राजस्थान (Ashok Gehlot) को लेकर कांग्रेस में मचे बवाल के बीच निशाने पर भारतीय जनता पार्टी ही है, लेकिन, असल बात तो ये है कि बीजेपी ने अभी तक कोई सक्रियता दिखायी ही नहीं है. कर्नाटक जैसी आग तो भूल ही जाइए, मध्य प्रदेश जैसा धुआं तक निकलता नजर नहीं आया है.
फिर भी महाराष्ट्र (ddhav Thaackeray) और झारखंड (Hemant Sonen) से रिएक्शन तो आ ही रहे हैं कि वहां भी सियासी भूकंप के झटके महसूस किये गये हैं, जबकि एपिसेंटर तो राजस्थान है - और वहां भी अगर कोई रिक्टर स्केल है तो बीजेपी की आक्रामकता न के बराबर ही लगती है.
हो सकता है बीजेपी की ऊपरी खामोशी किसी बड़े तूफान की तरफ इशारा कर रहा हो, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीतिक गतिविधियां और झारखंड में चल रही बयानबाजी - ये तो बता ही रहे हैं कि ये हरकतें दहशत के चलते ही हैं.
क्या बीजेपी की खामोशी भी डरावनी लगती है?
जुलाई, 2019 का कर्नाटक याद कीजिये. आम चुनाव बीत चुके थे. बीजेपी की सत्ता में वापसी भी हो चुकी थी. तभी बेंगलुरू से लेकर मुंबई तक कितनी घटनाएं एक साथ हो रही थीं. पर्दे के पीछे बीएस येदियुरप्पा सारी तैयारियां और तिकड़म आजमाये जा रहे थे और फील्ड में डीके शिवकुमार हर मोर्चे पर तैनात थे. जब सदन में विश्वास मत का वक्त आ गया तब भी वो सौदेबाजी करते वायरल वीडियो में देखे गये.
10 मार्च, 2020 को ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफा देने से पहले से ही मध्य प्रदेश में तूफान मच चुका था. सिंधिया की बीजेपी नेताओं से मुलाकात हो चुकी थी. मिलने वालों में शिवराज सिंह चौहान भी रहे. जब कुछ कांग्रेस विधायकों की होटल में बीजेपी नेताओं से मुलाकात हुई तो दिल्ली से लेकर भोपाल तक खलबली मच गयी. कर्नाटक वाले डीके शिवकुमार की तरह मैदान में दिग्विजय सिंह छाये रहे. और फिर कभी स्पीकर के अधिकारों के बूते तो कभी कोरोना के नाम पर कमलनाथ ने सारे दांव पेंच आजमा लिये, लेकिन हथियार डालने ही पड़े.
क्या राजस्थान में ऐसा कुछ दिखा है? पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे तो जयपुर भी नहीं आयीं - और न ही...
राजस्थान (Ashok Gehlot) को लेकर कांग्रेस में मचे बवाल के बीच निशाने पर भारतीय जनता पार्टी ही है, लेकिन, असल बात तो ये है कि बीजेपी ने अभी तक कोई सक्रियता दिखायी ही नहीं है. कर्नाटक जैसी आग तो भूल ही जाइए, मध्य प्रदेश जैसा धुआं तक निकलता नजर नहीं आया है.
फिर भी महाराष्ट्र (ddhav Thaackeray) और झारखंड (Hemant Sonen) से रिएक्शन तो आ ही रहे हैं कि वहां भी सियासी भूकंप के झटके महसूस किये गये हैं, जबकि एपिसेंटर तो राजस्थान है - और वहां भी अगर कोई रिक्टर स्केल है तो बीजेपी की आक्रामकता न के बराबर ही लगती है.
हो सकता है बीजेपी की ऊपरी खामोशी किसी बड़े तूफान की तरफ इशारा कर रहा हो, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीतिक गतिविधियां और झारखंड में चल रही बयानबाजी - ये तो बता ही रहे हैं कि ये हरकतें दहशत के चलते ही हैं.
क्या बीजेपी की खामोशी भी डरावनी लगती है?
जुलाई, 2019 का कर्नाटक याद कीजिये. आम चुनाव बीत चुके थे. बीजेपी की सत्ता में वापसी भी हो चुकी थी. तभी बेंगलुरू से लेकर मुंबई तक कितनी घटनाएं एक साथ हो रही थीं. पर्दे के पीछे बीएस येदियुरप्पा सारी तैयारियां और तिकड़म आजमाये जा रहे थे और फील्ड में डीके शिवकुमार हर मोर्चे पर तैनात थे. जब सदन में विश्वास मत का वक्त आ गया तब भी वो सौदेबाजी करते वायरल वीडियो में देखे गये.
10 मार्च, 2020 को ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफा देने से पहले से ही मध्य प्रदेश में तूफान मच चुका था. सिंधिया की बीजेपी नेताओं से मुलाकात हो चुकी थी. मिलने वालों में शिवराज सिंह चौहान भी रहे. जब कुछ कांग्रेस विधायकों की होटल में बीजेपी नेताओं से मुलाकात हुई तो दिल्ली से लेकर भोपाल तक खलबली मच गयी. कर्नाटक वाले डीके शिवकुमार की तरह मैदान में दिग्विजय सिंह छाये रहे. और फिर कभी स्पीकर के अधिकारों के बूते तो कभी कोरोना के नाम पर कमलनाथ ने सारे दांव पेंच आजमा लिये, लेकिन हथियार डालने ही पड़े.
क्या राजस्थान में ऐसा कुछ दिखा है? पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे तो जयपुर भी नहीं आयीं - और न ही कांग्रेस में मची उठापटक को लेकर रस्म निभाने वाले ट्वीट ही किये. बीजेपी नेता गजेंद्र सिंह शेखावत जरूर सक्रिय हैं और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष सतीश पुनिया भी चर्चाएं कर रहे हैं.
सवाल है कि जिस तरह येदियुरप्पा और शिवराज सिंह चौहान अपने अपने राज्यों में मौका देखते ही एक्टिव हो गये थे, वसुंधरा राजे ने क्यों दूरी बना रखी है?
कम से कम दो वजहें तो लगती ही हैं - एक, जिस तरफ सचिन पायलट इशारा कर रहे हैं और दो, वसुंधरा राजे और बीजेपी नेतृत्व मोदी-शाह के साथ रिश्तों में अब भी सामान्य स्थिति का बहाल न हो पाना.
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के साथ ही शिवराज सिंह के खिलाफ प्रचार किया था, लेकिन चुनाव बाद वैसी कोई चीज सामने नहीं आयी जैसी सचिन पायलट ने कही है. सचिन पायलट ने इंटरव्यू में वसुंधरा सरकार के अवैध माइनिंग के मामले पर अशोक गहलोत की चुप्पी पर सवाल उठाया है.
सचिन पायलट की बातों पर गौर करते हुए उसके राजनीतिक असर को लेकर सोचें तो ऐसा ही लगता है, जैसे वसुंधरा राजे को अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री तक बन जाने से भी कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन सचिन पायलट का बीजेपी ज्वाइन करना भी शायद उनको अच्छा न लगे.
अपने बीजेपी न ज्वाइन करने को लेकर दलीलों में सचिन पायलट कहते हैं, "हमने चुनाव में वसुंधरा राजे की सरकार के खिलाफ प्रचार किया, जिसमें अवैध माइनिंग का मसला था लेकिन सत्ता में आने के बाद अशोक गहलोत जी ने कुछ नहीं किया और उसी रास्ते पर चल पड़े. पिछले साल राजस्थान हाई कोर्ट ने एक पुराने फैसले को पलटते हुए वसुंधरा राजे को बंगला खाली करने को कहा, लेकिन अशोक गहलोत सरकार ने फैसले पर अमल करने की बजाय इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी."
सचिन पायलट ने साफ तौर पर कहा है कि अशोक गहलोत पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की मदद कर रहे हैं. फिर सोचिये, भला वसुंधरा राजे सचिन पायलट के बीजेपी ज्वाइन करने को लेकर क्यों उत्साहित हों. निश्चित तौर पर मध्य प्रदेश बीजेपी में सिंधिया के आने के बाद जो कुछ हो रहा है, वसुंधरा की भी नजर तो होगी ही.
हो सकता है वसुंधरा फिर से मुख्यमंत्री बन कर शिवराज सिंह जैसा हाल न कराना चाहती हों - जिसमें मंत्री कौन बनेगा से लेकर मंत्रियों के विभागों तक का बंटवारा भी जयपुर की जगह दिल्ली से ही होने लगे.
2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव तक वसुंधरा अपने मन की ही करती रहीं, दिल्ली का कोई भी दखल बर्दाश्त नहीं था. बीजेपी आलाकमान की तरफ से दो साल पहले जब केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेश बीजेपी की कमान देने की कोशिश हुई तो वसुंधरा राजे ने ऐसा होने ही नहीं दिया. बाद में सतीश पुनिया के नाम पर ही सहमति बन पायी थी. ये भी तो चर्चा रही ही है कि बीते दिनों में वसुंधरा राजे को दिल्ली बुलाने की सारी कोशिशें नाकाम रही हैं. शिवराज तो भोपाल छोड़ भी चुके थे, लेकिन वसुंधरा दिल्ली नहीं ही गयीं. हां, जयपुर भी एक तरीके से छोड़ ही दी हैं और धौलपुर में रहने लगी हैं.
महाराष्ट्र में फिर से कर्नाटक दोहराये जाने का तो मतलब भी नहीं बनता. येदियुरप्पा वाला शौक तो देवेंद्र फडणवीस, उद्धव ठाकरे के कुर्सी पर बैठने से पहले ही फरमा चुके हैं. सुना है नवंबर, 2019 के वाकये पर देवेंद्र फडणवीस किताब लिखने जा रहे हैं. कोरोना वायरस और दूसरे मामलों में महाविकास आघाड़ी सरकार के कामकाज को लेकर देवेंद्र फडणवीस आक्रामक तो देखे जाते हैं, लेकिन ये भी कहते हैं कि बीजेपी का सरकार को अस्थिर करने का कोई इरादा नहीं है. झारखंड में तो बीजेपी ने सार्वजनिक तौर पर ऐसा कुछ किया भी नहीं है. न रांची में न दिल्ली में - फिर भी दोनों ही राज्यों में सत्ता पक्ष की तरफ से 'ऑपरेशन लोटस' का डर महसूस किया जा रहा है.
महाराष्ट्र झारखंड और झारखंड सरकारों को किस बात का डर है?
बीजेपी ने तो नहीं, लेकिन केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले का कहना है कि आने वाले दो-तीने महीने में महाराष्ट्र में भी सियासी उथल-पुथल हो सकती है. रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष आठवले का दावा है कि राजस्थान के बाद महाराष्ट्र का नंबर आएगा और बीजेपी के नेतृत्व में सरकार बनेगी.
रामदास आठवले ने एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार को सलाह भी दी है, कहते हैं, 'अगर पवार साहेब देश का विकास और महाराष्ट्र के विकास के लिए केंद्र से और कोष चाहते हैं तो उन्हें नरेंद्र मोदी जी के समर्थन का फैसला लेना चाहिए - और उन्हें NDA में शामिल होने के बारे में सोचना चाहिये.'
झारखंड कांग्रेस के आरोपों का जवाब भी बीजेपी ने राजस्थान की तरह ही दिया है - और सलाह दी है कि बीजेपी पर उंगली उठाने से पहले कांग्रेस पहले अपने घर को संभाले. झारखंड में JMM के हेमंत सोरेन के नेतृत्व में गठबंधन सरकार है जिसमें कांग्रेस भी महाराष्ट्र की तरह ही शामिल है.
झारखंड प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रामेश्वर उरांव का आरोप है कि बीजेपी की तरफ से कांग्रेस के चार विधायकों को खरीदने की कोशिश की जा रही है. अशोक गहलोत की तरह ही, रामेश्वर उरांव का दावा है कि बीजेपी की ओर से कांग्रेस विधायकों को पद और पैसे का प्रलोभन दिया जा रहा है. रामेश्वर उरांव ने बताया है कि ये जानकारी वो कांग्रेस के झारखंड प्रभारी आरपीएन सिंह को दे चुके हैं. कांग्रेस के विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोपों को झारखंड बीजेपी अध्यक्ष दीपक प्रकाश ने आपत्तिजनक बताया है. दीपक प्रकाश का कहना है कि कांग्रेस को अपने विधायकों पर ही विश्वास नहीं है, इसलिए रामेश्वर उरांव ऐसे अनाप-शनाप बयान दे रहे हैं.
महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्धव ठाकरे जहां एक दूसरे से मुलाकात कर सरकार गिराने की साजिश की आशंका के मद्देनजर सक्रिय देखे जा रहे हैं, वहीं मुंबई कांग्रेस में चर्चा इस बात को लेकर है कि संजय निरुपम के खिलाफ एक्शन लिया जाना चाहिये. दरअसल, संजय निरूपम भी संजय झा की तरह सचिन पायलट के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं. कांग्रेस प्रवक्ता रहे संजय झा को तो सस्पेंड किया ही जा चुका है. शिवसेना छोड़ने के बाद संजय निरूपम मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं.
हाल ही में शिवसेना के मुखपत्र सामना में एनसीपी नेता शरद पवार का एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ था. शरद पवार ने कहा था कि महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार में सहयोगी पार्टियों के बीच और अधिक बातचीत करते रहने की जरूरत है. शरद पवार के इस बयान को काफी गंभीरता से लिया जा रहा है. शरद पवार ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से 6 जुलाई को तो मुलाकात की ही थी, एक बार फिर मिले हैं. शरद पवार से पहले महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष बालासाहब थोराट भी उद्धव ठाकरे से मुलाकात कर चुके हैं - और शरद पवार कह ही रहे हैं कि महाविकास आघाड़ी के नेताओं को बार बार और जल्दी जल्दी मिलते रहना चाहिये. साफ है शरद पवार को या तो अंदर की कोई खबर है या फिर खुद चौकान्ना रहते हुए सबको अलर्ट कर रहे हैं.
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