावती द्वारा कांग्रेस की छीछालेदार करने के बावजूद राहुल गांधी सपा-बसपा गठबंधन के प्रति सद्भावना जताने को कोई अवसर हाथ से जाने नहीं दे रहे हैं. ऐसे में सवाल यह है कि सपा-बसपा द्वारा गठबंधन से कांग्रेस को आउट करने के बावजूद राहुल सप-बसपा को लेकर नरम क्यों हैं ? क्यों राहुल सपा-बसपा के प्रति हमदर्दी और सद्भावना दिखा रहे हैं ? क्या ये राहुल का बड़प्पन है, या फिर कोई मजबूरी ?
मायावती ने 12 और 15 जनवरी को कांग्रेस और बीजेपी को एक ही पलड़े में तौला. कांग्रेस और बीजेपी की धुलाई से मायावती ने अपने वोटरों को साफ संदेश दिया कि, कांग्रेस और बीजेपी दोनों हमारे दुश्म न हैं. मायावती की आक्रामक बयानबाजी और धुलाई के बावजूद बीती 23 जनवरी को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने अमेठी में बयान दिया कि, ‘‘मायावती और अखिलेश से हमारी कोई दुश्मनी नहीं है. दोनों का मैं आदर करता हूं, उन्होंने अपना गठबंधन बनाया. हम तीनों का लक्ष्य भाजपा को करारी शिकस्त देना है. मेरे मन में उनके लिए कोई द्वेष नहीं है.’’ राहुल के मुंह से विरोधी दल के नेताओं के प्रति सद्भावना और आदर का भाव चौंकाने वाला था. अधिकतर लोग राहुल के इस बयान के गहरे राजनीतिक संदेश समझ नहीं पाये.
“मैं मायावती और अखिलेश का आदर करता हूं, लेकिन यूपी में कांग्रेस पूरे दमखम से लड़ेगी''- राहुल गांधी
अमेठी के बाद 11 फरवरी को प्रियंका गांधी एवं ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ लखनऊ आये राहुल ने एक बार फिर अपने भाषण में मायावती और अखिलेश के प्रति सद्भावना के बोल बोले. राहुल ने कहा, “मैं मायावती और अखिलेश का आदर करता हूं, लेकिन यूपी में कांग्रेस पूरे दमखम से लड़ेगी और अपनी विचारधारा के लिए लड़ेगी.” सूत्रों के अनुसार राहुल ने पार्टी के प्रमुख नेताओं से मायावती और अखिलेश के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी न करने की खास नसीहत दी है. राहुल की इस नसीहत के पीछे भविष्य की राजनीति के गहरे अर्थ छिपे हैं.
वास्तव में राहुल यूपी में पार्टी की जमीनी हकीकत और स्थिति से बखूबी वाकिफ हैं. वो जानते हैं कि कमजोर व बिखरे संगठन और बिना बड़े चेहरों के यूपी में चुनावी वैतरणी पार करना टेढ़ी खीर है. ऐसे में प्रियंका गांधी को मैदान में उतारने के बाद भी बडे चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी है. इसलिए राहुल ने लखनऊ में रणनीति के तहत ये बयान दिया कि, ‘‘यूपी कांग्रेस को खड़ा करने का काम प्रियंका और ज्योतिरादित्य को सौंपा गया है. लोकसभा में हम जान लगाएंगे, लेकिन विधानसभा में कांग्रेस की सरकार बनाएंगे.’’ राहुल ने भाषण में मायावती और अखिलेश के आदर की बात कही. राहुल को पता है कि लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर इन दलों (सपा, बसपा) की भूमिका अहम हो सकती है. इसलिए राहुल ने भावी सियासी तस्वीर को सामने रखकर मंच से माया और अखिलेश के प्रति सद्भावना दिखाई.
राजनीतिक गलियारों में इस बात के कयास लगाये जा रहे हैं प्रिंयका के मैदान में उतरने का ज्यादा नुकसान सपा-बसपा को गठबंधन को होगा. मायावती को हमेशा डर लगता है कि कांग्रेस से गठबंधन करने से उनके वोट बैंक में सेंध लग जाएगी. असल में आज मायावती का जो वोट बैंक हैं वो किसी जमाने में कांग्रेस का मजबूत जनाधार था.
यहां ये बात दीगर है मायावती ही कांग्रेस पर जमकर बरस रही हैं, अखिलेश कांग्रेस के खिलाफ मुंह खोलने से परहेज ही बरत रहे हैं. वैसे भी अखिलेश का कांग्रेस प्रति हमेशा नरम रवैया रहा है. कांग्रेस के लखनऊ में शक्ति प्रदर्शन, राहुल गांधी के इरादे और ताजा बयान (प्रदेश में कांग्रेस पूरे दम से लड़ेगी, यूपी बदलने के लिए लड़ेगी) का असर सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी पर ही हुआ है, इसीलिए अखिलेश ने सामने आकर ये बयान दिया कि कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल है. मतलब साफ है कि अखिलेश ने भी भावी राजनीति के साफ संकेत कांग्रेसी खेमे में भेज दिये हैं.
कांग्रेस ने 1996 में बहुजन समाज पार्टी और 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया था. लेकिन दोनों बार उसे गठबंधन का कड़वा अनुभव ही हासिल हुआ. इतिहास गवाह है जब-जब कांग्रेस अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरी, गठबंधन की बनिस्बत मुनाफे में ही रही. इसलिए राहुल ने यूपी में ‘एकला चालो रे’ का फैसला लिया है, और उनका लक्ष्ये 2022 का विधानसभा चुनाव है. राहुल जानते है कि आज के हालात में वो अकेले अपने दम पर यूपी में बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं. ऐसे में वो सपा-बसपा गठबंधन से 'आउट' होने के बाद भी मायावती और अखिलेश के प्रति नरम रूख अख्तियार किए हैं.
तमाम चुनावी सर्वेक्षणों और अध्ययनों से ये बात काफी हद तक साफ हो चुकी है कि फिलवक्त कांग्रेस अकेले अपने बलबूते सरकार बनाती नहीं दिख रही है. लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद यूपीए को मजबूत करने के लिये उसे तमाम दलों की जरूरत पड़ेगी. ऐसे में राहुल हिन्दी पट्टी के सबसे बड़े राज्य के दो बड़े नेताओं को किसी भी कीमत पर नाराज नहीं करना चाहते. वहीं मायावती को बखूबी इस बात का इल्म है वो बीजेपी के साथ जितना कांग्रेस पर जमकर बरसेगी उतने ही ज्यादा वोट उनकी झोली में गिरेंगे.
इसलिए जैसे-जैसे चुनाव की घड़ियां नजदीक आएंगी नेताओं की जुबान कड़वी से कड़वी होती जाएगी. मायावती और अखिलेश भले ही कांग्रेस पर लाख प्रहार कर लें, लेकिन राहुल उनका आदर करना नहीं छोड़ेंगे. राहुल की अपने राजनीतिक विरोधियों को लेकर की जा रही राजनीति को आप सुविधा के अनुसार बडप्पन या मजबूरी कोई भी नाम दे सकते हैं. फिलवक्त तो यूपी की राजनीति का यही असली चेहरा है, और राहुल की नजर आज की बजाय आने वाले कल पर है.
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