राहुल गांधी से दिल्ली में हुई प्रशांत किशोर की मुलाकात के बाद कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं - सूत्रों के हवाले से खबरें तो ऐसी भी आ रही हैं कि प्रशांत किशोर कांग्रेस (Congress) ज्वाइन भी कर सकते हैं!
प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) कांग्रेस ज्वाइन करने की संभावना को बल इसलिए भी मिलता है क्योंकि वो खुद कह चुके हैं कि अब वो चुनाव कैंपेन का काम नहीं करेंगे. प्रशांत किशोर की बातों से ऐसा लगता है, जैसे वो सेटल होना चाहते हों. राजनीति में सेटल होने की बातें तो अजीब ही लगेंगी, लेकिन प्रशांत किशोर के कहने का आशय मुख्यधारा की राजनीति में काम करने की है.
प्रशांत किशोर मानते हैं कि जेडीयू में उपाध्यक्ष के तौर ज्वाइन करने के मामले में वो फेल रहे - और आगे के लिए भी वो अनिश्चितताओं के बीच बहुत उम्मीद तो नहीं करते, लेकिन काम करने का दृढ़ संकल्प दोहराते जरूर हैं.
जेडीयू में प्रशांत किशोर के फेल होने के कुछ खास कारण रहे - और कांग्रेस या किसी और राजनीतिक दल के साथ जुड़ने का बिलकुल वैसा ही अनुभव हो, नहीं कहा जा सकता. जेडीयू में देखा जाये तो प्रशांत किशोर को काम करने का मौका ही नहीं दिया गया. प्रशांत किशोर के जेडीयू ज्वाइन करने और नीतीश कुमार के पार्टी का भविष्य बताने के बाद से ही आरसीपी सिंह और ललन सिंह की जोड़ी ने हाथ मिला लिया - और तब तक चैन से नहीं बैठे जब तक बाहर का रास्ता नहीं दिखा दिया.
अब इससे ज्यादा अजीब स्थिति क्या होगी कि 2019 के आम चुनाव में प्रशांत किशोर को पार्टी कैंपेन से पूरी तरह दूर रखा गया - और वो जहां तहां अपने जगनमोहन रेड्डी या किसी और क्लाइंट के लिए काम करते रहे - समझने वाली बात ये रही कि पटना से दूर ही रहे. आम चुनाव के नतीजे आने के बाद तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का काम मिल ही गया था क्योंकि बीजेपी के ज्यादा संसदीय सीटें जीत लेने से ममता बनर्जी परेशान हो उठी थीं.
प्रशांत किशोर की राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ साथ, खबरों के मुताबिक, सोनिया गांधी (Rahul Gandhi and Sonia...
राहुल गांधी से दिल्ली में हुई प्रशांत किशोर की मुलाकात के बाद कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं - सूत्रों के हवाले से खबरें तो ऐसी भी आ रही हैं कि प्रशांत किशोर कांग्रेस (Congress) ज्वाइन भी कर सकते हैं!
प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) कांग्रेस ज्वाइन करने की संभावना को बल इसलिए भी मिलता है क्योंकि वो खुद कह चुके हैं कि अब वो चुनाव कैंपेन का काम नहीं करेंगे. प्रशांत किशोर की बातों से ऐसा लगता है, जैसे वो सेटल होना चाहते हों. राजनीति में सेटल होने की बातें तो अजीब ही लगेंगी, लेकिन प्रशांत किशोर के कहने का आशय मुख्यधारा की राजनीति में काम करने की है.
प्रशांत किशोर मानते हैं कि जेडीयू में उपाध्यक्ष के तौर ज्वाइन करने के मामले में वो फेल रहे - और आगे के लिए भी वो अनिश्चितताओं के बीच बहुत उम्मीद तो नहीं करते, लेकिन काम करने का दृढ़ संकल्प दोहराते जरूर हैं.
जेडीयू में प्रशांत किशोर के फेल होने के कुछ खास कारण रहे - और कांग्रेस या किसी और राजनीतिक दल के साथ जुड़ने का बिलकुल वैसा ही अनुभव हो, नहीं कहा जा सकता. जेडीयू में देखा जाये तो प्रशांत किशोर को काम करने का मौका ही नहीं दिया गया. प्रशांत किशोर के जेडीयू ज्वाइन करने और नीतीश कुमार के पार्टी का भविष्य बताने के बाद से ही आरसीपी सिंह और ललन सिंह की जोड़ी ने हाथ मिला लिया - और तब तक चैन से नहीं बैठे जब तक बाहर का रास्ता नहीं दिखा दिया.
अब इससे ज्यादा अजीब स्थिति क्या होगी कि 2019 के आम चुनाव में प्रशांत किशोर को पार्टी कैंपेन से पूरी तरह दूर रखा गया - और वो जहां तहां अपने जगनमोहन रेड्डी या किसी और क्लाइंट के लिए काम करते रहे - समझने वाली बात ये रही कि पटना से दूर ही रहे. आम चुनाव के नतीजे आने के बाद तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का काम मिल ही गया था क्योंकि बीजेपी के ज्यादा संसदीय सीटें जीत लेने से ममता बनर्जी परेशान हो उठी थीं.
प्रशांत किशोर की राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ साथ, खबरों के मुताबिक, सोनिया गांधी (Rahul Gandhi and Sonia Gandhi) से जो वर्चुअल मुलाकात हुई है, उसके बाद अगर बात आगे बढ़ती है तो कम से कम तीन तरह की संभावनाएं लगती हैं - एक, विपक्षी एकजुटता की कोशिश में लगे प्रशांत किशोर कांग्रेस नेतृत्व को भी साथ होने के लिए राजी कर लें, दो - कांग्रेस के लिए पंजाब के अलावा भी चुनाव कैंपेन को गाइड करने को तैयार हो जायें - और तीसरी, संभावना ये भी जतायी गयी है कि प्रशांत किशोर कांग्रेस ज्वाइन ही कर लें.
विपक्षी एकजुटता के लिए काम करना और कांग्रेस के इलेक्शन कैंपेन को गाइड करना तो एक जैसा ही है, लेकिन कांग्रेस ज्वाइन करने की बात थोड़ी गंभीर हो जाती है - और बड़ा सवाल ये है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के काम करने का जो तरीका है क्या प्रशांत किशोर उस दायरे में फिट हो पाएंगे?
फिर तो हाथ जोड़ना ही पड़ेगा!
राहुल गांधी के काम करने की अपनी अलग स्टाइल है और सोनिया गांधी की अपनी परंपरागत पुरानी स्टाइल है. ये बात सोनिया गांधी खुद ही एक इंटरव्यू में बता चुकी हैं. हालत ये है कि आपस में ही दोनों की कार्यशैली मैच नहीं करती - अब ऐसे में प्रशांत किशोर की अपनी अलहदा कार्यशैली कहां तक फिट हो सकेगी, सबसे बड़ा सवाल है.
सोनिया गांधी कमेटी सिस्टम में यकीन रखती हैं. मामला कोई भी हो वो एक कमेटी बना देती हैं. पहले की छोड़ भी दें तो कोविड 19 काल में ही देख लीजिये कांग्रेस में कितनी कमेटियां बनी हैं.
राहुल गांधी अपने लोगों से काम कराने के लिए अलग अलग टास्क देते हैं - और टास्क का नेतृत्व उसे सौंपते हैं जिस भरोसा हो. ये भरोसा इसलिए नहीं कि वो काम को तरीके से ही करने में सक्षम हो, बल्कि उसे राहुल गांधी के मनमाफिक काम करने में पारंगत होना चाहिये.
राहुल गांधी लोकतांत्रिक तौर तरीकों में ज्यादा यकीन करते हैं. सोनिया गांधी को लगता है कि ऐसा करने से चीजें हाथ से फिसल जाएंगी - और यही वजह है कि राहुल गांधी के गैर गांधी कांग्रेस अध्यक्ष होने की जिद के चलते सेहत दुरूस्त न होने के बावजूद नये सिरे कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनना पड़ा.
लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संवैधानिक संस्थाओं को बीजेपी पर बर्बाद करने का इल्जाम लगाने वाली सोनिया गांधी को इस बात से परहेज नहीं है कि नये कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लोकतंत्रिक तरीके से न हो, लेकिन वो ये जरूर चाहेंगी कि चुनाव के बाद भी राहुल गांधी ही कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठें.
भला ये कौन सा लोकतांत्रिक तरीका हुआ जिसमें रिजल्ट मनमाफिक और पहले से तय हो. ऐसा मौका तब भी आया था जब सोनिया गांधी खुद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रही थीं, बीजेपी ज्वाइन कर चुके जितिन प्रसाद के पिता जितेंद्र प्रसाद ने तब चैलेंज करने की कोशिश भी की, लेकिन सोनिया गांधी के करीबियों ने जबरन खामोश कर दिया. हल्का-फुल्का ऐसा ही नजारा राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के दौरान भी देखने को मिला था.
राहुल गांधी और सोनिया गांधी में कॉमन ये है कि दोनों की कार्यशैली में जल्दी फैसले नहीं हो पाते या फिर होते भी हैं तो आधे-अधूरे टाइप, जिसमें समस्या बनी रहती है लेकिन मान लिया जाता है कि सब कुछ ठीक हो गया. अगर ऐसा नहीं होता तो सचिन पायलट और अशोक गहलोत का झगड़ा खत्म हो चुका होता - और कैप्टन अमरिंदर सिंह भी या तो हाशिये पर चले गये होते या फिर नवजोत सिंह सिद्धू से लगातार दो दो हाथ करने को मजबूर न होते.
प्रशांत किशोर के काम करने के तरीके में फैसले जल्दी लेने होते हैं क्योंकि एक फैसले के बाद आगे बढ़ कर अगले फैसले का वक्त आ चुका होता है. प्रशांत किशोर का काम नतीजे हासिल करने के लिए होता है, लिहाजा अंदाज भी पेशेवर होता है. जरूरी नहीं कि कांग्रेस नेतृत्व भी उसके लिए तैयार हो पाये.
बाकी छोड़ दें और पंजाब और राजस्थान का ही केस देखें तो बीमारी सिर्फ समय पर सही फैसला न लेने के चलते ही गंभीर नहीं हुई है - बल्कि, कोई भी फैसला लेने में पंसद-नापंसद भी आड़े आ जाता है.
अब अगर वही चैलेंज प्रशांत किशोर के सामने आता है तो वो पेशेवर तरीके से समस्या का समाधान खोजेंगे. प्रशांत किशोर कभी इस बात की परवाह नहीं करते कि वो जो करना चाहते हैं उसका कौन विरोध करता है और क्यों?
पश्चिम बंगाल का ही उदाहरण लें तो शुभेंदु अधिकारी ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस के कई सीनियर नेताओं की शिकायत रही कि प्रशांत किशोर के हिसाब से ही हर फैसला हो रहा है. ममता बनर्जी से किसी को कोई दिक्कत नहीं रही, लेकिन प्रशांत किशोर को कोई भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था. प्रशांत किशोर के दखल के चलते ही बहुत सारे तृणमूल कांग्रेस नेताओं ने पार्टी छोड़ने का फैसला किया था, लेकिन नतीजों के हिसाब से देखें तो प्रशांत किशोर सही साबित हुए.
अब तक जहां कहीं भी प्रशांत किशोर काम करते आये हैं, तरीका करीब करीब मिलता जुलता ही रहा है. प्रशांत किशोर कहते हैं कि उनका काम क्लाइंट को सजेशन देना होता है. मानना और न मानना क्लाइंट के विवेक पर डिपेंड करता है. प्रशांत किशोर के ये सजेशन माइक्रो लेवल पर और ग्राउंड जीरो से प्रोफेनली तैयार किये गये फीडबैक पर आधारित होते हैं - और उस पर अमल होना या न हो पाना ही कामयाबी का आधार या नाकामी की वजह बनता है.
तभी तो प्रशांत किशोर को अपना काम करने के लिए खुली छूट चाहिये होती है. अगर काम करने की खुली छूट और अगर मनमाफिक सुविधायें नहीं मिलतीं तो काम करना तो किसी के लिए भी मुश्किल हो ही जाएगा.
प्रशांत किशोर के अब तक के ट्रैक रिकॉर्ड को देखें तो 2017 में कांग्रेस का इलेक्शन कैंपेन ही एकमात्र केस रहा है जो उनकी कामयाबी पर धब्बा है - और जब तब ये बातचीत में ये सवाल उठ ही जाता है.
ऐसे ही सवाल पर एक इंटरव्यू में प्रशांत किशोर बताते हैं, 'मेरी गलती ये है कि उस फैसले में सहभागी न होने के बाद भी मैंने खुद को वहां से हटाया नहीं. मैं इसे स्वीकार करता हूं. अब ये कहना भी ठीक नहीं होगा कि मुझे हट जाना चाहिये था्. इसलिए मैं जिम्मेदारी लेता हूं.'
2017 के यूपी चुनाव में प्रशांत किशोर ने पहले तो राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के चेहरे पर चुनाव लड़ने की सलाह दी थी. ये तो ऐसी सलाह ही थी कि मंजूर न हो पाये, नामंजूर हो गयी. फिर किसी ब्राह्मण चेहरे का सुझाव दिया था. तब शीला दीक्षित को आगे भी किया गया, लेकिन फिर प्रियंका गांधी आगे बढ़ीं और अखिलेश यादव के साथ राहुल गांधी ने चुनावी गठबंधन कर लिया. प्रशांत किशोर कांग्रेस की स्थिति जानते हुए भी गठबंधन के खिलाफ थे.
प्रशांत किशोर एक इंटरव्यू में कहते हैं, 'मेरी राहुल गांधी से व्यक्तिगत तौर पर बहुत अच्छी बनती है. उसके बाद मैंने हाथ जोड़ कर उनसे कहा कि अब हम लोग साथ काम नहीं कर सकते. क्योंकि मैं जो कहूंगा वो करवा नहीं पाऊंगा - आपका फायदा होने की जगह नुकसान हो जाएगा.'
अगर PK राहुल की जगह कोई और चेहरा चाहें तो?
प्रशांत किशोर किसी भी राजनीतिक दल के इलेक्शन कैंपेन में न तो वोट मांगते हैं न उनके पास वोट दिलाने का कोई और इंतजाम है. प्रशांत किशोर की कंपनी आईपैक की टीम बेहद बारीकी से चीजों का विश्लेषण करती है और उसी के हिसाब से रणनीति तैयार की जाती है - वोट दिलाने का काम प्रशांत किशोर की टीम का नहीं होता, बल्कि वो काम तो राजनीतिक दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं के जिम्मे ही होता है.
कांग्रेस का फिलहाल जो हाल हो रखा है, कम ही जगह ऐसी है जहां जमीनी स्तर पर कांग्रेस के कार्यकर्ता मिल पायें. मिलने से मतलब, बीजेपी की तरह बूथ लेवल पर लोगों को वोट डालने के लिए तो प्रेरित करें ही, बीजेपी को ही वोट दें ये भी समझा सकें.
अभी यूपी पंचायत चुनाव में भी कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने काफी काम मेहनत की थी, लेकिन नतीजे तो नहीं ही देखने को मिल सके. अगर वास्तव में जमीनी लेवल पर कांग्रेस के कार्यकर्ता होते तो बाकी चुनाव छोड़ दें तो पंचायत की सीटें तो मिलनी ही चाहिये थीं - ये बात अलग है कि बाद में वे सारे सत्ता पक्ष के हो जाते. जैसी की परंपरा रही है और इस बार भी यूपी में ऐसा ही हुआ है जिसे लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद भी अपनी पीठ थपथपा रहे हैं - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी.
मुद्दे की बात तो ये है कि कांग्रेस नेतृत्व को भी प्रशांत किशोर जैसे किसी हुनरमंद मैनेजर की शिद्दत से जरूरत है, लेकिन ये भी तो जरूरी नहीं कि वे मैनेजर को अपने मन से काम भी करने दें. अब प्रशांत किशोर किसी भी स्थिति में अहमद पटेल या राजीव सातव तो बन जाने से रहे.
ऐसा भी नहीं कि प्रशांत किशोर हर किसी के लिए काम करने को तैयार हो जाते हैं. जैसा कि प्रशांत किशोर बताते भी हैं, उनको काम करने के लिए एक क्रेडिबल चेहरे की जरूरत होती है. नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार से लेकर कैप्टन अमरिंदर सिंह तक, प्रशांत किशोर के लिए काम करने का आधार एक ही बना है. बाद में तो वो आदित्य ठाकरे, जगनमोहन रेड्डी, अरविंद केजरीवाल और एमके स्टालिन के लिए भी काम कर चुके हैं, लेकिन पहली बार 2016 में तो खबर आयी थी कि ममता बनर्जी भी चाहती थीं कि प्रशांत किशोर उनके लिए काम करें लेकिन वो तैयार नहीं हुए. ममता बनर्जी और प्रशांत किशोर की पहली मुलाकात भी नीतीश कुमार के शपथग्रहण के मौके पर ही हुई थी. हो सकता है प्रशांत किशोर तभी ये काम छोड़ना चाहते हों और जब जेडीयू ज्वाइन करने का संकेत मिला हो तो ममता के लिए भी काम न किये हों.
अब सवाल ये उठता है कि प्रशांत किशोर की नजर में राहुल गांधी क्रेडिबल चेहरा हैं या नहीं?
'आप मुझे पप्पू बोलते हो, मुझे फर्क कोई नहीं पड़ता,' राहुल गांधी भरी संसद में खुद ये बात कह चुके हैं - और इसी भाषण के बाद वो जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले मिले थे और फिर सदन में ही आंख भी मारे थे.
सोशल मीडिया से लेकर आम बातचीत में भी लोग राहुल गांधी का मजाक उड़ाते रहते हैं - और बतौर सबूत उनके पास पेश करने या शेयर करने के लिए व्हाट्सऐप पर भरपूर माल मिल जाता है. बेशक ऐसा करने वाले कांग्रेस या राहुल गांधी के समर्थक नहीं होते, ये बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपोर्टर होते हैं.
मुद्दा तो यही है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले खड़ा कर दिया जाता है - और तभी राहुल गांधी या तो कोई ऐसा बयान दे देते हैं या फिर कोई ऐसी हरकत ही कर देते हैं कि आसानी से लोगों के निशाने पर आ जाते हैं.
गांधी परिवार के साथ काम में सामंजस्य बिठाने के बाद प्रशांत किशोर के लिए राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर लोगों को भरोसा दिलाना भी एक बड़ा चैलेंज होगा. राहुल गांधी की छवि निखारने के लिए विदेशों में इवेंट मैनेजमेंट के जरिये सैम पित्रोदा कुछ ऐसे प्रयोग कर चुके हैं और 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में फर्क भी देखने को मिला है.
प्रशांत किशोर ही नहीं खुद राहुल गांधी के लिए भी किसी भी चीज में तब्दील बहुत बड़ी चुनौती होगी. अब तक तो यही देखने को मिला है कि प्रशांत किशोर की सलाह पर अरविंद केजरीवाल और शुरू शुरू में ममता बनर्जी के हाव-भाव और बात-व्यवहार में काफी बदलाव महसूस हुआ और उसका फायदा भी हुआ.
लेकिन तब क्या होगा जब प्रशांत किशोर ये सलाह दे बैठें कि कांग्रेस राहुल गांधी को होल्ड कर ले और प्रियंका गांधी वाड्रा को चेहरा बना कर आगे कर दे. क्या राहुल गांधी और सोनिया गांधी को ये मंजूर होगा? और अगर ऐसा न हुआ तो क्या उसके अगले दिन भी प्रशांत किशोर वहां बने रह सकेंगे? फिर तो मजबूरन हाथ जोड़ना पड़ेगा. पहल जिधर से भी हो!
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ममता बनर्जी के लिए सोनिया गांधी कुछ भी करें तो नुकसान राहुल गांधी का है
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