अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन (Ayodhya Ram Mandir Bhumi Pujan) कार्यक्रम एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में दर्ज हो चुका है. भूमि पूजन कार्यक्रम के दौरान महंत नृत्य गोपाल दास ने याद दिलाया कि सवाल पूछे जाते रहे कि जब केंद्र में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) प्रधानमंत्री हैं और यूपी में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं तो राम मंदिर अब नहीं तो कब बनेगा? अब ये सवाल हमेशा के लिए खत्म हो गया है क्योंकि मोदी और योगी ने साथ साथ राम मंदिर के भूमि पूजन कार्यक्रम को सम्पन्न करा दिया है. मौके पर मौजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत (RSS chief Mohan Bhagwat) ने भी संकल्प पूरा होने पर खुशी जतायी और कहा कि अब लोगों के मन में अयोध्या होनी चाहिये ताकि भारत दुनिया को नयी राह दिखा सके.
नींव पर ही इमारत खड़ी होती है. भूमि पूजन का कार्यक्रम भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक और नया मोड़ लेकर आया है. ये हिंदुत्व की राजनीति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव तो माना जा सकता है, लेकिन मंजिल नहीं क्योंकि वो अभी आगे है. कितना आगे, कहना तो मुश्किल है, लेकिन बहुत दूर भी नहीं लगता.
भूमि पूजन के ऐन पहले जिस तरीके से विपक्षी पार्टी कांग्रेस के कई नेताओं ने राम मंदिर के पक्ष में बयानबाजी की है, वो आजादी के बाद वाली सत्ता की सियासत का चक्र पूरा होने - और राजनीति के नयी दिशा में आगे बढ़ने का साफ संकेत दे रहा है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बरसों पुरानी राजनीतक परिकल्पना फलीभूत हो रही है. संघ विचारक केएन गोविंदाचार्य के नजरिये से देखें तो सत्ता की सेक्युलर और समाजवादी राजनीति पीछे छूट चुकी है. ये हिंदुत्व की राजनीति के गुजरते वक्त के साथ ज्यादा असरदार होने का सबूत है. सवाल है कि ये मौका हिंदुत्व की राजनीति की मंजिल है या कोई एक पड़ाव - देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल को देख कर तो ये महज एक पड़ाव ही लग रहा है और मंजिल अभी आगे है.
संघ का सपना पूरा होने को है क्या?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बरसों पहले एक सपना देखा था - लेकिन क्या...
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन (Ayodhya Ram Mandir Bhumi Pujan) कार्यक्रम एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में दर्ज हो चुका है. भूमि पूजन कार्यक्रम के दौरान महंत नृत्य गोपाल दास ने याद दिलाया कि सवाल पूछे जाते रहे कि जब केंद्र में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) प्रधानमंत्री हैं और यूपी में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं तो राम मंदिर अब नहीं तो कब बनेगा? अब ये सवाल हमेशा के लिए खत्म हो गया है क्योंकि मोदी और योगी ने साथ साथ राम मंदिर के भूमि पूजन कार्यक्रम को सम्पन्न करा दिया है. मौके पर मौजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत (RSS chief Mohan Bhagwat) ने भी संकल्प पूरा होने पर खुशी जतायी और कहा कि अब लोगों के मन में अयोध्या होनी चाहिये ताकि भारत दुनिया को नयी राह दिखा सके.
नींव पर ही इमारत खड़ी होती है. भूमि पूजन का कार्यक्रम भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक और नया मोड़ लेकर आया है. ये हिंदुत्व की राजनीति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव तो माना जा सकता है, लेकिन मंजिल नहीं क्योंकि वो अभी आगे है. कितना आगे, कहना तो मुश्किल है, लेकिन बहुत दूर भी नहीं लगता.
भूमि पूजन के ऐन पहले जिस तरीके से विपक्षी पार्टी कांग्रेस के कई नेताओं ने राम मंदिर के पक्ष में बयानबाजी की है, वो आजादी के बाद वाली सत्ता की सियासत का चक्र पूरा होने - और राजनीति के नयी दिशा में आगे बढ़ने का साफ संकेत दे रहा है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बरसों पुरानी राजनीतक परिकल्पना फलीभूत हो रही है. संघ विचारक केएन गोविंदाचार्य के नजरिये से देखें तो सत्ता की सेक्युलर और समाजवादी राजनीति पीछे छूट चुकी है. ये हिंदुत्व की राजनीति के गुजरते वक्त के साथ ज्यादा असरदार होने का सबूत है. सवाल है कि ये मौका हिंदुत्व की राजनीति की मंजिल है या कोई एक पड़ाव - देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल को देख कर तो ये महज एक पड़ाव ही लग रहा है और मंजिल अभी आगे है.
संघ का सपना पूरा होने को है क्या?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बरसों पहले एक सपना देखा था - लेकिन क्या वो अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण ही था?
संघ खुद को राजनीति से अलग करने की कोशिश करता है और अपना लक्ष्य राष्ट्र निर्माण बताता रहा है. धीरे धीरे संघ को महसूस होने लगा कि राष्ट्र निर्माण के लिए सामाजिक आंदोलन के साथ साथ राजनीतिक प्रभाव का होना भी बेहद जरूरी है. राजनीतिक मकसद साधने के लिए संघ ने जनसंघ से आगाज किया और जल्द ही उसे भारतीय जनता पार्टी का नाम दे दिया गया. संघ के राष्ट्रनिर्माण की थ्योरी एक अरसे तक संघर्ष करती रही. क्योंकि तब तक कम ही लोग जुड़ाव महसूस करते रहे. राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य को जब मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम के साथ जोड़ दिया गया तो उसमें जान आ गयी. फिर भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता के सफर को आसान बनाने के लिए अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण को अपना एजेंडा बना लिया. कार्यकारिणी में बाकायदा प्रस्ताव पारित हुआ और मुहिम शुरू हो गयी.
लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने संघ की थ्योरी को विस्तार दिया. 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने के बाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी को अपनी सरकार से तो हाथ धोना पड़ा लेकिन केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के लिए वही मजबूत बुनियाद भी बना. केंद्र में एनडीए की सरकार तो बनी, लेकिन बीजेपी को सहयोगी दलों के दबाव में चुनावी एजेंडे से मंदिर मुद्दे को हटाना पड़ा.
क्या वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र की सत्ता पर में बीजेपी का कब्जा भी संघ की नजर में एक अधूरा सपना ही रहा?
सिर्फ वाजपेयी सरकार ही क्यों - 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए के दोबारा सत्ता में पहुंचने के बाद भी चार साल तक राम मंदिर निर्माण को लेकर जिस तरह का राजनीतिक परहेज दिखा वो भी तो वैसा ही रहा. ये तो 2019 के आम चुनाव से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग को मुद्दे को उछाल दिया - और फिर हिंदू संगठनों और बीजेपी नेताओं के साथ साथ शिवसेना की तरफ से भी मंदिर निर्माण को लेकर बयानबाजी का दौर शुरू हो गया. देखते ही देखते सुप्रीम कोर्ट और उसके जजों को भी सवालों के घेरे में घसीटा जाने लगा - लेकिन चुनाव से ठीक पहले तय हु्आ कि राम मंदिर 2019 में चुनावी एजेंडा नहीं रहेगा. वो इसलिए भी क्योंकि पुलवामा हमला और उसके बाद बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर देश में राष्ट्रवादी राजनीति के पक्ष में जनमानस तैयार हो चुका था.
संघ, विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी का राम मंदिर को होल्ड कर लेने का फैसला भी सही साबित हुआ - 2019 के आम चुनाव मोदी लहर का चौतरफा असर दिखा जिसकी बदौलत बीजेपी तो बीजेपी उसके सहयोगी दल भी मिलकर पहले से ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब रहे.
निश्चित तौर पर संघ ने मोदी सरकार 2.0 को वाजपेयी सरकार से काफी आगे और सपने के बेहद करीब पाया होगा. 2014 से भी चार कदम आगे - और 2019 में मोदी सरकार के ताबड़तोड़ फैसले इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण बन रहे हैं.
जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म करने से लेकर नागरिकता संशोधन कानून तक, मोदी सरकार ने एक एक कर सारे चुनावी वादे पूरी कर डाले. धारा 370 खत्म करने का जश्न ऐसे मनाने का फैसला किया जो नया रिकॉर्ड ही कायम करे - 5 अगस्त, 2020 को राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन.
संघ की प्रेरणा से बनी मोदी सरकार पहली पारी में भविष्य का आधार बनाती रही. देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर संघ की पृष्ठभूमि के लोगों को धीरे धीरे करके बिठाया जाना - और दोबारा बहुमत की सरकार बनाने के बाद एक एक करके एजेंडा लागू करने की कोशिश.
जब तक देश का विपक्ष धारा 370 और दूसरे मुद्दों में उलझा रहा, लोग राम मंदिर निर्माण के इंतजार में लगे रहे - नयी शिक्षा नीति भी बन कर तैयार हुई और फिर लागू भी हो गयी. निश्चित तौर देश को एक व्यावहारिक और कारगर शिक्षा नीति की शिद्दत से जरूरत रही, लेकिन नयी शिक्षा नीति की खासियत पर आपने गौर किया?
मीडिया रिपोर्ट पर नजर डालें तो संघ की पृष्ठभूमि से जुड़े ज्यादातर लोगों ने खुले दिल से स्वीकार किया है कि नयी शिक्षा नीति में उनके ज्यादातर सुझाव मान लिये गये हैं - हालांकि, वे ये नहीं बता पाये कि उनके कौन से सुझाव नहीं माने गये हैं क्योंकि नयी शिक्षा नीति की खासियतें ही सामने आयी हैं. विस्तार से तो अभी कुछ मालूम हुआ नहीं है.
साफ है, संघ जिस तरह की शिक्षा नीति चाहता था वो भी लागू हो चुकी है - अब विपक्ष चाहे तो शिक्षा का भगवाकरण कहे या राम मंदिर के लिए भूमि पूजन से पहले जो रूख अख्तियार किया है, उससे भी पलट जाये कहा नहीं जा सकता. ऐसा इसलिए भी क्योंकि देश की राजनीति में हिंदुत्व ने जिस तरह की पैठ बना ली है, बाकियों के लिए जगह की गुंजाइश भी कम ही बच पा रही है.
संघ की उपलब्धियों की ये फेहरिस्त तो यही बता रही है कि अधूरे सपने की बातें बीते दिनों की यादों का हिस्सा भर हैं - राम मंदिर भूमि पूजन उस सपने का एक पड़ाव है और सफर मंजिल की तरफ आगे बढ़ चुका है.
संघ की मंजिल कितनी दूर है
बीजेपी की मंजिल तो मालूम है. बीजेपी अध्यक्ष रहते ही अमित शाह ने बताया भी था और कई बार दोहराया भी - बीजेपी के स्वर्णिम काल का मतलब पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक बीजेपी का कब्जा, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो बीजेपी की मातृ संस्था है, जाहिर है संघ की सोच बीजेपी से भी कहीं आगे की ही होगी.
राष्ट्र निर्माण की दिशा में राम मंदिर निर्माण के आगे क्या है?
राम मंदिर आंदोलन के प्रमुख किरदारों में से एक विनय कटियार कहते हैं कि अयोध्या आंदोलन तो पूरा हो गया, लेकिन मथुरा और काशी बाकी है. संघ प्रमुख मोहन भागवत इस बारे में पहले ही साफ कर चुके हैं कि मथुरा और काशी से संघ का कोई लेना देना नहीं है. मोहन भागवत ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद ही कह दिया था कि संघ अयोध्या आंदोलन से जुड़ा था और अब आगे ऐसे आंदोलनों को लेकर उसकी कोई योजना नहीं है.
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि संघ की मंजिल क्या है?
केएन गोविंदाचार्य की नजर में भारतीय राजनीतिक का मुख्य रंग अब हिंदुत्व हो गया है. 'धर्म निरपेक्षता' और 'समाजवाद' को गोविंदाचार्य अब राजनीति के केंद्रबिंदु नहीं मानने को तैयार हैं - और उनकी राय में ये सब हिंदुत्व की जड़ों की ओर लौटने का प्रतीक है.
हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए संघ ने नरम छवि वाले अटल बिहारी वाजपेयी और गरम मिजाज वाले लालकृष्ण आडवाणी को आगे किया. वाजपेयी ने संघ के एजेंडे को एक मुकाम तक पहुंचाया भी, आडवाणी चूक गये. 2009 में तो आडवाणी चूके ही, जिन्ना की मजार को देखते ही आडवाणी का जो भाव पक्ष उभरा वो संघ के इरादों पर पानी फेरने वाला ही नहीं, बल्कि मिट्टी में मिलाने वाला उसे महसूस हुआ. कट्टर हिंदुत्व वाले आडवाणी ने जैसे ही वाजपेयी बनने की चाहत में स्टैंड बदलने की कोशिश की, संघ ने मुख्यधारा से मक्खी की तरह निकाल कर हाशिये पर फेंक दिया - वरना, राम मंदिर आंदोलन के रथयात्री दूर कहीं विश्राम गृह से वर्चुअल कार्यक्रम नहीं देख रहे होता.
भूमि पूजन का मौका भारतीय राजनीति का वो टर्निंग प्वाइंट है जिसमें 'राजनीति में आडवाणी होना' मुहावरे के तौर पर याद किया जाने वाला है - और यही वजह है कि कभी आडवाणी की छत्रछाया में रहे नरेंद्र मोदी को संघ ने मिशन का पताका थमा दिया है.
आडवाणी की रथयात्रा के रूपरेखा तैयार करने वाले गोविंदाचार्य को तो वायपेयी काल में ही बीजेपी से बेदखल कर दिया गया था, लेकिन वो भी मानते हैं कि 'प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व को अपनाया और बदले में लोगों ने भी उनको स्वीकार किया' - और अब तो ये सिलसिला आगे ही नहीं बढ़ा बल्कि गति भी पकड़ चुका है.
वैसे भी हिंदुत्व की राजनीति की परिणति भी तो उसी दिशा में होगी - एक बार संघ के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को समझने की कोशिश कीजिये सारे सवालों के जवाब आसानी से मिल जाएंगे. आने वाले चुनावों के लिए नया नारा तो गढ़ा ही जा चुका होगा - 'मंदिर वहीं बनाये हैं', जल्द ही सुनने को मिल सकता है - हिंदू राष्ट्र बनाएंगे!'
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