राजस्थान विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष रहे गुलाबचंद कटारिया को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने असम का राज्यपाल नियुक्त किया है. इसके बाद सूबे में नेता प्रतिपक्ष का पद खाली हो गया है. 10 दिन बाद भी बीजेपी सदन के नेता का नाम तय नहीं कर पाई है. वर्तमान में राजस्थान विधानसभा में बजट सत्र चल रहा है. सरकार को घेरने के लिए नेता प्रतिपक्ष की भूमिका अहम होती है. नेता प्रतिपक्ष ही सदन के किसी भी नेता की ओर से लगाए गए सवाल पर बोलते हैं. वही सरकार को घेरने का काम करते हैं लेकिन अब नेता प्रतिपक्ष नहीं होने से विपक्ष की ओर से सरकार को घेरने वाला कोई नहीं है. हालांकि, सदन की कार्रवाई 27 फरवरी तक स्थगित है. अब 28 फरवरी को सुबह 11 बजे फिर से सदन की कार्रवाई शुरू होगी.
राजस्थान में नेता प्रतिपक्ष के बारे में जाने तो प्रदेश में 1952 से लेकर अब तक 22 नेता प्रतिपक्ष रहे है. अब 23वें नेता प्रतिपक्ष की घोषणा का इंतजार है. स्वतंत्र पार्टी के लक्ष्मण सिंह चार बार नेता प्रतिपक्ष रहे हैं. पूर्व सीएम भैरोसिंह सिंह शेखावत तीन बार नेता प्रतिपक्ष रहे हैं. हाल ही में असम के राज्यपाल घोषित हुए गुलाबचंद कटारिया भी पिछले 24 वर्षों में राजस्थान विधानसभा में 3 बार नेता प्रतिपक्ष रहे हैं.
यह तो संभावना है कि अगले कुछ दिनों में राजस्थान में नेता विपक्ष की नियुक्ति भाजपा हाईकमान कर देगा. भाजपा की ओर से नेता विपक्ष कौन होगा अभी यह तय नहीं है, लेकिन दावेदार कई हैं और कई खेमे भी हैं. भाजपा के लिए नेता विपक्ष की नियुक्ति इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी से सीएम चेहरे का संकेत मिलेगा. नेता विपक्ष के चेहरे से पार्टी की खेमेबंदी के समीकरण भी बदलेंगे.
पार्टी में सीएम चेहरे को लेकर पहले से ही खेमेबंदी जारी है. बीजेपी में अभी पूर्व सीएम वसुंधरा राजे, प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया, वरिष्ठ नेता ओम माथुर, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, सांसद किरोड़ीलाल मीणा, पूर्व मंत्री राजेंद्र राठौड़ के अपने खेमे हैं. इन खेमों के अलावा भी कई नेताओं के अपने...
राजस्थान विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष रहे गुलाबचंद कटारिया को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने असम का राज्यपाल नियुक्त किया है. इसके बाद सूबे में नेता प्रतिपक्ष का पद खाली हो गया है. 10 दिन बाद भी बीजेपी सदन के नेता का नाम तय नहीं कर पाई है. वर्तमान में राजस्थान विधानसभा में बजट सत्र चल रहा है. सरकार को घेरने के लिए नेता प्रतिपक्ष की भूमिका अहम होती है. नेता प्रतिपक्ष ही सदन के किसी भी नेता की ओर से लगाए गए सवाल पर बोलते हैं. वही सरकार को घेरने का काम करते हैं लेकिन अब नेता प्रतिपक्ष नहीं होने से विपक्ष की ओर से सरकार को घेरने वाला कोई नहीं है. हालांकि, सदन की कार्रवाई 27 फरवरी तक स्थगित है. अब 28 फरवरी को सुबह 11 बजे फिर से सदन की कार्रवाई शुरू होगी.
राजस्थान में नेता प्रतिपक्ष के बारे में जाने तो प्रदेश में 1952 से लेकर अब तक 22 नेता प्रतिपक्ष रहे है. अब 23वें नेता प्रतिपक्ष की घोषणा का इंतजार है. स्वतंत्र पार्टी के लक्ष्मण सिंह चार बार नेता प्रतिपक्ष रहे हैं. पूर्व सीएम भैरोसिंह सिंह शेखावत तीन बार नेता प्रतिपक्ष रहे हैं. हाल ही में असम के राज्यपाल घोषित हुए गुलाबचंद कटारिया भी पिछले 24 वर्षों में राजस्थान विधानसभा में 3 बार नेता प्रतिपक्ष रहे हैं.
यह तो संभावना है कि अगले कुछ दिनों में राजस्थान में नेता विपक्ष की नियुक्ति भाजपा हाईकमान कर देगा. भाजपा की ओर से नेता विपक्ष कौन होगा अभी यह तय नहीं है, लेकिन दावेदार कई हैं और कई खेमे भी हैं. भाजपा के लिए नेता विपक्ष की नियुक्ति इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी से सीएम चेहरे का संकेत मिलेगा. नेता विपक्ष के चेहरे से पार्टी की खेमेबंदी के समीकरण भी बदलेंगे.
पार्टी में सीएम चेहरे को लेकर पहले से ही खेमेबंदी जारी है. बीजेपी में अभी पूर्व सीएम वसुंधरा राजे, प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया, वरिष्ठ नेता ओम माथुर, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, सांसद किरोड़ीलाल मीणा, पूर्व मंत्री राजेंद्र राठौड़ के अपने खेमे हैं. इन खेमों के अलावा भी कई नेताओं के अपने खेमे हैं. कटारिया के राज्यपाल बनने के बाद इन खेमों के नेताओं में उम्मीद जगी है. हालांकि इन सभी खेमों में वंसुधरा का खेमा सबसे भारी है, भले ही मोदी और शाह ने उन्हें किनारे लगाने की पूरी कोशिश क्यों न की हो.
राजस्थान की सबसे दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वंसुधरा राजे सिंधिया की कोशिश होगी कि वह अपने गुट के किसी नेता को विपक्ष के नेता पद पर बिठायें. वंसुधरा को नेता विपक्ष बनाने की मांग वंसुधरा के समर्थकों की ओर से शुरू हो गई है लेकिन वंसुधरा खुद विपक्ष का नेता बनने को तैयार होगी, इसकी संभावना कम है. कुछ भाजपा नेताओं का मानना है कि वंसुधरा की नजर नेता विपक्ष की बजाय चुनाव प्रचार कमेटी के अध्यक्ष पर है. वे चाहती हैं कि अगले चुनाव में टिकटों के चयन में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रहे, इसके लिए वंसुधरा के लिए चुनाव कैंपेन कमेटी के अध्यक्ष का पद नेता प्रतिपक्ष से ज्यादा महत्व रखता है. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री रहते वंसुधरा की तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से अनबन की खबरें लगातार सुर्खियों में रहती थी. अमित शाह ने बतौर अध्यक्ष वंसुधरा पर पूरी लगाम लगा दी थी और 2018 के विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे में वंसुधरा को नजरअंदाज किया गया. अपनी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट देने के बाद भी केंद्रीय नेतृत्व ने 2018 में राजस्थान में भाजपा की हार का ठीकरा वंसुधरा के सिर पर फोड़ दिया और उनके तमाम समर्थकों की मांग के बाद भी वंसुधरा को नेता विपक्ष नहीं बनाया गया.
उसके बाद पहली बार विधायक बने सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया जो लगातार वसुंधरा राजे और उनके समर्थकों को किनारे करने में लगे रहे. इस कारण पिछले चार साल विपक्ष में रही भाजपा कांग्रेस सरकार को घेरने की बजाय आपसी गुटबाजी में बंटी रही. सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच खिंची तलवारों के बाद भी भाजपा अपने लिए कोई अवसर नहीं बना सकी. गहलोत सरकार के विरोध में निकली जन आक्रोश यात्रा तो बुरी तरह विफल रही. लेकिन मोदी और शाह अब राजस्थान को लेकर गंभीर है और भाजपा की कमजोर स्थिति से चिंतित भी हैं. इसलिए राजस्थान को लेकर भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व फूंक फूंक कर कदम उठा रहा है. भाजपा का केन्द्रीय संगठन मोदी और शाह की मजबूत पकड़ में है, ऐसे में नए नेता विपक्ष से लेकर अगले विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री के चेहरे पर फैसला मोदी और शाह ही लेंगे. लेकिन नेता विपक्ष की रेस हो, चुनाव प्रचार अभियान की प्रमुख बनने की रेस हो या मुख्यमंत्री की दौड़ हो, वसुंधरा राजे सबसे आगे है. लेकिन वंसुधरा को लेकर भाजपा हाईकमान ने कौन सी जिम्मेदारी तय की है यह कहना अभी मुश्किल है. फिर भी, एक बात तय है कि भाजपा राजस्थान में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने से बचेगी और मोदी के चेहरे और सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी. वसुंधरा के विरोधी नेता यही चाहते हैं. क्योंकि वसुंधरा के अलावा किसी अन्य प्रदेश नेता की इतनी लोकप्रियता नहीं है कि अपने चेहरे पर राजस्थान का चुनाव जीत सके. इसलिए वे सभी नेता बार बार मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं.
हालांकि लोकसभा चुनाव से कुछ माह पहले राजस्थान की विकट परिस्थितियों में मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ना कितना उचित होगा, यह कहना कठिन है. पिछले दिनों जिस तरह से पीएम ने राजस्थान में रैलियां और कायर्क्रमों की शुरुआत की है, उससे तो यही लग रहा है कि मोदी को केंद्र में रखकर ही चुनाव लड़ने की तैयारी है. जिन बड़े पदों पर फैसले होने हैं, इनमें प्रमुख रूप से प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष और चुनाव अभियान समिति के प्रमुख का पद शामिल हैं. इस समय विधानसभा में बीजेपी की तरफ से विपक्ष के उपनेता राजेंद्र राठौड़ हैं, जो राजपूत हैं. अध्यक्ष सतीश पूनिया हैं, जो जाट हैं. संगठन महामंत्री चंद्रशेखर हैं, जो ब्राह्मण हैं. ऐसे में जातीय संतुलन के हिसाब से भी पार्टी निर्णय करेगी. भाजपा का सियासी ट्रेंड रहा है कि किसी को नेता विपक्ष पद की जिम्मेदारी दी जाती है तो जरूरी नहीं कि वह अगले चुनाव में पार्टी के सत्ता में आने पर सीएम बनाया जाए. 2003 और 2013 के चुनाव के बाद भाजपा जब सत्ता में आई तो वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री बनीं. दोनों ही बार चुनाव से पहले विधानसभा में नेता विपक्ष के पद पर गुलाबचंद कटारिया थे. 2003 और 2013 से पहले वसुंधरा राजे को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी और फिर सत्ता में आने के बाद उनको दोनों बार मुख्यमंत्री बनाया गया.
पूर्व सीएम वसुंधरा राजे का प्रदेश में व्यापक जनाधार है. विपक्ष में रहकर चुनावी साल में सत्ताविरोधी लहर को बीजेपी के पक्ष में करके रिजल्ट लाने का उनका ट्रैक रिकॉर्ड रहा है. लेकिन केंद्र की शह पर प्रदेश अध्यक्ष द्वारा लगातार वंसुधरा का विरोध उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है. प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया ने वंसुधरा के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है. वहीं, पूनिया की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के कारण अन्य सभी नेता उनसे भी कट गए हैं. जहां वसुंधरा का जनाधार है, वहीं अन्य सभी प्रदेश नेता मोदी और शाह से चुनाव जिताने की उम्मीद कर रहे हैं. मोदी और शाह के सर्वे में जनता में अशोक गहलोत की लोकप्रियता बरकरार है.
राजस्थान में चुनाव सिर पर है, ऐसे में भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रदेश के नेताओं की अति महत्त्वाकांक्षा और आपसी संघर्ष से कैसे निपटता है यह आने वाला समय ही बताएगा. राजस्थान में जाट और राजपूत दो जातियां चुनावों में विशेष महत्व रखती है. ऐसे में जातिगत समीकरण साधते हुए राजेन्द्र राठौड़ और सतीश पूनिया में से किसी एक नेता तो नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी दिए जाने की प्रबल संभावना है. चुनावी साल में जातिगत समीकरण साधना पार्टी के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. वैसे बीजेपी में केंद्रीय नेतृत्व हमेशा चौंकाने वाला नाम ही तय करता आया है. पहली बार विधायक बने सतीश पूनिया के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं था कि वे पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष बनेंगे. हालांकि, तीन साल पहले पार्टी ने उन्हें प्रदेशाध्यक्ष की जिम्मेदारी सतीश पूनिया को दी. नेता प्रतिपक्ष के बारे में भी केन्द्रीय नेतृत्व ऐसा ही चौंकाने वाला नाम भी तय कर सकते हैं. पर एक बात अवश्य है यदि समय पर निर्णय नहीं हुआ तो भाजपा के लिए सत्ता में वापसी आसान नहीं होगी. और उसका असर लोकसभा चुनाव पर पड़ना तय है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.