राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को मोदी सरकार पर हमले का एक और मौका मिल गया है - और ये मौका भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की तरफ से तोहफे में ही मिला है. मौके के हिसाब से देखे तो दिवाली गिफ्ट भी समझ सकते हैं.
गांधी परिवार से जुड़े राजीव गांधी फाउंडेशन का FCRA लाइसेंस केंद्र सरकार ने रद्द कर दिया है. फाउंडेशन पर विदेशी फंडिंग कानून के उल्लंघन का आरोप लगा है. खबरों के मुताबिक, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जुलाई, 2020 में एक जांच कमेटी बनायी थी और ये एक्शन उसी के रिपोर्ट के आधार पर लिया गया है. राजीव गांधी फाउंडेशन की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं, जबकि राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ट्रस्टी हैं.
कांग्रेस नेतृत्व ये तो मान कर चल रहा होगा कि ऐसे झटके तो झेलने ही पड़ेंगे, लेकिन राहुल गांधी के लिए चिंता वाली दूसरी बात है जो राजनीतिक है. बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे पर राहुल गांधी लगातार आवाज उठाते रहे हैं. राहुल गांधी के अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आप नेता अरविंद केजरीवाल और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव भी जब तब मोदी सरकार को बेरोजगारी के मुद्दे पर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते रहे हैं.
ऐसे में जबकि 2024 में लामबंद होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को चैलेंज करने की तैयारी चल रही है. धीरे धीरे अब वो स्थिति भी आ चुकी है, जिसमें लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व भी कर रही है, प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष से बेरोजगारी का मुद्दा भी लगता है लपक कर बीजेपी की झोली में डाल देंगे.
प्रधानमंत्री मोदी ने 22 अक्टूबर को 75 हजार युवाओं को सरकारी नौकरी के लिए नियुक्ति पत्र सौंपा है. दिवाली से पहले धनतेरस के दिन रोजगार मेला नाम से शुरू इस कार्यक्रम के पहले चरण में ये...
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को मोदी सरकार पर हमले का एक और मौका मिल गया है - और ये मौका भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की तरफ से तोहफे में ही मिला है. मौके के हिसाब से देखे तो दिवाली गिफ्ट भी समझ सकते हैं.
गांधी परिवार से जुड़े राजीव गांधी फाउंडेशन का FCRA लाइसेंस केंद्र सरकार ने रद्द कर दिया है. फाउंडेशन पर विदेशी फंडिंग कानून के उल्लंघन का आरोप लगा है. खबरों के मुताबिक, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जुलाई, 2020 में एक जांच कमेटी बनायी थी और ये एक्शन उसी के रिपोर्ट के आधार पर लिया गया है. राजीव गांधी फाउंडेशन की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं, जबकि राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ट्रस्टी हैं.
कांग्रेस नेतृत्व ये तो मान कर चल रहा होगा कि ऐसे झटके तो झेलने ही पड़ेंगे, लेकिन राहुल गांधी के लिए चिंता वाली दूसरी बात है जो राजनीतिक है. बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे पर राहुल गांधी लगातार आवाज उठाते रहे हैं. राहुल गांधी के अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आप नेता अरविंद केजरीवाल और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव भी जब तब मोदी सरकार को बेरोजगारी के मुद्दे पर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करते रहे हैं.
ऐसे में जबकि 2024 में लामबंद होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को चैलेंज करने की तैयारी चल रही है. धीरे धीरे अब वो स्थिति भी आ चुकी है, जिसमें लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व भी कर रही है, प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष से बेरोजगारी का मुद्दा भी लगता है लपक कर बीजेपी की झोली में डाल देंगे.
प्रधानमंत्री मोदी ने 22 अक्टूबर को 75 हजार युवाओं को सरकारी नौकरी के लिए नियुक्ति पत्र सौंपा है. दिवाली से पहले धनतेरस के दिन रोजगार मेला नाम से शुरू इस कार्यक्रम के पहले चरण में ये नियुक्ति पत्र बांटे गये हैं - और 2023 के आखिर तक 10 लाख युवाओं को ऐसे ही नियुक्ति पत्र दिये जाने की बात कही जा रही है.
अक्सर देखा गया है कि राहुल गांधी, 2014 में रोजगार देने को लेकर किये गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने वादे की याद दिलाते रहे हैं, लेकिन अब मोदी सरकार ऐसे हमलों को काउंटर करने का उपाय खोज चुकी है - और उस पर अमल का काम भी होने लगा है.
राहुल गांधी फिलहाल भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त हैं और हिमाचल प्रदेश की ही तरह समझा जाता है कि गुजरात की चुनावी कमान भी प्रियंका गांधी वाड्रा को सौंपी जानी है. जाहिर है दोनों ही राज्यों में प्रियंका गांधी को बीजेपी से पहले अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से ही जूझना है - क्योंकि अरविंद केजरीवाल की पहली नजर तो कांग्रेस के वोटर पर ही है.
अब अगर आपको लगता है कि अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) सिर्फ कांग्रेस को डैमेज करेंगे और बीजेपी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ऐसा बिलकुल नहीं सोचते. ये बात गुजरात पर तो लागू होती ही है, हिमाचल प्रदेश को लेकर भी बिलकुल ऐसा ही समझा जा रहा है.
बेशक अमित शाह (Amit Shah) को भी ये मालूम है कि अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस आपस में ही लड़ेंगे और बीजेपी बड़े आराम से सत्ता में वापसी सकती है, लेकिन आगे भी तो चुनाव लड़ने हैं. ये कोई आखिरी चुनाव तो है नहीं - लिहाजा अमित शाह अभी से अरविंद केजरीवाल को लेकर सतर्क हो गये हैं. कांग्रेस मुक्त अभियान को तो लगता है, अब वो पूरा हो चुका मान ही लिये हैं.
तो स्थिति ये है कि राहुल गांधी तो निश्चिंत होकर बैठ सकते हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल के सामने मुश्किलें आने वाली हैं. इसका मतलब ये नहीं मान लेना है कि प्रवर्तन निदेशालय राहुल गांधी के साथ कुछ नहीं करेगा और सीबीआई मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार कर लेगी - असल बात तो ये है कि अमित शाह ने कांग्रेस के अवसान से जो सबक सीखा है, उसी में बीजेपी के लिए अलर्ट मैसेज पढ़ लिया है.
केजरीवाल का चुनाव कैंपेन
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पंजाब में चुनाव जीत कर सरकार बनाने के बाद से ही खासे एक्टिव हैं - और गुजरात के साथ साथ हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक का भी दौरा कर चुके हैं. हालांकि, अरविंद केजरीवाल का ज्यादा जोर गुजरात पर नजर आता है.
ये गुजरात विधानसभा चुनाव ही है जो अरविंद केजरीवाल और बीजेपी के बीच राजनीतिक संघर्ष की वजह बना है. वैसे तो अरविंद केजरीवाल 'रेवड़ी कल्चर' के मुद्दे से लेकर कई मसलों पर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दो-दो हाथ करते आ रहे हैं, लेकिन मनीष सिसोदिया के खिलाफ जांच पड़ताल और फिर सीबीआई दफ्तर बुलाकर पूछताछ के बाद मामला काफी गंभीर शक्ल ले चुका है.
मनीष सिसोदिया के खिलाफ सीबीआई जांच तो दिल्ली सरकार की शराब नीति की वजह से हुई गड़बड़ियों के आरोपों की कर रही है, लेकिन काउंटर स्ट्रैटेजी के तहत आप नेता अरविंद केजरीवाल ने शिक्षा और स्कूलों के हाल को मुद्दा बनाया हुआ है. जब मनीष सिसोदिया के घर सीबीआई की रेड पड़ी तो भी अरविंद केजरीवाल न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार में दिल्ली की स्कूलों पर छपी एक रिपोर्ट दिखा कर बीजेपी को घेरने की कोशिश कर रहे थे. कुछ देर बाद ही बीजेपी नेता रिपोर्ट को प्रायोजित बताने लगे, लेकिन अखबार ने इससे इनकार किया था.
तब से लेकर अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया लगातार गुजरात की शिक्षा व्यवस्था और स्कूलों की हालत को लेकर बीजेपी नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. हाल ही में गुजरात दौरे पर गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधीनगर में मिशन स्कूल ऑफ एक्सीलेंस की शुरुआत की - जब तस्वीरें सामने आयीं तो वो बच्चों के साथ एक क्लासरूम में बैठे भी देखे गये.
प्रधानमंत्री मोदी को क्लासरूम बैठे देखने के बाद मनीष सिसोदिया का फौरी रिएक्शन भी आ गया. मनीष सिसोदिया ने कहा, ‘मोदी जी आज पहली बार गुजरात के बच्चों के साथ स्कूल जा कर बैठे... 27 साल पहले ये शुरू कर दिया होता तो आज गुजरात के हर एक बच्चे को... शहर से लेकर गांव तक के हर बच्चे को शानदार शिक्षा मिल रही होती... दिल्ली में 5 साल में हो सकता है तो गुजरात में तो भाजपा 27 साल से सरकार में है...’
फिर क्या था, सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरों की बाढ़ आ गयी जिनमें मोदी को स्कूली बच्चों के साथ बैठे देखा गया - और ये सब शेयर कर बीजेपी के लोग कह रहे थे कि ये सब आम आदमी पार्टी के पैदा होने से पहले की बातें हैं. बीजेपी नेता तजिंदर सिंह बग्गा तो पूछने लगे - सीबीआई के करंट से मनीष सिसोदिया की याद्दाश्त चली गयी है क्या?
गुजरात चुनाव कैंपेन में जी जान से जुटे अरविंद केजरीवाल राज्य के सरकारी स्कूलों की स्थिति पर लगातार सवाल खड़े कर रहे हैं - और बार बार स्कूलों के अपन दिल्ली मॉडल की बात दोहरा रहे हैं.
मीडिया से बातचीत में भी अरविंद केजरीवाल दिल्ली के स्कूलों की मिसाल देते हैं, 'हमें तो सिर्फ स्कूल ठीक करना आता है... हमने दिल्ली में पिछले पांच साल में सरकारी स्कूलों की दशा बदल दी है' - और फिर कहते हैं, 'मैं तो प्रधानमंत्री जी से अपील करता हूं... विनती करता हूं... वो हमारा इस्तेमाल करें... हमें स्कूल ठीक करना आता है... हम साथ मिलकर देश के सभी सरकारी स्कूलों की तस्वीर बदल देंगे.'
अरविंद केजरीवाल का ये अंदाज ही बीजेपी को सबसे खतरनाक लग रहा है - और यही वजह से है कि अमित शाह अभी से सतर्क हो गये हैं, लेकिन बीजेपी नेताओं के मन में ऐसी कोई फिक्र समझ में नहीं आती.
बीजेपी पहले से ही अलर्ट मोड में
अमित शाह देख चुके हैं कि कैसे अरविंद केजरीवाल को दिल्ली और फिर पंजाब में घेरने की तमाम कोशिशों के बाद भी वो गच्चा दे गये. दिल्ली में तो खुद अमित शाह लगातार जमे हुए थे, पंजाब में तो बीजेपी की मदद में तो अरविंद केजरीवाल के पुराने साथी कुमार विश्वास भी आ गये थे.
दिल्ली विधानसभा चुनावों की ही तरह पंजाब में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद मोर्चा संभाला हुआ था - और दिल्ली से कहीं आगे बढ़ कर अरविंद केजरीवाल के आतंकवादी मंसूबों तक की जोर शोर से चर्चा की गयी, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. नतीजे आये तो पंजाब में भी आम आदमी पार्टी ने करीब करीब दिल्ली जैसा ही प्रदर्शन किया था.
अमित शाह को अरविंद केजरीवाल का वही रूप डराने लगा है. सीनियर पत्रकार कूमी कपूर ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में अमित शाह के हवाले से यही बात समझाने की कोशिश की है - और मालूम पड़ता है कि अमित शाह को गुजरात चुनाव से ज्यादा 2024 के आम चुनाव और भविष्य की चिंता ज्यादा है.
बताते हैं कि अहमदाबाद में गुजरात विधानसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर एक मीटिंग बुलायी गयी थी - और विचार विमर्श का टॉपिक आम आदमी पार्टी की तरफ से बीजेपी के सामने वाली चुनौतियां रही.
मीटिंग के दौरान ही बीजेपी के एक नेता ने समझाने की कोशिश की कि आम आदमी पार्टी से बीजेपी को कोई खतरा ही नहीं है. बीजेपी नेता की नजर में अरविंद केजरीवाल की भूमिका वोटकटवा से ज्यादा नहीं होने वाली - क्योंकि आम आदमी पार्टी विपक्षी वोटों का ही बंटवारा करेगी और वो बीजेपी के पक्ष में जाएगा. विपक्षी वोट से निश्चित तौर पर आशय कांग्रेस से ही रहा होगा.
निश्चित तौर पर अमित शाह के लिए ये चिंताजनक बात रही होगी. बीजेपी नेता की बात तो अमित शाह को बीजेपी के 2004 के शाइनिंग इंडिया कैंपेन जैसी ही लगी होगी. जब बीजेपी ने मान लिया था कि हर तरफ जीत रहे हैं, तभी ऐसी हार मिली कि सत्ता से भी हाथ धोना पड़ा था.
अमित शाह ने गुजरात के अपने नेता को समझाया कि वो उसकी तरह सिर्फ तीन महीने आगे की बात नहीं सोच रहे हैं, बल्कि उनके दिमाग में तीन साल आगे की तस्वीर बन रही है. अमित शाह ने साथी नेताओं को आगाह किया कि आम आदमी पार्टी को किसी भी सूरत में खुला छोड़ना ठीक नहीं होगा. अगर आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 24 फीसदी से आगे बढ़ा तो बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी.
अमित शाह ने जब से कमान संभाली है, बीजेपी को चुनावी मशीन बना दिया है. और ये सब तभी संभव हो पाता है जब वर्तमान से कहीं ज्यादा भविष्य पर नजर हो. बीजेपी नेता पर केंद्रित कर अमित शाह ने महाराष्ट्र में शिवसेना का उदाहरण दिया और सबको अपना नजरिया समझाने की कोशिश की. अमित शाह का कहना रहा कि पहले शिवसेना की पहुंच सिर्फ मुंबई और आस पास के जिलों तक हुआ करती थी. 1986 में शरद पवार ने कांग्रेस-एस का कांग्रेस-आई में विलय कर दिया. इंदिरा गांधी के जमाने में यही कांग्रेस, कांग्रेस-आई हुआ करती थी.
शरद पवार के कांग्रेस के साथ होते ही, शिवसेना को विस्तार का मौका मिला और फिर बाल ठाकरे ने बीजेपी को हिंदुत्व की राजनीतिक अहमियत समझा कर साथ ले लिया. देखते ही देखते शिवसेना का प्रभाव क्षेत्र चारों तरफ फैल गया - और एक दिन ऐसा भी आया कि शिवसेना ने कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी को साथ लेकर सरकार बना ली और बीजेपी को किनारे कर दिया. ये तो बीजेपी की अपनी काबिलियत है जो वो अपनी चालों से शिवसेना को तहस नहस किया और फिर से सत्ता पर काबिज हो सकी.
बीजेपी की मीटिंग में अमित शाह ने सबको साफ कर दिया कि वो आम आदमी पार्टी की बढ़त के बारे में सिर्फ अगले आम चुनाव 2024 तक नहीं सोच रहे हैं - बल्कि, उनकी नजर उसके पांच साल बाद यानी 2029 पर है.
ये सबक तो कांग्रेस से ही मिला होगा
बीजेपी की अपनी सक्सेस स्टोरी तो है ही, खास कर 2014 के बाद जो कामयाबी मिली है - लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि बीजेपी सबसे ज्यादा सबक अपने दुश्मन यानी कांग्रेस से ही लेती रही है. वैसे भी बीजेपी की कामयाबी का राज तो कांग्रेस की बर्बादी में ही छिपा हुआ है.
बीजेपी के रणनीतिकारों को अच्छी तरह मालूम है कि जैसे कांग्रेस ने अपनी गलतियों की वजह से बीजेपी को मंजिल तक पहुंचा दिया, अगर बीजेपी से भी वैसी ही चूक हुई तो किसी और को भी बिलकुल वैसे ही मौका मिल जाएगा - और हाल फिलहाल ऐसे मौके की ताक में आम आदमी पार्टी ही बैठी है.
ये तो माना हुआ है कि अगर कांग्रेस ने बीजेपी या नरेंद्र मोदी को हल्के में नहीं लिया होता तो शायद उसे ये दिन नहीं देखने पड़ते. पहले तो कांग्रेस बीजेपी को मजबूत विपक्ष बन जाने दिया - और फिर ध्यान नहीं दिया कि कहां क्या हो रहा है. जब तक एहसास हुआ पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी.
बीजेपी ने तो कांग्रेस को विपक्ष का नेता रखने लायक तक नहीं रहने दिया था - और आज भी आलम ये है कि अगले आम चुनाव में कांग्रेस के सामने विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी पार्टी बनी रहने की चुनौती खड़ी हो चुकी है.
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