राहुल गांधी (Rahul Gandhi) उत्तर भारतीयों की राजनीतिक और मुद्दों की समझ पर टिप्पणी कर बुरी तरह घिर चुके हैं. सिर्फ राजनीतिक विरोधी बीजेपी की कौन कहे, कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल भी अपने दायरे में रह कर नसीहत दे चुके हैं - मतदाताओं का सम्मान करना चाहिये. मतलब, कपिल सिब्बल ने महसूस किया है कि राहुल गांधी से भारी गलती हुई है.
राहुल गांधी की टिप्पणी का पॉलिटिकली करेक्ट होना न होना अलग बात है, लेकिन उनकी बातों के सियासी फायदे और नुकसान तो साफ साफ समझ आ रहे हैं. जाहिर है, राहुल गांधी ने उत्तर भारत के लोगों को नाराज करने की कीमत पर केरल के लोगों को खुश करने की कोशिश की है. बात उत्तर और दक्षिण में फर्क समझाने की चल रही हो तो फिर केरल ही क्यों उसका असर तो पुदुचेरी और तमिलनाडु में भी हो सकता है.
कोई शक नहीं राहुल गांधी केरल विधानसभा चुनाव में जीत हार को कितनी गंभीरता से ले रहे होंगे. अमेठी के बहाने उत्तर भारतीयों पर टिप्पणी के बाद शक शुबहे की कोई वजह नहीं बचती कि कांग्रेस नेतृत्व के लिए केरल में हार जीत कितना मायने रखती है. उत्तर दक्षिण को लेकर तो वो अपने मन की बात सार्वजनिक तौर पर कह भी चुके हैं - लेकिन केरल और बंगाल में कांग्रेस ने ऐसा पेंच फंसा रखा है कि न निगलते बन रहा है न उगलते ही बन रहा है.
राहुल गांधी की केरल और बंगाल चुनावों को लेकर दुविधा को समझने की कोशिश करें तो लगता है ये मामला उत्तर और दक्षिण को लेकर उनकी बातों से कहीं ज्यादा उलझा हुआ है और लेफ्ट के साथ चुनावी गठबंधन पर स्टैंड तो उसका सिर्फ एक पक्ष ही है - बड़ी मुश्किल तो यही है कि ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के खिलाफ भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) जैसा विरोध जतायें भी तो कैसे?
ये तो होना ही था!
ये सवाल तो पहले से ही उठ रहे थे कि कांग्रेस नेतृत्व कैसे केरल में लेफ्ट का विरोध और पश्चिम बंगाल में सपोर्ट कर पाएगा? अगर राहुल गांधी खुद ऐसा करते हैं तो राजनीतिक विरोधी ज्यादा हमलावर होंगे. बीजेपी तो अभी से ही कांग्रेस के इस डबल...
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) उत्तर भारतीयों की राजनीतिक और मुद्दों की समझ पर टिप्पणी कर बुरी तरह घिर चुके हैं. सिर्फ राजनीतिक विरोधी बीजेपी की कौन कहे, कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल भी अपने दायरे में रह कर नसीहत दे चुके हैं - मतदाताओं का सम्मान करना चाहिये. मतलब, कपिल सिब्बल ने महसूस किया है कि राहुल गांधी से भारी गलती हुई है.
राहुल गांधी की टिप्पणी का पॉलिटिकली करेक्ट होना न होना अलग बात है, लेकिन उनकी बातों के सियासी फायदे और नुकसान तो साफ साफ समझ आ रहे हैं. जाहिर है, राहुल गांधी ने उत्तर भारत के लोगों को नाराज करने की कीमत पर केरल के लोगों को खुश करने की कोशिश की है. बात उत्तर और दक्षिण में फर्क समझाने की चल रही हो तो फिर केरल ही क्यों उसका असर तो पुदुचेरी और तमिलनाडु में भी हो सकता है.
कोई शक नहीं राहुल गांधी केरल विधानसभा चुनाव में जीत हार को कितनी गंभीरता से ले रहे होंगे. अमेठी के बहाने उत्तर भारतीयों पर टिप्पणी के बाद शक शुबहे की कोई वजह नहीं बचती कि कांग्रेस नेतृत्व के लिए केरल में हार जीत कितना मायने रखती है. उत्तर दक्षिण को लेकर तो वो अपने मन की बात सार्वजनिक तौर पर कह भी चुके हैं - लेकिन केरल और बंगाल में कांग्रेस ने ऐसा पेंच फंसा रखा है कि न निगलते बन रहा है न उगलते ही बन रहा है.
राहुल गांधी की केरल और बंगाल चुनावों को लेकर दुविधा को समझने की कोशिश करें तो लगता है ये मामला उत्तर और दक्षिण को लेकर उनकी बातों से कहीं ज्यादा उलझा हुआ है और लेफ्ट के साथ चुनावी गठबंधन पर स्टैंड तो उसका सिर्फ एक पक्ष ही है - बड़ी मुश्किल तो यही है कि ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के खिलाफ भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) जैसा विरोध जतायें भी तो कैसे?
ये तो होना ही था!
ये सवाल तो पहले से ही उठ रहे थे कि कांग्रेस नेतृत्व कैसे केरल में लेफ्ट का विरोध और पश्चिम बंगाल में सपोर्ट कर पाएगा? अगर राहुल गांधी खुद ऐसा करते हैं तो राजनीतिक विरोधी ज्यादा हमलावर होंगे. बीजेपी तो अभी से ही कांग्रेस के इस डबल स्टैंडर्ड को पाखंड बताने लगी है.
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट की संयुक्त रैली से पहले ये बहस इसलिए भी शुरू हो चुकी है क्योंकि राहुल गांधी की जगह अब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बखेल के पश्चिम बंगाल जाने की खबर आ रही है. ये ज्वाइंट रैली कोलकाता में 28 फरवरी को होने जा रही है, जबकि राहुल गांधी 27 फरवरी से 1 मार्च तक तमिलनाडु के दौरे पर फिर से जाने वाले हैं.
राहुल गांधी की नुमाइंदगी भूपेश बघेल करेंगे, ये भी थोड़ा अजीब ही लग रहा है क्योंकि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ है, सिवा विपक्ष की रैलियों के. विपकी तरफ से बुलायी गयी रैलियों में अब तक कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से केंद्र के ही किसी न किसी नेता को भेजा जाता रहा है, न कि किसी राज्य के क्षेत्रीय नेता के. 2019 के आम चुनाव से पहले की कोलकाता रैली और पटना रैली में भी ऐसा ही देखने को मिला था.
कोलकाता की रैली को लेकर ये भी माना जा रहा है कि कांग्रेस और लेफ्ट के साथ मिल कर चुनाव लड़ने की बात तो हुई है, लेकिन अभी तक सीटों के बंटवारे पर कोई फैसला नहीं हो सका है.
कांग्रेस और लेफ्ट के इस राजनीतिक व्यवहार पर बीजेपी की तरफ से हमले तेज होने लगे हैं. केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी कहते हैं, 'आप केरल में पोलित ब्यूरो पर विश्वास नहीं करना चाहते हैं लेकिन पश्चिम बंगाल में करते हैं - मैं राहुल गांधी से पूछता हूं कि आप लोकतंत्र में विश्वास करते हैं या पाखंड में?'
केरल के लोगों को खुश करने या कहें की चापलूसी में राहुल गांधी ने अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रखी है. केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के तंज भरे ट्वीट के जरिये याद दिलाने और गजेंद्र सिंह शेखावत के पहले से ही आगाह किये जाने के बावजूद राहुल गांधी मत्स्य मंत्रालय को लेकर अपनी बात दोहरा चुके हैं. वो मछुआरों के साथ भी किसानों जैसे ही पेश आने के बार बार वादे कर रहे हैं - और बातों को कोई महज बातें ही न समझ ले, इसलिए नाव से पानी में सीधे छलांग लगाकर मछुआरों के साथ तैरने भी लगते हैं.
अभी जनवरी, 2021 में ही राहुल गांधी दक्षिण के फूड चैनल की टीम के साथ वीडियो में देखे गये थे. नीले टी-शर्ट और काले रंग के पैंट पहने राहुल गांधी 'विलेज कुकिंग टीम के साथ नजर आये. राहुल गांधी ने रेसिपी के बारे में जानकारी ली और खुद भी हाथ बंटाया. यूट्यूब चैनल की टीम के साथ राहुल गांधी जमीन पर बैठकर मशरूम बिरयानी का भरपूर लुत्फ उठाते भी देखे गये थे.
राहुल गांधी का ये सियासी पैंतरा भी गुजरात चुनाव के दौरान मंदिरों, कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान मठों और फिर कैलाश मानसरोवर यात्रा के बाद खुद को जनेऊधारी हिंदू शिवभक्त के तौर पर प्रोजेक्ट करने का रहा. केरल में मछुआरों के साथ राहुल गांधी खुद को उनके जैसा होने की नुमाइश नहीं तो और क्या कर रहे हैं.
बंगाल के बाद क्या होगा
राहुल गांधी के तमिलनाडु और केरल के तो लगातार दौरे हो रहे हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल का कार्यक्रम एक बार भी नहीं बन सका है - और लेफ्ट के साथ संयुक्त रैली से परहेज का भी कारण महज एक नहीं बल्कि डबल वजह नजर आ रही है. राहुल गांधी के तमिलनाडु, पुदुचेरी और केरल में दिलचस्पी लेने की बड़ी वजह यही समझ में आयी है.
सवाल उठ रहा है कि आखिर कोलकाता की प्रस्तावित रैली में राहुल गांधी को सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के साथ मंच शेयर करने से परहेज क्यों है? वो भी तब जबकि पश्चिम बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी बाकायदा ये बात कई बार कह भी चुके हैं, हां, सीटों के बंटवारे को लेकर वो कुछ नहीं कहते. अधीर रंजन हमेशा से ही ममता बनर्जी के कट्टर विरोधी रहे हैं और लेफ्ट के साथ चुनावी गठबंधन से उनको दिक्कत नहीं होती. मान कर चलना चाहिये कि ये पॉलिटिकल लाइन तय होने के बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने अधीर रंजन को लोक सभा में कांग्रेस का नेता रहते हुए भी पश्चिम बंगाल गहन सोच विचार के बाद ही भेजा होगा. अब तो लेफ्ट के अलावा कांग्रेस के फुरफुरा शरीफ वाले पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ ही चुनावी तालमेल की बात फाइनल समझी जा रही है. हालांकि, अब्बास सिद्दीकी ने कांग्रेस के साथ भी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जैसी ही डिमांड रख कर पेंच फंसा दिया है.
भूपेश बघेल का पश्चिम बंगाल में राहुल गांधी का प्रतिनिधित्व करना अटपटा इसलिए भी लग रहा है कि छत्तीसगढ़ के अलावा दोनों को ऐसे बहुत कम देखा गया है. अगर यही काम अशोक गहलोत करते जो गुजरात चुनाव में भी साथ साथ लगे रहे या दिल्ली से पी. चिदंबरम, अजय माकन या केसी वेणुगोपाल या फिर राजीव गांधी की टीम का कोई नेता होता तो भी ठीक लगता. भूपेश बघेल को भेजा जाना तो ऐसा लग रहा है जैसे लिखे हुए भाषण के साथ किसी को भी भेज दिया जाता हो.
अब तक तो यही देखने को मिला है कि सोनिया गांधी के किसी रैली में नहीं जा पाने की स्थिति में राहुल गांधी जाते हैं - और राहुल गांधी की गैर मौजूदगी में कांग्रेस महासचिवप्रियंका गांधी वाड्रा मोर्चा संभालती रही हैं. हरियाणा चुनावों के दौरान जब सोनिया गांधी रैली में नहीं जा सकीं तो राहुल गांधी गये थे - और वैसे ही झारखंड चुनाव के दौरान में 'रेप इन इंडिया' विवाद के बाद जब राहुल गांधी विदेश दौरे पर निकल गये तो उनकी बची हुई रैली को प्रियंका गांधी वाड्रा ने संभाला था.
पश्चिम बंगाल को लेकर तो ऐसा लग रहा है जैसे प्रियंका गांधी वाड्रा को भी लेफ्ट के साथ खड़े होने से परहेज हो. दूसरी वजह ममता बनर्जी के सीधे विरोध से बचने की कोशिश भी हो सकती है. जब प्रियंका गांधी वाड्रा यूपी में नरसंहार की घटना के बाद सोनभद्र गयी थीं तो डेरेक ओ ब्रायन के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस का एक प्रतिनिधिमंडल भी जा रहा था, लेकिन पुलिस ने उसे एयरपोर्ट पर ही रोक दिया. हाथरस गैंग रेप के बाद भी तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने ऐसा ही किया था. हालांकि, हाथरस तो लेफ्ट नेता भी पहुंचे हुए थे.
राहुल गांधी के साथ साथ प्रियंका गांधी वाड्रा का भी ऐसा परहेज पॉलिटिकल लाइन को लेकर भी हो सकता है - क्योंकि पश्चिम बंगाल की रैली में कांग्रेस नेताओं को मोदी सरकार के साथ साथ ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ ही मोर्चा खोलना होगा. हाल फिलहाल देखने को मिला है कि राहुल गांधी और ममता बनर्जी दोनों ही हम दो हमारे दो का नारा बुलंद कर रही हैं.
सुनने में ये भी आ रहा है कि पश्चिम बंगाल के लिए प्रियंका गांधी के कुछ कार्यक्रम आगे बनाये जा सकते हैं, लेकिन राहुल गांधी को लेकर तो कोई कानाफूसी भी नहीं सुनने को मिली है.
कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल ये है कि वो केरल को वायनाड बनाने की कोशिश चल रही है. डर इस बात का है कि कहीं अमेठी का हाल न हो जाये. अमेठी का हाल हुआ तो राहुल गांधी के लिए भारी मुश्किल होगी. कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव टालने की भी एक बड़ी वजह यही रही. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी संभालने को लेकर काफी हद तक राजी होने की चर्चा रही, लेकिन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस हार जाती तो 2029 जैसे ही हालात हो जाते.
राहुल गांधी के पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार करने से कितना फर्क पड़ेगा, बिहार चुनाव के नतीजों से अंदाजा लगाया जा सकता है. फिर भी अगर पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पर बीजेपी भारी पड़ती और ममता बनर्जी सत्ता हासिल करने से चूक जाती हैं तो 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ ममता बनर्जी का कांग्रेस के साथ आना खटाई में पड़ सकता है. करीब करीब वैसे ही जैसे आम चुनाव में कांग्रेस की भूमिका से यूपी में अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही खार खाये हुए हैं. ममता बनर्जी के बढ़ते कद को देखते हुए कांग्रेस नेतृत्व ऐसी चीजों से बचना तो चाहेगा ही.
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