तो क्या राजस्थान में वसुंधरा राजे राजनीति की बाजीगर बनके उभरी है? बाजीगर इसलिए क्योंकि कहा जा रहा है कि राजस्थान वसुंधरा राजे हारी हुई बाजी जीत सकती है. कांग्रेस में टिकट वितरण के बाद जिस तरह से हंगामा बरपा है उसके बाद कहा जा रहा है कि कांग्रेस के सबसे बड़े रणनीतिकार जादूगर अशोक गहलोत पर बाजीगर महारानी भारी पड़ी हैं.
कांग्रेस के नेता सचिन पायलट और अशोक गहलोत को लगने लगा है कि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनने वाली है और यहीं से कांग्रेस के कमतर होने का सिलसिला शुरू हो गया. टिकट वितरण के बाद लोग मानने लगे हैं कि राजस्थान में इस बार 'एक बार कांग्रेस और एक बार बीजेपी' का इतिहास बदल भी सकता है. वसुंधरा राजे दूसरी बार वापसी कर सकती हैं. इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि वसुंधरा राजे का करिश्मा लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है या लोगों की वसुंधरा राजे के प्रति नाराजगी एकदम से गायब हो गई है.
यह सब कांग्रेसियों के आपसी झगड़े में बहाए जा रहे पसीने का परिणाम लग रहा है. कांग्रेस महासचिव अशोक गहलोत के दिल में इस बार मुख्यमंत्री बनने की प्रबल इच्छा है तो सचिन पायलट को लग रहा है कि वह 5 साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं लिहाजा मुख्यमंत्री बनने के स्वभाविक उम्मीद्वार हैं. ऐसा नहीं है कि अब से पहले राजस्थान में नेता कांग्रेस सूरज बड़जात्या की फिल्म हम साथ-साथ हैं के चरित्र को जी रहे थे. लेकिन फिछले एक दो दशक से राजस्थान की राजनीति जादूगर अशोक गहलोत की उंगलियों पर नाचती रही है. दिल्ली की राजनीति में सिमटे नटवर सिंह और राजेश पायलट जैसे नेता हों या फिर नाराय़ण सिंह, बीडी कल्ला और सीपी जोशी जैसे स्थानीय भारीभरकम नाम हो, गहलोत की सोच के बड़े कैनवास के आगे बौने नजर आए.
गहलोत परसेप्शन की राजनीति करते हैं जहां छवि मायने रखती है. आम जनता से सहजता से जुड़ना और गरीबों-जरुरतमंदो के दुख दर्द में शामिल होना इनकी पूंजी रही है जिसके बल पर राजनीति की शुरुआती दिनों में ही इन्होने राज्य की राजनीति में मुखर मिर्धा, ओला, मदरेणा परिवारों को किनारे लगा...
तो क्या राजस्थान में वसुंधरा राजे राजनीति की बाजीगर बनके उभरी है? बाजीगर इसलिए क्योंकि कहा जा रहा है कि राजस्थान वसुंधरा राजे हारी हुई बाजी जीत सकती है. कांग्रेस में टिकट वितरण के बाद जिस तरह से हंगामा बरपा है उसके बाद कहा जा रहा है कि कांग्रेस के सबसे बड़े रणनीतिकार जादूगर अशोक गहलोत पर बाजीगर महारानी भारी पड़ी हैं.
कांग्रेस के नेता सचिन पायलट और अशोक गहलोत को लगने लगा है कि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनने वाली है और यहीं से कांग्रेस के कमतर होने का सिलसिला शुरू हो गया. टिकट वितरण के बाद लोग मानने लगे हैं कि राजस्थान में इस बार 'एक बार कांग्रेस और एक बार बीजेपी' का इतिहास बदल भी सकता है. वसुंधरा राजे दूसरी बार वापसी कर सकती हैं. इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि वसुंधरा राजे का करिश्मा लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है या लोगों की वसुंधरा राजे के प्रति नाराजगी एकदम से गायब हो गई है.
यह सब कांग्रेसियों के आपसी झगड़े में बहाए जा रहे पसीने का परिणाम लग रहा है. कांग्रेस महासचिव अशोक गहलोत के दिल में इस बार मुख्यमंत्री बनने की प्रबल इच्छा है तो सचिन पायलट को लग रहा है कि वह 5 साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं लिहाजा मुख्यमंत्री बनने के स्वभाविक उम्मीद्वार हैं. ऐसा नहीं है कि अब से पहले राजस्थान में नेता कांग्रेस सूरज बड़जात्या की फिल्म हम साथ-साथ हैं के चरित्र को जी रहे थे. लेकिन फिछले एक दो दशक से राजस्थान की राजनीति जादूगर अशोक गहलोत की उंगलियों पर नाचती रही है. दिल्ली की राजनीति में सिमटे नटवर सिंह और राजेश पायलट जैसे नेता हों या फिर नाराय़ण सिंह, बीडी कल्ला और सीपी जोशी जैसे स्थानीय भारीभरकम नाम हो, गहलोत की सोच के बड़े कैनवास के आगे बौने नजर आए.
गहलोत परसेप्शन की राजनीति करते हैं जहां छवि मायने रखती है. आम जनता से सहजता से जुड़ना और गरीबों-जरुरतमंदो के दुख दर्द में शामिल होना इनकी पूंजी रही है जिसके बल पर राजनीति की शुरुआती दिनों में ही इन्होने राज्य की राजनीति में मुखर मिर्धा, ओला, मदरेणा परिवारों को किनारे लगा दिया. बेटे-बेटियों के धृत्रराष्ट्र प्रेम से वंचित होना इन्हें राजनीति के महाभारत से अलग रखा. आम जनता में बनि जन नेता कि छवि से समर्थक कहने लगे कि अशोक गहलोत को सीएम घोषित कर दे तो राजस्थान में भारी बहुमत से कांग्रेस की सरकर बने. गुजरात की अच्छी सियासी सफलता ने इन्हें वो दिया जिसकी वजह से ये निहत्थे योद्धा नजर आते थे. इन्हें राहुल गांधी मिल गए. अब मारक क्षमता घातक समझी जाने लगी.
मीडिया के लाडले गहलोत को सचिन ने हाशिए पर ला दिया है. और जब कंपेटिशन कड़ा हो और मुकाबला बराबर का मिले तो इन्सान के अंदर लड़ने की इच्छा प्रबल हो जाती है. यही वजह है कि सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच मुकाबला टक्कर का चल रहा है. गहलोत ने कहा था कि हॉट सीट के लिए अभी तो गेम शुरु हुआ है, बस सचिन ने यहीं से ठान ली कि भविष्य के गर्भ में राहुल गांधी को सोने नही देना है. अभिमन्यू नहीं बनना है. चक्रव्यूह के आठवें अध्याय के जिक्र तक जगाए रखना है. मगर जरा सोचिए महाभारत की इस लड़ाई में कौन हारा और कौन जीता था. अपने ने अपनों को मारा था.
पिछले 15 दिनों में जो कुछ कांग्रेस के अंदर हुआ वह दिखाता है कांग्रेस एक पार्टी नहीं समूह है. समूह का कोई अपना चहरा नहीं होता है. समूह की कोई अपनी विचारधारा नहीं होती है. हालात के हिसाब से लोग इकट्ठा होते हैं और मतलब के लिए भीड़ शक्ल लेती है. तो क्या आज राजस्थान में कांग्रेस एक समूह के रूप में लोगों के सामने है. जब लोगों को इस तरह के हालात देखेंगे तो क्या वह कांग्रेस की सरकार बनाना चाहेंगे. जिस तरह के दृश्य दिल्ली में कांग्रेस के वार रूम के बाहर से सामने आते रहे उससे कार्यकर्ता भी परेशान हो उठे. अशोक गहलोत कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी को मनाते हैं तो कभी सचिन पायलट को एक तरफ ले जाकर बातचीत करते हैं. लोग इन दृश्य को देखकर कहते हैं देखो गहलोत ने कैसी चौसर बिछाई है. जो डूडी और पायलट गहलोत के खिलाफ कान में बात करते थे आज गहलोत के हस्तक्षेप पर आमने-सामने बैठने के लिए तैयार हो रहे हैं. नामांकन की आखिरी तारीख 19 नवंबर है. 18 नवंबर तक कांग्रेस के नामों की पूरी सूची नहीं आ पाई यानी एक-एक सीट के लिए कांग्रेस के नेता आपस में लड़ हैं. जो कल तक वसुंधरा राजे के खिलाफ ताल ठोक रहे थे वो सब टिकट नहीं मिलने पर मैदान में उतर चुके हैं. दरअसल, कांग्रेस पार्टी से अलग हटकर नेताओं के भी अपने-अपने गुट हैं. या मतलब के नाम कार्यकरता नेताओं के नाम पर गुट बना लिए हैं. इसमें सचिन पायलट के अपने लोग हैं. अशोक गहलोत के अपने लोग हैं और रामेश्वर डूडी के भी अपने लोग हैं.
इन सब के जिम्मेदार यह तीनों नेता अकेले हैं ऐसा नहीं है, बल्कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी भी हैं. जब नेतृत्व कमजोर होता है तो उसके निर्णय लेने की क्षमता कमजोर होती है और जब निर्णय लेने की क्षमता कमजोर होती है तो परिस्थितियों को भाग्य के सहारे छोड़ देता है. सोचता है कि वक्त सब कुछ संभाल लेगा. कई बार ऐसा होता भी है कि घर के झगड़े को अगर नजरअंदाज किया जाए तो सुबह का झगड़ा शाम को खुद ही खत्म हो जाता है लेकिन दोपहर आते-आते अगर मामला बिगड़ जाए और खून बहने लगे तो फिर वापसी का कोई रास्ता नहीं बचता है. कहते हैं कि अशोक गहलोत रणनीति बनाने में माहिर हैं लेकिन और रणनीति किसके खिलाफ बना रहे हैं यह बड़ा सवाल है.
कांग्रेस के सचिन पायलट के बारे में उनके समर्थक कहते हैं उन्होंने 5 साल बहुत मेहनत की है और युवा नेता है, लेकिन अब मायने रखता है वो किसके खिलाफ मेहनत कर रहे हैं. गुजरात में जीत दिलाने वाले अशोक गहलोत की जिम्मेदारी राजस्थान में एक बार फिर से कांग्रेस की सरकार बनाने की थी. अशोक गहलोत सचिन पायलट को घेरने में लगे दिख रहे हैं. सचिन पायलट का पूरा फोकस अशोक गहलोत के लोगों को घेरने में है. कांग्रेस के उम्मीद्वारों की सूची देखकर एक घंटे से ज्यादा समय लग गया यह जानने में कि ये कौन है और कहां से आए है. कई उम्मीदवारों को तो सामने आकर यह कहना पड़ा कि हमें टिकट नहीं खरीदे हैं बल्कि हम राजस्थान कांग्रेस के सदस्य रहे हैं. कांग्रेस के जो नेता प्रदेश कांग्रेस का दफ्तर के अंदर सक्रिय थे वो रातों-रात राहुल गांधी के विवेक पर सवाल उठाने लगे हैं.
मेवाड़, मारवाड़ हो या फिर जयपुर हाड़ौती, बीकानेर हो या फिर भरतपुर संभाग, हर जगह ऐसे उम्मीदवार उतारे गए हैं उनके बारे में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को लोगों को घर जा कर बताना पड़ेगा कि इनका कांग्रेस से क्या रिश्ता रहा है. मानवेंद्र सिंह को जैसलमेर बाड़मेर की राजनीति में लेकर आया गया लेकिन मानवेंद्र से टिकट वितरण को लेकर पूछा तक नहीं गया. शिवाना सीट को लेकर ही लोग पूछ रहे हैं यह कौन है महेंद्र प्रताप सिंह. इसी तरह से जयपुर के आदर्श नगर सीट पर पूछ रहे हैं कि मोहम्मद राफीक कौन है दो बार हारने वालों का टिकट काट दिया गया और ऐसे उम्मीदवार को टिकट दिया गया जिनके पास कोई आधार नहीं है.
दो बार हारने वालों को टिकट नहीं देने के नियम की गली निकालने के लिए हारे हुओं की पत्नियों को टिकट थमा दिया है. झालावाड़ में ही वसुंधरा राजे को पिछले पांच सालों से नगर पालिका से लेकर विश्वविद्यालय तक का चुनाव हरवाने वाले स्थानीय उम्मीदवारों को दरकिनार कर दिया गया है. वहां मानवेंद्र सिंह नाम का भारी-भरकम पैराशूट से उतारा गया है जहां पर उन्हें कार्यकर्ताओं को समझने और खोजने में भी वक्त लगेगा. अब बड़ा सवाल उठता है कि आखिर कांग्रेस वापसी कर पाएगी. लोग कहते हैं कि कांग्रेस में इतना बड़ा विरोध हो रहा है ऐसे में कांग्रेस कैसे निकलेगी. सचिन पायलट को भरोसा है कि वह बागियों को मना लेंगे. उन्हें भरोसा दिलाएंगे कि कांग्रेस की सरकार आ रही है ऐसे में सरकार बनने पर उन्हें दूसरे पदों से नवाजा जाएगा इसलिए नाम वापस ले ले. लेकिन कांग्रेस को इस तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है.
कांग्रेस बीजेपी की तरह कैडरबेस नहीं रही है बल्कि मास बेस पार्टी रही है. कांग्रेस के कार्यकर्ता जनता को लेकर कम ही निकलते हैं. चुनाव हारने के बाद ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस कोई सबक सीखेगी लेकिन कांग्रेस को जैसे ही लगा कि वापसी की कोई उम्मीद है वह वापस अपने ढर्रे पर लौट आई है. कांग्रेस के नेताओं में बदलाव की चाहत खत्म हो गई है और शासन करने की जो आदत है वो विपक्ष में रहकर भी उनका खत्म नहीं हो रही है. यही वजह है कि इस बार उन्होंने बीजेपी की देखा देखी बूथ स्तर पर कारण कार्यक्रम तो कर लिए लेकिन जनता को बूथ तक ले जाने वाले कार्यकर्ता बूथ पर नहीं ढूंढ पाए. बूथ सम्मेलन टिकट चाहने वालों का शक्ति प्रदर्शन बनकर रह गया. कांग्रेस में जिसको चुनाव लड़ना है वो टिकट ले आए, खुद ही कार्यकर्ता ढूंढे और खुद ही चुनाव लड़ें. पार्टी का कोई लेना देना नहीं है. एक को टिकट मिलता है उस को हराने के लिए दस घर से निकल पड़ते हैं.
कांग्रेस महासचिव अशोक गहलोत को बड़ा रणनीतिकार भले ही माना जाता हो लेकिन जब आपका लक्ष्य छोटा हो जाए तो आपकी सोच भी छोटी हो जाती है. ऐसे में अशोक गहलोत को लगता है कि सचिन पायलट को घेरना ज्यादा जरूरी है. कांग्रेस के नेताओं के दिलो-दिमाग में पता नहीं कहां से ये बात बैठ गई है कि राज्य में कांग्रेस के पक्ष में 135 सीटों की लहर है, ऐसे में अगर 90 और 100 के बीच भी सीटें आ जाए तो हमारी सरकार बन जाएगी. लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा है कि अगर 10 सीटें कम आ जाएंगी तो सरकार बनाने का सपना ही रह जाएगा.
लोग नेताओं के झगड़े को देखकर अपने-अपने हिसाब से इन नेताओं की रणनीति के बारे में ख्याल बना रहे हैं और उसकी चर्चा भी कर रहे हैं. कहते हैं कि सचिन पायलट ने अशोक गहलोत से झगड़ा करने के चक्कर में अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है. अपने उम्मीदवारों को टिकट दिलाने के नाम पर सचिन पायलट ने ऐसे लोगों को आगे कर दिया जो चुनाव जीत नहीं सकते हैं, ऐसे में 120 और 130 की उम्मीद लगाए बैठी कांग्रेस को अगर 90-95 के आसपास सीटें आती है तो अशोक गहलोत फिर से मुख्यमंत्री बन सकते हैं और अशोक गहलोत के बिछाए जाल में सचिन पायलट फंस सकते हैं.
यह तो लोग चर्चा कर रहे हैं. सच नहीं है. कांग्रेस के नेता इसी तरह का प्लान शायद नहीं बना रहे हों लेकिन यह सच है कि राहुल गांधी ने जिस तरह से नेताओं को लड़ने के लिए छोड़ दिया है उससे सब यही सोच रहे हैं कि मुख्यमंत्री बनने का फैसला विधायक दल की बैठक में होगा और विधायक दल की बैठक में जिसके जितने विधायक रहेंगे उसको उतना समर्थन मिलेगा. इसलिए ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को टिकट दिलवा कर विधायक बनवाएं ताकि मुख्यमंत्री का चयन होने के साथ समय होने के समय उनका साथ मिले और यह रणनीति कांग्रेस के लिए आत्मघाती बन गई है.
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