राहुल गांधी की वजह से ही गुजरात में बीजेपी को नाको चने चबाने पड़े. राहुल गांधी की वजह से ही बीजेपी का कर्नाटक में सरकार बनाने का सपना टूट गया - और अब राहुल गांधी एक बार फिर तीन राज्यों - राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में चुनौती साबित हो सकते हैं. राहुल गांधी के विदेश दौरे की रणनीति और ज्यादातर प्रबंधन का काम सैम पित्रोदा संभालते हैं. सैम पित्रोदा राजीव गांधी के सलाहकार और बेहद करीबी रहे हैं. दोनों की पहली मुलाकात तब हुई थी जब सैम पित्रोदा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलना चाहते थे.
हाल फिलहाल देखने को मिला है कि हर चुनाव से पहले राहुल गांधी विदेश दौरे पर जरूर जाते हैं. गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी के विदेश दौरे इसी की कड़ी हैं.
गुजरात चुनाव से पहले के राहुल गांधी के विदेश दौरे को बेहद अहम माना गया. समझा गया कि लोग उनकी बातें सुनना चाहते हैं - और जो धारणा उनके बारे में बनी हुई है वो पूरी तरह गलत है. या कहें कि विरोधियों द्वारा गढ़ी हुई काल्पनिक छवि है.
राहुल गांधी का जर्मनी और लंदन दौरा ऐसे वक्त हो रहा है जब केरल तबाही मची हुई है. कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम राहुल के दौरे को इस तरीके से प्रोजेक्ट कर रही है जैसे कांग्रेस नेता सैर सपाटे पर निकले हों. राहुल गांधी वहां जो बातें कर रहे हैं उनमें भी कोई नयापन नजर नहीं आ रहा.
2014 में बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हरदम राहुल गांधी के निशाने पर रहता है - संघ कितना खतरनाक है ये बताने के लिए राहुल गांधी ने अरब मुल्कों के मुस्लिम ब्रदरहुड से उसकी तुलना की है. मगर, हैरानी की बात '84 के सिख दंगों पर उनका बयान है.
मुस्लिम ब्रदरहुड का नाम लेने से क्या हासिल?
लगता है राहुल गांधी भारत में विधानसभा चुनावों से पहले विदेश यात्रा और चुनावों के दौरान मंदिर और मठों के दौरे को शकुन के रूप में लेने लगे हैं. विदेश दौरे के जरिये वो एक तरीके से चुनाव प्रचार की नींव रखते हैं...
राहुल गांधी की वजह से ही गुजरात में बीजेपी को नाको चने चबाने पड़े. राहुल गांधी की वजह से ही बीजेपी का कर्नाटक में सरकार बनाने का सपना टूट गया - और अब राहुल गांधी एक बार फिर तीन राज्यों - राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में चुनौती साबित हो सकते हैं. राहुल गांधी के विदेश दौरे की रणनीति और ज्यादातर प्रबंधन का काम सैम पित्रोदा संभालते हैं. सैम पित्रोदा राजीव गांधी के सलाहकार और बेहद करीबी रहे हैं. दोनों की पहली मुलाकात तब हुई थी जब सैम पित्रोदा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलना चाहते थे.
हाल फिलहाल देखने को मिला है कि हर चुनाव से पहले राहुल गांधी विदेश दौरे पर जरूर जाते हैं. गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी के विदेश दौरे इसी की कड़ी हैं.
गुजरात चुनाव से पहले के राहुल गांधी के विदेश दौरे को बेहद अहम माना गया. समझा गया कि लोग उनकी बातें सुनना चाहते हैं - और जो धारणा उनके बारे में बनी हुई है वो पूरी तरह गलत है. या कहें कि विरोधियों द्वारा गढ़ी हुई काल्पनिक छवि है.
राहुल गांधी का जर्मनी और लंदन दौरा ऐसे वक्त हो रहा है जब केरल तबाही मची हुई है. कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम राहुल के दौरे को इस तरीके से प्रोजेक्ट कर रही है जैसे कांग्रेस नेता सैर सपाटे पर निकले हों. राहुल गांधी वहां जो बातें कर रहे हैं उनमें भी कोई नयापन नजर नहीं आ रहा.
2014 में बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हरदम राहुल गांधी के निशाने पर रहता है - संघ कितना खतरनाक है ये बताने के लिए राहुल गांधी ने अरब मुल्कों के मुस्लिम ब्रदरहुड से उसकी तुलना की है. मगर, हैरानी की बात '84 के सिख दंगों पर उनका बयान है.
मुस्लिम ब्रदरहुड का नाम लेने से क्या हासिल?
लगता है राहुल गांधी भारत में विधानसभा चुनावों से पहले विदेश यात्रा और चुनावों के दौरान मंदिर और मठों के दौरे को शकुन के रूप में लेने लगे हैं. विदेश दौरे के जरिये वो एक तरीके से चुनाव प्रचार की नींव रखते हैं और मंदिरों में चुनावी रैली कर अपने सॉफ्ट हिंदूत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं. आरएसएस को टारगेट कर वो हिंदुत्व और कट्टर हिंदुत्व में फर्क स्थापित करने की कोशिश में देखे जा सकते हैं. सुन्नी समुदाय के मुस्लिम ब्रदरहुड से संघ की तुलना भी कांग्रेस की इसी रणनीति का हिस्सा लगती है.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लंदन में कहा, "हम जिससे जूझ रहे हैं वो एकदम नया विचार है. ये ऐसा विचार है जो अरब जगत में मुस्लिम ब्रदरहुड के रूप में पाया जाता है, और ये विचार ये है कि एक खास विचार को हर संस्थान को संचालित करना चाहिए, एक विचार को बाकी सभी विचारों को कुचल देना चाहिए."
राहुल गांधी के इस बयान से कांग्रेस को कितना फायदा हो पाएगा कहना मुश्किल है. अगर राहुल गांधी मुस्लिम ब्रदरहुड और संघ की तुलना के बहाने भारतीय मुस्लिम समुदाय की हमदर्दी चाहते हैं तो ऐसा होने की संभावना बहुत कम है. मुस्लिम ब्रदरहुड को लेकर लेकर भारत में वैसी ही कोई सहानुभूति नहीं है जैसी आईएसआईएस को लेकर. कुछ गुमराह युवाओं के आकर्षण से इस सिलसिले में कोई लाइन नहीं खींची जा सकती. गृह मंत्री राजनाथ सिंह कई दफे साफ कर चुके हैं न तो हर मुस्लिम और न ही हर कश्मीरी नौजवान - किसी का आतंकवाद से सीधा वास्ता है.
उल्टा बयान में बैकफायर की गुंजाइश ये बन सकती है कि संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा को मानने वाले और ज्यादा संगठित हो जाएं. फिर तो वही नतीजे होंगे जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के श्मशान और कब्रिस्तान के जिक्र से होता है.
84 के सिख दंगों पर कांग्रेस को फिर से सफाई देनी होगी
9 अप्रैल 2018 को देश में जातीय हिंसा के विरोध और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए कांग्रेस ने सामूहिक उपवास का कार्यक्रम रखा था. दिल्ली में राजघाट पर कार्यक्रम था और अजय माकन पहले से ही मौजूद थे. कुछ देर बाद जगदीश टाइटलर भी पहुंचे और मंच पर डट गये. जैसे ही माकन को लगा टाइटलर की मौजूदगी को लेकर सवाल खड़े हो सकते हैं वो सतर्क हो गये. अजय माकन की सलाह पर टाइटलर उठे और निकल लिये. इसी बीच सज्जन कुमार भी मंच की ओर बढ़ रहे थे, जिन्हें वहीं से लौटा दिया गया. अगर राहुल गांधी के मुताबिक कांग्रेस का सिख दंगों से कोई वास्ता नहीं था तो राजघाट पर ये नजारा क्यों देखने को मिला?
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए सिख दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कांग्रेस की ओर से माफी मांग चुके हैं. फिर इस मसले पर नया बयान देकर राहुल गांधी आखिर क्या समझाना चाहते हैं?
एक सवाल के जवाब में राहुल ने कहा, "मुझे कोई संदेह नहीं हैं. ये एक त्रासदी थी, ये एक दर्दनाक अनुभव था. आपका कहना है कि इसमें कांग्रेस शामिल थी मैं इससे सहमत नहीं हूं. निश्चित रूप से हिंसा हुई थी, वो त्रासदी थी."
मार्च, 2014 में एक इंटरव्यू में राहुल गांधी से पूछा गया था कि 1984 के दंगों के लिए माफी मांगने में वो क्यों हिचके थे?
राहुल गांधी का तब जवाब था, "यूपीए के प्रधानमंत्री ने माफी मांगी और कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष ने खेद प्रकट किया... मेरी भी ऐसी ही भावना है..." राहुल गांधी अपने नये विचार के साथ आखिर क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या राहुल गांधी अब मनमोहन सिंह की माफी से पल्ला झाड़ने की तैयारी कर रहे हैं? अगर 84 दंगों में कांग्रेस नेताओं का कोई रोल नहीं था तो मनमोहन सिंह को माफी मांगने की जरूरत क्या थी?
84 के दंगों पर नये विचार व्यक्त कर राहुल गांधी ने नयी मुसीबत मोल ली है - और इस पर नये सिरे से बार बार सफाई देनी होगी?
सियासी कम, सैर सपाटे की झलक ज्यादा
अव्वल तो राहुल गांधी की बातों में किसी तरह का नयापन नहीं है, ऊपर से जिस तरीके से कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम ट्विटर पर दौरे को प्रोजेक्ट कर रही है, लगता है ये राजनीतिक दौरान नहीं बल्कि टीम राहुल सैर सपाटे पर निकली हो.
अपनी ताजपोशी के बाद कांग्रेस महाधिवेशन राहुल गांधी ने भारत को चीन और अमेरिका जैसा बनाने की ख्वाहिश जाहिर की थी. राहुल गांधी ने बड़ी संजीदगी से हैरानी जतायी थी कि जब चीन के विजन की बात होती है, अमेरिका की होती है, फिर भारत की क्यों नहीं होती? राहुल गांधी के ताजा दौरे में ऐसी बातों पर जोर क्यों नहीं है, बार बार वही पुरानी घिसी पिटी कहानियां ही क्यों प्रभावी बनी हुई हैं? केरल को लेकर राहुल गांधी ट्वीट तो कर रहे हैं, लेकिन उससे कहीं ज्यादा उनके दौरे को तफरीह समझ सोशल मीडिया पर सवाल पूछे जा रहे हैं.
राहुल गांधी के विदेश दौरों के सूत्रधार तो सैम पित्रोदा ही है, साथ में इस बार शशि थरूर, मिलिंद देवड़ा, आनंद शर्मा, और सोशल मीडिया इंचार्ज दिव्या स्पंदना जैसे नेता हैं.
बीजेपी और कांग्रेस का सियासी विरोध तो समझ आता है लेकिन केरल जैसी त्रासदी के बीच कई लोगों के गले के नीचे नहीं उतर रहा है.
संभव है विधानसभा चुनावों से पहले राहुल गांधी के विदेश दौरों को किसी शकुन और टोटके की तरह लेने लगी हो - और इसीलिए हर चुनाव से पहले ऐसे कार्यक्रम तैयार किये जाते हों. गुजरात और कर्नाटक के नतीजों को देखते हुए इसे काफी हद तक शकुन के रूप में समझा और समझाया भी जा सकता है. लेकिन 2019 के हिसाब से भी ये दौरे कुछ कारगर हो सकते हैं, लगता बिलकुल नहीं. हो सकता है राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनावों के बाद नये सिरे से व्यापक पैमाने पर सैम पित्रोदा राहुल गांधी के लिए विदेश दौरा प्लान कर रहे हों. राहुल गांधी अगर जर्मनी और लंदन के बजाय इस वक्त केरल पर ध्यान दे रहे होते तो लोगों के साथ साथ उनकी राजनीतिक सेहत और कांग्रेस के लिए भी अधिक लाभदायक रहता है. बराक ओबामा जब दूसरी पारी की तैयारी में थे तभी अमेरिका में जबर्दस्त तबाही आ गयी. ओबामा ने चुनाव प्रचार छोड़ कर लोगों की मदद पर जोर दिया. चुनाव में ओबामा को जीत भी मिली. राहुल गांधी के सलाहकारों को ये बात कभी समझ में नहीं आती, या फिर राहुल गांधी की टाइमपास पॉलिटिक्स में ही ज्यादा दिलचस्पी लगती है.
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