इजिप्ट के फैरोअस ख़ुद को गॉड बताते थे. उस समय, कोई 5000 साल पहले, उनको इस कद्र पूजा जाता था कि उनके मरने के बाद भी उन्हीं के अगला जन्म लेकर आगे जनता को गाइड करना उनके जिम्मे होता था. ये काम नहीं, एक प्रकार की मौज थी जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी. पर मुद्दे की बात ये कि वो ख़ुद ही ख़ुद को भगवान बुलवाते थे. ज़र्सिज़ का ज़िक्र यूनान के ज़िक्र के साथ ज़रूर होता है. वो चौथा किंग था, वो भी अपने बाप की तरह राजा नहीं महान राजा कहलवाना पसंद करता था और उसको भी ये घमंड था कि वो वही भगवान है. जापानी शासकों ने भी ख़ुद को सिर्फ सम्राट नहीं बल्कि ख़ुदा घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. इतिहास की बहुत पुरानी परतें निकालो तो जानने को मिलता है कि जिसे भी लोगों ने ख़ुद से बढ़कर माना उसने ख़ुद को भगवान या नेक्स्ट टू भगवान घोषित कर लिया. द्वापर युग में एक समय श्रीकृष्ण (Lord Krishna) ने भी ये बताया कि वही नारायण हैं, उन्हीं में सबकुछ है. अंत-शुरुआत युद्ध-शान्ति सब उन्हीं से होकर निकला है और उन्हीं में समा रहा है. हालांकि उसका अर्थ अब समझ आता है कि वो हर नर में ही नारायण के बसे होने की बात कहते थे.
लेकिन त्रेतायुग के राजाराम के बारे में आप ख़ूब पढ़ें, आप पायेंगे कि उस वक़्त की सारी दुनिया ने उन्हें भगवान राम माना, दिव्यपुरुष, विष्णु अवतार से संबोधित किया लेकिन उन्होंने कभी ख़ुद के लिए ऐसा कोई अलंकर नहीं इस्तेमाल किया. बल्कि रामेश्वरम प्रसंग को आप याद करें कि कैसे उन्होंने अपना अराध्य शिव को माना और रामेश्वरम का सारा श्रेय भगवान शिव को दिया.
ये सौम्यता थी प्रभु राम की. ये थे राम जिनको आज भारत ही नहीं, इंडोनशिया, कम्बोडिया, थाईलैंड व ऐसे दर्जनों देशों में माना, पूजा जाता है; साक्षात् भगवान का दर्जा दिया जाता है पर उन्होंने ख़ुद अपने जीवन में कभी ये घमंड नहीं दिखाया कि वो सबसे ऊपर हैं. सिर्फ सीता के धरती में समाते वक़्त उनके क्रोध की सीमा लांघी और उन्होंने धरती पर कहर बरपाने की बात कही लेकिन तुरंत ही ब्रह्माजी के समझाने पर अपनी ग़लती जानी और बैकुंठ में सीता मिलने...
इजिप्ट के फैरोअस ख़ुद को गॉड बताते थे. उस समय, कोई 5000 साल पहले, उनको इस कद्र पूजा जाता था कि उनके मरने के बाद भी उन्हीं के अगला जन्म लेकर आगे जनता को गाइड करना उनके जिम्मे होता था. ये काम नहीं, एक प्रकार की मौज थी जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी. पर मुद्दे की बात ये कि वो ख़ुद ही ख़ुद को भगवान बुलवाते थे. ज़र्सिज़ का ज़िक्र यूनान के ज़िक्र के साथ ज़रूर होता है. वो चौथा किंग था, वो भी अपने बाप की तरह राजा नहीं महान राजा कहलवाना पसंद करता था और उसको भी ये घमंड था कि वो वही भगवान है. जापानी शासकों ने भी ख़ुद को सिर्फ सम्राट नहीं बल्कि ख़ुदा घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. इतिहास की बहुत पुरानी परतें निकालो तो जानने को मिलता है कि जिसे भी लोगों ने ख़ुद से बढ़कर माना उसने ख़ुद को भगवान या नेक्स्ट टू भगवान घोषित कर लिया. द्वापर युग में एक समय श्रीकृष्ण (Lord Krishna) ने भी ये बताया कि वही नारायण हैं, उन्हीं में सबकुछ है. अंत-शुरुआत युद्ध-शान्ति सब उन्हीं से होकर निकला है और उन्हीं में समा रहा है. हालांकि उसका अर्थ अब समझ आता है कि वो हर नर में ही नारायण के बसे होने की बात कहते थे.
लेकिन त्रेतायुग के राजाराम के बारे में आप ख़ूब पढ़ें, आप पायेंगे कि उस वक़्त की सारी दुनिया ने उन्हें भगवान राम माना, दिव्यपुरुष, विष्णु अवतार से संबोधित किया लेकिन उन्होंने कभी ख़ुद के लिए ऐसा कोई अलंकर नहीं इस्तेमाल किया. बल्कि रामेश्वरम प्रसंग को आप याद करें कि कैसे उन्होंने अपना अराध्य शिव को माना और रामेश्वरम का सारा श्रेय भगवान शिव को दिया.
ये सौम्यता थी प्रभु राम की. ये थे राम जिनको आज भारत ही नहीं, इंडोनशिया, कम्बोडिया, थाईलैंड व ऐसे दर्जनों देशों में माना, पूजा जाता है; साक्षात् भगवान का दर्जा दिया जाता है पर उन्होंने ख़ुद अपने जीवन में कभी ये घमंड नहीं दिखाया कि वो सबसे ऊपर हैं. सिर्फ सीता के धरती में समाते वक़्त उनके क्रोध की सीमा लांघी और उन्होंने धरती पर कहर बरपाने की बात कही लेकिन तुरंत ही ब्रह्माजी के समझाने पर अपनी ग़लती जानी और बैकुंठ में सीता मिलने की राह देख संतोष कर लिया.
ये होते हैं भगवान, जब आप शक्तिशाली होते हैं न तो आपको बताने की ज़रुरत नहीं पड़ती. राममंदिर के भूमिपूजन पर मुझे पूरी उम्मीद थी कि अपने समय के दो उग्र नेता रहे ‘नरेंद्र मोदी’ और योगी आदित्यनाथ’ कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर कहेंगे जिससे इनका घमंड बाहर निकलेगा, आख़िर करोड़ों लोगों की सैकड़ों सालों की तपस्या को छः वर्षों में पूरा किया है. घमंड तो बनता है लेकिन दोनों ने मुझे ग़लत साबित किया.
योगी जी ने सारा क्रेडिट पीएम और पूर्वजों की मेहनत को दे दिया और मोदी जी ने सबको साथ लेकर चलने के संकल्प पर ही फोकस रखा, सबकी भावनाओं का सम्मान ही सर्वोपरि समझा. उन्होंने राम नाम की महिमा भी गिनाई तो योगी जी ने बरसों की तपस्या का वर्णन किया पर मजाल है जो कहीं से एक बूंद भी घमंड निकलने दिया, न कतई नहीं. न ही किसी धर्म के ख़िलाफ़ कोई शब्द निकाला, न 1992 की या मीर बाक़ी की बात छेड़ी.
बस राम-नाम का वर्णन किया, राम-नाम की सौम्यता समझी. विश्व जीतने की बात की लेकिन किसी को हराकर नहीं, सबको साथ लेकर विश्व जीतने की बात की. दिल ख़ुश हो गया. मोदी, योगी, मोहन भागवत सरीखे लोग जो एक आवाज़ में क्या कुछ नहीं करवा सकते हैं, पर उन्होंने राम-नाम का जयकारा लगवाना चुना. उन्होंने गर्व करना चुना, घमंड को दूर रखा.
अब सोचिए कौन हैं आप? क्या ही हैसियत है आपकी जो आप इतना नंग नाच कर रहे हैं? अपनी ख़ुशी में ख़ुश होना अच्छा है, बहुत अच्छा है लेकिन छिछलेपन से बचा जा सकता है न? ऐसी हरकतों को क्यों ही करें जिससे राम-नाम बदनाम हो? जिससे ऐसा लगा कि हम अपनी ख़ुशी से नहीं, दूसरे के दुःख से ख़ुश हैं?
एक बात सरतला से समझिए. राम-मंदिर अब बना है इसका मतलब ये नहीं कि राम जी को घर अब मिला है. या अबतक रामलला टेंट में थे. नहीं! अबतक हमारी आस्था टेंट में थी. अब हमारी भक्ति को, हमारे विश्वास को एक घर मिला है. मंदिर मिला है उस मर्यादापुरुषोत्तम को स्मरण करने के लिए, हमें मिला है हमें, हमारी इतनी औकात नहीं हो सकती कि हम श्रीरामजी को घर दें.
अरे देने वाला ही वो है प्यारों, हम कौन होते हैं उसे देने वाले. ये मंदिर हमें मिला है. हमारी ख़ुशी के लिए, राम-नाम जपने के लिए. इसलिए राम के अर्थ को समझना जरूरी है. बाकी अंधविरोधियों से मेरी एक दरख्वास्त है, एक बार राम-नाम जपकर देखिए. ध्यान मग्न होकर जपिए. आपको शायद उर्जा न मिले क्योंकि आपकी आस्था नहीं है लेकिन इसी बहाने कम से कम आपकी ऊर्जा फ़ालतू कामों में नष्ट होने से तो बचेगी. सिया पति राम चन्द्र की जय.
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