एक केंद्र शासित राज्य समेत पांच राज्यों के विधानसभा मतगणना के बाद, शाम को पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक ट्वीट किया. ट्वीट बंगाल चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली ममता बनर्जी के लिए था. कांग्रेस नेता ने भाजपा को हराने के लिए ममता के साथ ही बंगाल के लोगों को बधाई दी. देश की दूसरी बड़ी पार्टी का "सबसे योग्य" नेता सिर्फ इस बात पर खुश है कि भाजपा को तृणमूल कांग्रेस ने हरा दिया.
जबकि कांग्रेस ने इसी चुनाव के दौरान बंगाल में मुख्य विपक्षी दल होने का ओहदा गंवा दिया. पार्टी का एक भी विधायक नहीं जीता है. आखिर जो बात राहुल के लिए शर्म का विषय होनी चाहिए थी वो खुशी की बात क्यों? क्या इससे कांग्रेस को कोई परेशानी नहीं है?
बंगाल में तो वो मुख्य विपक्षी की हैसियत से मैदान में थे. लेफ्ट मोर्चा और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी को मिलाकर गठबंधन बनाया था. लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि कांग्रेस बिना होमवर्क के सीधे मैदान में उतर आई थी. उसे गठबंधन भर से जादू की उम्मीद थी. पार्टी ने राज्य में तीन प्रतिशत से भी कम मत हासिल किए. जबकि अन्य ने कांग्रेस से ज्यादा 3.66 प्रतिशत वोट प्राप्त किए. 2019 में लोकसभा चुनाव के आधार पर देखें तो कांग्रेस कुछ ही महीनों के अंदर गर्त में है.
खुद को पीएम नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने वाले राहुल गांधी के लिए भला इससे शर्मनाक और कुछ हो सकता था क्या? अच्छा तो ये होता कि वो बंगाल में ममता को वाकओवर देकर चुनाव से ही हट जाते. कम से कम एक बढ़िया उदाहरण तो उनके हिस्से आ ही जाता.
मौजूदा नतीजें साफ बता रहे हैं कि राहुल गांधी विपक्षी नेता के रूप में साख खो चुके हैं. विपक्ष की ओर से मोदी के सामने नेतृत्व की चुनौती पेश करने के लिए अब उनके तरकश में कोई तीर भी नहीं बचा है. असम और बंगाल में जिस गठबंधन के जरिए...
एक केंद्र शासित राज्य समेत पांच राज्यों के विधानसभा मतगणना के बाद, शाम को पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक ट्वीट किया. ट्वीट बंगाल चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली ममता बनर्जी के लिए था. कांग्रेस नेता ने भाजपा को हराने के लिए ममता के साथ ही बंगाल के लोगों को बधाई दी. देश की दूसरी बड़ी पार्टी का "सबसे योग्य" नेता सिर्फ इस बात पर खुश है कि भाजपा को तृणमूल कांग्रेस ने हरा दिया.
जबकि कांग्रेस ने इसी चुनाव के दौरान बंगाल में मुख्य विपक्षी दल होने का ओहदा गंवा दिया. पार्टी का एक भी विधायक नहीं जीता है. आखिर जो बात राहुल के लिए शर्म का विषय होनी चाहिए थी वो खुशी की बात क्यों? क्या इससे कांग्रेस को कोई परेशानी नहीं है?
बंगाल में तो वो मुख्य विपक्षी की हैसियत से मैदान में थे. लेफ्ट मोर्चा और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी को मिलाकर गठबंधन बनाया था. लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि कांग्रेस बिना होमवर्क के सीधे मैदान में उतर आई थी. उसे गठबंधन भर से जादू की उम्मीद थी. पार्टी ने राज्य में तीन प्रतिशत से भी कम मत हासिल किए. जबकि अन्य ने कांग्रेस से ज्यादा 3.66 प्रतिशत वोट प्राप्त किए. 2019 में लोकसभा चुनाव के आधार पर देखें तो कांग्रेस कुछ ही महीनों के अंदर गर्त में है.
खुद को पीएम नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने वाले राहुल गांधी के लिए भला इससे शर्मनाक और कुछ हो सकता था क्या? अच्छा तो ये होता कि वो बंगाल में ममता को वाकओवर देकर चुनाव से ही हट जाते. कम से कम एक बढ़िया उदाहरण तो उनके हिस्से आ ही जाता.
मौजूदा नतीजें साफ बता रहे हैं कि राहुल गांधी विपक्षी नेता के रूप में साख खो चुके हैं. विपक्ष की ओर से मोदी के सामने नेतृत्व की चुनौती पेश करने के लिए अब उनके तरकश में कोई तीर भी नहीं बचा है. असम और बंगाल में जिस गठबंधन के जरिए मैदान में उतरे थे समीकरणों के लिहाज से सर्वोत्तम था. पुद्दुच्चेरी में अभी कुछ ही महीने पहले उनकी सरकार थी. केरल में भी मुख्य विपक्ष थे और कई महीने से राज्य में सक्रिय नजर आ रहे थे. ले-देकर सफलता तमिलनाडु में मिली, जहां पार्टी डीएमके की बैशाखी पर खड़ी है.
विधानसभा के नतीजों का मूल्यांकन और मोदी के आगे कांग्रेस की भविष्य की राजनीति का अनुमान लगाए तो बहुत चीखने-चिल्लाने के बावजूद राहुल के हाथ में सिर्फ बड़ा शून्य दिखता है. देश का मतदाता शायद अब राहुल की बातें सुनता ही नहीं है.
उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और कर्नाटक ऐसे बड़े राज्य हैं जहां देश की सर्वाधिक लोकसभा सीटें हैं. इनके साथ ही आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, पंजाब, असम, केरल, हरियाणा जैसे राज्य आते हैं. असम के अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल जैसे राज्य हैं. अन्य केंद्र शासित राज्य भी. इनमें कांग्रेस की मौजूदगी कहां और कितनी है? सबसे बड़ी बात उनमें राहुल गांधी की भूमिका कितना प्रभावशाली है?
एक बड़े नेता के तौर पर राहुल की कोई भूमिका और असर इन इलाकों में नजर नहीं आ रहा. पिछले कुछ सालों में पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं के कंधे पर भार पड़ा है. हाल में पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में क्रमश: कैप्टन अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत, कमलनाथ और सिंधिया (अब भाजपा में) और भूपेश बघेल की वजह से कांग्रेस को सफलता मिली. यहां की सफलता के लिए राहुल को श्रेय देने की कोई वजह खोजने से भी नहीं मिलती.
चर्चा तो यह भी बनी रहती है कि यहां के नेता राहुल को भाव ही नहीं देते. स्थानीय नेताओं से तालमेल और ताकत का बेहतर इस्तेमाल के मामले में भाजपा के सामने कांग्रेस लगातार मात खा रही है, लेकिन कुछ सीख नहीं पा रही. भाजपा को देखें तो मोदी-शाह की जोड़ी, उनके तरीके राज्यों में अपने क्षेत्रीय नेताओं के साथ एक ताकत के रूप में नजर आती है और कुछ साल पहले तक असम-बंगाल जैसे राज्यों कोई वजूद नहीं होने के बावजूद सत्ता हथिया लेता हैं या उसकी रेस में सबसे आगे नजर आते हैं.
पिछले कुछ दिनों में कांग्रेस ने ज्यादा आक्रामक तेवर अपनाए, खासकर राहुल ने. लेकिन चूक कहां हो रही है और पार्टी में किस स्तर पर काम करना है- इसके बारे में सोचा ही नहीं जा रहा है. जबकि राहुल के नेतृत्व को बार-बार बचाने के लिए क्षेत्रीय बैसाखियों के सहारे तस्वीर बदलने की कोशिश की जा रही है. भाजपा की तर्ज पर. ना तो आपका संगठन भाजपा जैसा है ना आपके पास नेताओं की वैसी भीड़ ही है फिर नक़ल कैसे कर पाएंगे. असम और बंगाल का हश्र सामने है.
बिहार, महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में सहयोगियों को छोड़ दें तो कांग्रेस के पास कुछ भी नहीं बचेगा. आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में मजबूत बैसाखी भी नहीं मिल रही. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में प्रियंका गांधी की तमाम सक्रियता के बावजूद सपा-बसपा के आगे कांग्रेस के अकेले प्रदर्शन की उम्मीद ना के बराबर है. सपा या बसपा की शर्तों पर उनका सहारा लिए बिना कांग्रेस को अपना वजूद बचाए रखने में भी संघर्ष करना होगा.
कुल मिलाकर राहुल में अब कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं. पार्टी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए बड़े और कड़े फैसले समय पर लेना ही होगा. इसमें समय गंवाया तो कांग्रेस के हाथ खाली ही रहेंगे.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.