कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने पश्चिम बंगाल अपनी तरफ से करीब करीब बीजेपी के हवाले ही कर दिया है, लेकिन तमिलनाडु और केरल के साथ साथ असम में भी काफी मेहनत कर रहे हैं.
असम विधानसभा की 126 सीटों के लिए शुरू के तीन चरणों में वोट डाले जाने हैं - 27 मार्च, 1 अप्रैल और 6 अप्रैल. 27 मार्च को 47 सीटों पर 1 अप्रैल को 39 और तीसरे चरण में 6 अप्रैल को 40 सीटों पर वोटिंग होनी है. काउंटिंग तो सभी की एक ही साथ 2 मई को ही होगी.
राहुल गांधी बीजेपी के खिलाफ उसी का पसंदीदा हथियार सीएए (CAA) लागू किये जाने का इस्तेमाल कर रहे हैं. राहुल गांधी की पूरी कोशिश है कि असम विधानसभा चुनाव में सीएए चुनावी मुद्दा बन जाये, जबकि सत्ताधारी बीजेपी इसे हर कदम पर खारिज करने का प्रयास कर रही है. जब भी बात उठती है, बीजेपी नेता जोर देकर कहते हैं कि सीएए कोई मुद्दा नहीं है.
2019 में सीएए को लेकर विरोध प्रदर्शन असम में ही जोर पकड़े थे और फिर दिल्ली होते हुए उत्तर प्रदेश में भी उसके हिंसक रूप देखे गये. ये तभी की बात है जब झारखंड में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को झारखंड की चुनावी रैली के मंच से असम में लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करनी पड़ी थी.
लेकिन तब सीएए लागू करने पर मोदी सरकार का जो जोर देखने को मिलता था, अब नहीं है. दिखावे के लिए ही सही, लेकिन चुनावों तक तो होल्ड कर ही लिया गया है. झारखंड के बाद जब दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हुए तो सीएए विरोध का सबसे बड़ा मैदान शाहीन बाग बना था. तभी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस नेतृत्व को ललकारते हुए सीएए विरोध के लिए राजघाट तक पहुंचा दिया, जहां सोनिया गांधी ने संविधान की प्रस्तावना का पाठ भी किया. सीएए विरोधी की राजनीति के चलते प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू में उपाध्यक्ष पद गंवाना पड़ा था, राहत की बात बस ये रही कि उनके क्लाइंट अरविंद केजरीवाल चुनाव जीत गये.
2016 के असम चुनाव से पहले प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार की सलाह पर...
कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने पश्चिम बंगाल अपनी तरफ से करीब करीब बीजेपी के हवाले ही कर दिया है, लेकिन तमिलनाडु और केरल के साथ साथ असम में भी काफी मेहनत कर रहे हैं.
असम विधानसभा की 126 सीटों के लिए शुरू के तीन चरणों में वोट डाले जाने हैं - 27 मार्च, 1 अप्रैल और 6 अप्रैल. 27 मार्च को 47 सीटों पर 1 अप्रैल को 39 और तीसरे चरण में 6 अप्रैल को 40 सीटों पर वोटिंग होनी है. काउंटिंग तो सभी की एक ही साथ 2 मई को ही होगी.
राहुल गांधी बीजेपी के खिलाफ उसी का पसंदीदा हथियार सीएए (CAA) लागू किये जाने का इस्तेमाल कर रहे हैं. राहुल गांधी की पूरी कोशिश है कि असम विधानसभा चुनाव में सीएए चुनावी मुद्दा बन जाये, जबकि सत्ताधारी बीजेपी इसे हर कदम पर खारिज करने का प्रयास कर रही है. जब भी बात उठती है, बीजेपी नेता जोर देकर कहते हैं कि सीएए कोई मुद्दा नहीं है.
2019 में सीएए को लेकर विरोध प्रदर्शन असम में ही जोर पकड़े थे और फिर दिल्ली होते हुए उत्तर प्रदेश में भी उसके हिंसक रूप देखे गये. ये तभी की बात है जब झारखंड में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को झारखंड की चुनावी रैली के मंच से असम में लोगों से शांति बनाये रखने की अपील करनी पड़ी थी.
लेकिन तब सीएए लागू करने पर मोदी सरकार का जो जोर देखने को मिलता था, अब नहीं है. दिखावे के लिए ही सही, लेकिन चुनावों तक तो होल्ड कर ही लिया गया है. झारखंड के बाद जब दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हुए तो सीएए विरोध का सबसे बड़ा मैदान शाहीन बाग बना था. तभी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस नेतृत्व को ललकारते हुए सीएए विरोध के लिए राजघाट तक पहुंचा दिया, जहां सोनिया गांधी ने संविधान की प्रस्तावना का पाठ भी किया. सीएए विरोधी की राजनीति के चलते प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू में उपाध्यक्ष पद गंवाना पड़ा था, राहत की बात बस ये रही कि उनके क्लाइंट अरविंद केजरीवाल चुनाव जीत गये.
2016 के असम चुनाव से पहले प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार की सलाह पर कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की क्षेत्रीय पार्टी AIDF के बीच चुनावी गठबंधन की खूब कोशिश की थी, लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के अड़ जाने के कारण वो समझौता नहीं हो सका.
तब की गलतियों को राहुल गांधी सुधारने की कोशिश जरूर कर रहे हैं, लेकिन कितना? राहुल गांधी तब न तो तरुण गोगोई को बदरुद्दीन अजमल से समझौते के लिए मना पाये और न ही हिमंत बिस्वा सरमा को कांग्रेस में रोक पाये. तरुण गोगोई की गैर मौजूदगी में राहुल गांधी के फेवरिट गौरव गोगोई कमान संभाले हुए हैं और वही हिमंत बिस्वा सरमा बीजेपी की तरफ से मोर्चा संभाले हुए हैं.
कांग्रेस का इस बार AIDF से चुनावी समझौता तो हो गया है, लेकिन तरुण गोगोई जैसा कोई चेहरा कांग्रेस के पास नहीं है. गौरव गोगोई उनके बेटे जरूर हैं, लेकिन असल के लोग उनसे उनके पिता जैसा प्यार नहीं करते.
बेशक मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनवाल (Sarbananda Sonowal) को सत्ता विरोधी लहर से भी जूझना पड़ रहा है और सीएए को लेकर एक खास तबके में नाराजगी भी है, लेकिन कांग्रेस क्या सीएए को चुनावी मुद्दा बनाकर बीजेपी को उसी के हथियार से काउंटर कर पाएगी?
असम के चुनावी घमासान में राहुल गांधी ने भी मोर्चा संभाल लिया है। डिब्रूगढ़ के लाहोवल में गुरुवार को राहुल ने कॉलेज स्टूडेंट्स से बात की। इस दौरान उन्होंने बेरोजगारी, किसान और CAA पर बात की। उन्होंने कहा कि अगर देश के प्रधानमंत्री से लोग दिल खोलकर बात नहीं कर सकते, तो कोई न कोई कमी तो होगी। हर भाषा और धर्म के बीच में जो खुली बात होती है, उसे हम लोकतंत्र कहते हैं। उन्होंने कहा कि अगर आप दिल्ली जाओगे, तो अपनी भाषा नहीं बोल पाओगे। नागपुर में एक शक्ति पैदा हुई है, वो पूरे हिंदुस्तान को कंट्रोल करने में जुटी हुई है।
असम में सीएए कितना बड़ा मुद्दा
सीएए को बीजेपी के खिलाफ मुद्दा बनाने के लिए राहुल गांधी कितने गंभीर है, इसी बात से समझा जा सकता है कि जब वो असम पहुंचते हैं तो उनके गले में एक असमिया गमछा होता है - और उस पर CAA लिखने के बाद क्रॉस बना दिया गया है.
वैसे भी सीएए विरोध कांग्रेस की हालिया राजनीति का बड़ा आधार रहा है. असम और दिल्ली से ज्यादा तो कांग्रेस सीएए विरोध का झंडा उत्तर प्रदेश में बुलंद करती आ रही है. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा तो पुलिस एक्शन के शिकार सीएए विरोध प्रदर्शनकारियों के घरों तक जाती रही हैं - और गोरखपुर वाले डॉक्टर कफील खान को तो जैसे राजनीतिक तौर पर अडॉप्ट ही कर लिया है. अगले साल होने जा रहे यूपी चुनाव में कफील खान कांग्रेस के विरोध का प्रमुख चेहरा बनने वाले हैं.
असम में देखा जाये तो सीएए को मुद्दा बनाने का मौका भी बीजेपी ने ही दिया है. विरोधों और पश्चिम बंगाल चुनाव के चलते सीएए लागू करने को लेकर बीजेपी की दुविधा साफ तौर पर देखी जा सकती है. बीजेपी नेता अमित शाह कहते तो डंके की चोट पर हैं कि मोदी सरकार सीएए लागू करके ही दम लेगी और घुसपैठियों को बाहर खदेड़ देगी. घुसपैठियों के नाम पर बीजेपी को सहयोगियों का भी पूरा साथ नहीं मिलता. बिहार चुनाव के आखिरी दौर में जब यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घुसपैठियों को खदेड़ने की बात की तो फौरन ही नीतीश कुमार ने बोल दिया कि किसी की मजाल नहीं है जो किसी को खदेड़ सके. वो भी तब जबकि नीतीश कुमार सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही पूरे चुनाव में निर्भर नजर आये.
अगस्त, 2019 में जब असम में एनआरसी की आखिरी सूची जारी की गयी तो उसमें 19 लाख लोगों के नाम काट दिये गये थे. खास बात ये रही कि ऐसे लोगों में करीब 12 लाख बंगाली हिंदू भी शुमार थे - और ममता बनर्जी ने इसे लपकते हुए विरोध तेज कर दिया. बीजेपी इससे सहमी सहमी नजर आयी. हाल ही में गृह मंत्रालय की तरफ से बताया गया कि सीएए को लेकर ठीक से अमली जामा पहनाने के लिए अप्रैल और जुलाई, 2021 के बीच दो महीने का वक्त नियत किया गया है.
फिर तो साफ है कि केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व खुद भी सीएए लागू करने की जल्दबाजी में नहीं है - और जैसे भी मुमकिन हो जानबूझ कर देरी की कोशिश चल रही है.
बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व हो या फिर असम के हिमंता बिस्व सरमा जैसे नेता जगह जगह ये तो बोल रहे हैं कि सीएए कोई चुनावी मुद्दा नहीं है, लेकिन उनमें वो आत्मविश्वास नजर नहीं आता जो शब्दों में होता है. ये समझना मुश्किल नहीं है कि बीजेपी को भी इस बात का डर है कि कहीं सीएए वास्तव में चुनावी मुद्दे का रूप न ले ले, लिहाजा उसके काउंटर में बीजेपी नेतृत्व की तरफ से असम में संस्कृति और विरासत की बातें की जाने लगी हैं.
असल में असम के लोग भी सीएए के मुद्दे पर बंटे हुए हैं. सीएए का विरोध वे कर रहे हैं जो या तो सूची में नाम आने के बाद तरह तरह की मुश्किलें झेल रहे हैं या फिर वे जिनको डर है कि आगे चल कर कभी न कभी उनको भी लिस्ट का हिस्सा बनाया जा सकता है.
ऐन उसी वक्त असम में एक तबका ऐसा भी है जो सीएए का पक्षधर है और बीजेपी उसी तबके को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए संस्कृति और विरासत के नाम पर हौसलाअफजाई कर रही है. जो तबका सीएए लागू करने के पक्ष में है उसे इस बात का डर है कि अगर ये लागू नहीं हुआ तो वे लोग अपने ही घर में अल्पसंख्यक बन कर रह जाएंगे - और यही वो बिंदु है जिसका फायदा बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही अपने अपने तरीके से उठाने की कोशिश कर रहे हैं.
आखिर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जब 16वीं सदी के संत श्रीमंत शंकरदेव की जन्मस्थली बोरदुवा पहुंच कर भी तो यही संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं.
कांग्रेस को गठबंधन का कितना फायदा मिलेगा?
असम में कांग्रेस का बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से गठबंधन तो हो गया है, लेकिन नफे-नुकसान की पैमाइश बाकी है. बीजेपी ने भी बीजेपी ने एक पुराने गठबंधन सहयोगी असम गण परिषद को तो साथ रखा है, लेकिन बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट को छोड़ कर यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल को नया साथी बनाया है. कांग्रेस और बीजेपी गठबंधन के अलावा एक तीसरा मोर्चा भी खड़ा हो गया है. असम में विरोध की प्रमुख आवाज और आरटीआई कार्यकर्ता अखिल गोगोई ने जेल से ही अपने संगठन कृषक मुक्ति संग्राम समिति का राजनीतिक फोरम खड़ा किया है - रायजोर दोल. ये समिति के से जुड़े कई संगठनों को मिला कर बनाया गया है.
अखिल गोगोई की ही तरह ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के सपोर्ट से असम जातीय परिषद का गठन हुआ है - खास बात ये है कि ये दोनों ही सीएए विरोध की उपज हैं. जाहिर है चुनावी मुद्दे के रूप में इनका भी जोर सीएए विरोध पर ही रहेगा - कांग्रेस को इनका सीधा फायदा तो मिलने से रहा, लेकिन बीजेपी को जरा भी नुकसान होता है तो कांग्रेस के लिए तो फायदे वाली ही बात होगी.
करीब 35 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले असम में बीजेपी के सामने कांग्रेस और एआईयूडीएफ का हाथ मिलाकर मैदान में उतरना बीजेपी के लिए फिक्र वाली बात तो है ही. असम के 33 जिलों में से 9 तो ऐसे हैं जहां मुस्लिम आबादी 50 फीसदी से भी ज्यादा है - और ढुबरी जिले में तो ये सबसे ज्यादा 80 फीसदी के आसपास मुस्लिम आबादी रहती है. बदरुद्दीन अजमल की राजनीति का आधार भी यही है और कांग्रेस इस बार उसका पूरा फायदा उठाने की कोशिश में है.
सवाल है कि क्या कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन को फायदा मिलने की वाकई कोई संभावना है? 2016 में तरुण गोगोई के खिलाफ 15 साल के शासन को लेकर सत्ता विरोधी लहर प्रबल रही, उसके मुकाबले सर्बानंद सोनवाल की चुनौती कम भी हो सकती है, लेकिन ये भी इस बात पर निर्भर करता है कि सीएए कितना बड़ा चुनावी मुद्दा बन पाता है. खास बात ये रही कि तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद कांग्रेस को 2016 में सबसे ज्यादा 31 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 29.5 फीसदी वोट शेयर के साथ बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब रही.
तब बीजेपी भी काफी फूंक फूंक कर कदम बढ़ा रही थी. असम चुनाव से ठीक पहले बीजेपी बिहार और दिल्ली में विधानसभा चुनाव हार चुकी थी, जिसे मोदी लहर के लिए बड़ी चुनौती समझा गया. ये भी देखने को मिला कि बिहार से सबक लेते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी कार्यक्रम कम ही रखे गये थे. ये तो साफ है कि असम में मुस्लिम वोट को ध्यान में रख कर ही राहुल गांधी सीएए को चुनावी मुद्दा बनाने के फिराक में हैं. 2016 में बीजेपी को 60 सीटें मिली थी, जबकि कांग्रेस 26 सीटों पर सिमट कर रह गयी थी और उनमें में 15 मुस्लिम विधायक चुन कर आये थे. बदरुद्दीन अजमल के हिस्से में 13 विधायक आये थे - जो मिलाकर 28 हो जाते हैं. हालांकि, ये स्थिति तब रही जब कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल एक दूसरे के विरोध में चुनाव मैदान में थे, फायदा तो बीजेपी को ही मिला. कम से कम दर्जन भर सीटों पर जीत का मार्जिन बेहद कम था - और अगर कांग्रेस-एआईयूडीएफ के वोट जोड़े दें तो बीजेपी उम्मीदवारों से ज्यादा हो जाते. ये एक बड़ा फैक्टर है जो बीजेपी को निश्चित तौर पर परेशान कर रहा होगा.
बीजेपी की चिंता ऐसे भी समझी जा सकती है कि वो असम में कांग्रेस की जगह बदरुद्दीन अजमल को सीधे टारगेट कर रही है. इसे ऐसे भी समझ सकते हैं, जैसे उत्तर प्रदेश में बीजेपी प्रियंका गांधी वाड्रा को निशाना बनाती है और मायावती और अखिलेश यादव को तवज्जो देते नहीं देखी जाती. ये विरोधियों को काउंटर करने का वो तरीका है जिसमें मजबूत विरोधी को अहमियत न देकर कमजोर को तवज्जो दी जाती है ताकि लोगों का ध्यान बंट जाये. जो वास्तव में मजबूत है उसे लोग भी कमजोर मान कर चलें और बीजेपी के टक्कर में कोई खड़ा ही न हो पाये. यूपी में कांग्रेस का तो वही हाल है.
असम में प्रियंका गांधी की तरह बदरुद्दीन अजमल को टारगेट करने का फायदा वोटों के ध्रुवीकरण के रूप में भी मिल सकता है. यही वजह है कि असम में बीजेपी कांग्रेस को नजरअंदाज करने की कोशिश करती दिखने में जुटी है.
बीजेपी की ये सियासी चाल बदरुद्दीन अजमल भी समझ चुके हैं, लिहाजा पहले से ही बार बार साफ करने की कोशिश कर रहे हैं कि गठबंधन को सत्ता हासिल होने की सूरत में मुख्यमंत्री कांग्रेस का ही होगा - बदरुद्दीन अजमल के मुंह से ये सार्वजनिक घोषणा करा कर राहुल गांधी बीजेपी पर कुछ हद तक दबाव बनाने में सफल तो हैं ही.
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