चीन जब अपने परंपरागत दुश्मन जापान, रूस और सोवियत संघ के विघटित देशों समेत मंगोलिया जैसे छोटे देशों से सीमा विवाद को सुलझा सकता है तो आखिर क्या वजह है कि वह भारत के साथ सीमा विवाद को नहीं सुलझाना चाहता है. चीन-भारत सीमा विवाद को लोग समय-समय पर अलग-अलग नजरिए से देखते हुए इसकी वजह भौगोलिक और ऐतिहासिक बताते रहते हैं, मगर सच्चाई तो यह है कि मक्कार चीन दुनिया का ऐसा लाला है, जिसके तराजू में तिजारती पहलू जब भी कमजोर पड़ता है तो वह सरहद को सूदखोरी का हथियार बना लेता है.
भारत और चीन के संबंधों में तल्खी के नजरिए से आप देखेंगे तो चीन एक साम्राज्यवादी साम्यवादी सरकार नजर आएगी, जिसके अंदर सीमा विस्तार की भूख है और इंच-इंच बढ़ते हुए वह दूसरे मुल्कों की जमीनों पर कब्जा जमाना चाहता है. मगर शेर की खाल में सियार बने घूम रहे चीन की चालाक चालों को समझने के लिए हमें चीन की उन नीतियों पर गौर करना होगा, जब वह इतिहास में अपने तमाम आग्रहों और हठधर्मिता को छोड़ते हुए ऐसा चीन नजर आया, जिस को पहचानने में भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया भूल करती हुई आई है. देशकाल या परिस्थितियां कोई भी हो, एक खास धरती पर रहने वाले लोग अपने सुक्ष्म संस्कारों को कभी छोड़ते नहीं है. और चीनियों का मूल संस्कार व्यापार है. इसी व्यापार के इर्द-गिर्द इनकी सभ्यताएं रही हैं, इनकी साम्यवादी सरकारी रही हैं और इनकी विस्तारवादी नीतियां रही हैं. चीन एक ऐसा देश है, जिसने दुनिया का सबसे बड़ा मार्ग किसी भूभाग पर जीत के लिए नहीं, बल्कि व्यापार के लिए बनाया था, जिसे दुनिया सिल्क रूट के नाम से जानती है.
एक समय ऐसा भी था...
साल 2012 में मैंने नाथुला बॉर्डर का दौरा किया था. गंगटोक से नाथुला का सफर प्राकृतिक सौंदर्य के हिसाब से अद्वितीय था, मगर रास्ता नरकिए. जून के महीने में इतनी ठंड थी कि लोग वहां कांप रहे थे, मगर चीन और भारत की दोस्ती माहौल को गर्म रखे हुए थी. वहां पर आए टूरिस्ट चीन और भारतीय झंडे के बीच खड़े होकर कॉन्फ्रेंस रूम में तस्वीरें खिंचवा रहे थे. बहुत सारे लोग...
चीन जब अपने परंपरागत दुश्मन जापान, रूस और सोवियत संघ के विघटित देशों समेत मंगोलिया जैसे छोटे देशों से सीमा विवाद को सुलझा सकता है तो आखिर क्या वजह है कि वह भारत के साथ सीमा विवाद को नहीं सुलझाना चाहता है. चीन-भारत सीमा विवाद को लोग समय-समय पर अलग-अलग नजरिए से देखते हुए इसकी वजह भौगोलिक और ऐतिहासिक बताते रहते हैं, मगर सच्चाई तो यह है कि मक्कार चीन दुनिया का ऐसा लाला है, जिसके तराजू में तिजारती पहलू जब भी कमजोर पड़ता है तो वह सरहद को सूदखोरी का हथियार बना लेता है.
भारत और चीन के संबंधों में तल्खी के नजरिए से आप देखेंगे तो चीन एक साम्राज्यवादी साम्यवादी सरकार नजर आएगी, जिसके अंदर सीमा विस्तार की भूख है और इंच-इंच बढ़ते हुए वह दूसरे मुल्कों की जमीनों पर कब्जा जमाना चाहता है. मगर शेर की खाल में सियार बने घूम रहे चीन की चालाक चालों को समझने के लिए हमें चीन की उन नीतियों पर गौर करना होगा, जब वह इतिहास में अपने तमाम आग्रहों और हठधर्मिता को छोड़ते हुए ऐसा चीन नजर आया, जिस को पहचानने में भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया भूल करती हुई आई है. देशकाल या परिस्थितियां कोई भी हो, एक खास धरती पर रहने वाले लोग अपने सुक्ष्म संस्कारों को कभी छोड़ते नहीं है. और चीनियों का मूल संस्कार व्यापार है. इसी व्यापार के इर्द-गिर्द इनकी सभ्यताएं रही हैं, इनकी साम्यवादी सरकारी रही हैं और इनकी विस्तारवादी नीतियां रही हैं. चीन एक ऐसा देश है, जिसने दुनिया का सबसे बड़ा मार्ग किसी भूभाग पर जीत के लिए नहीं, बल्कि व्यापार के लिए बनाया था, जिसे दुनिया सिल्क रूट के नाम से जानती है.
एक समय ऐसा भी था...
साल 2012 में मैंने नाथुला बॉर्डर का दौरा किया था. गंगटोक से नाथुला का सफर प्राकृतिक सौंदर्य के हिसाब से अद्वितीय था, मगर रास्ता नरकिए. जून के महीने में इतनी ठंड थी कि लोग वहां कांप रहे थे, मगर चीन और भारत की दोस्ती माहौल को गर्म रखे हुए थी. वहां पर आए टूरिस्ट चीन और भारतीय झंडे के बीच खड़े होकर कॉन्फ्रेंस रूम में तस्वीरें खिंचवा रहे थे. बहुत सारे लोग अपने सैनिकों के अलावा चीनी सैनिकों के साथ भी फोटो खिंचवा रहे थे और जालियों के पीछे से चीनी सैनिक भारतीय नागरिकों से गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए तस्वीरों के लिए पोज दे रहे थे. देख कर ऐसा लग नहीं रहा था कि यह वही जगह है, जहां पर 1962 और 1975 में दोनों तरफ से इतने खून बहे थे कि सफेद बर्फ की चोटियां लाल हो गई थीं. वहां पर हमारे सैनिक निहत्थे ड्यूटी कर रहे थे. हमने पूछा तो सैनिकों ने बताया कि यहां पर बॉर्डर गार्ड ऐसे ही होता है. कौतूहल बस हमने जानना चाहा कि अगर आपस में कोई भिड़ंत हो जाए तो फिर क्या करोगे. उन्होंने कहा कि चीनी बदमाशी तो करते हैं, मगर खुद ही लौट भी जाते हैं. किसी रोज हमारी तरफ आकर बैठ जाते हैं और जब हम प्रोटेस्ट करते हैं तो वे पीछे हट जाते हैं.
चीन और भारत की सड़कों में फर्क इतना कि...
भारतीय सैनिकों ने कहा कि चीनियों से हमारे बीच बातचीत चलती रहती है. मगर एक फर्क हमने वहां देखा कि चीन की तरफ स्टील की चमचमाती हुई सड़क थी, जिस पर बर्फ जमते ही इलेक्ट्रिसिटी से बर्फ पिघल जाती है और पलक झपकते चीनी सैनिक बॉर्डर पर आ जाते हैं. मगर हमारी तरफ गंगटोक से नाथुला जाते वक्त अगर कोई मिट्टी ढह गई या पत्थर का टुकड़ा रास्ते में गिर गया तो 6 घंटे गाड़ी में बिताने पड़ते थे. टैक्सी ड्राइवर, जो रोजाना टूरिस्टों को गंगटोक से नाथुला लेकर आता था, उससे हमने पूछा कि हमारी तरफ सड़कें क्यों नहीं है और यहां कोई हेलीपैड क्यों नहीं है. उसका जवाब सुनकर मैं भौंचक्का रह गया. उसने कहा कि कहा जाता है कि हमारी यह सोच है कि अगर हम सड़क बना देंगे और हेलीपैड बना देंगे तो ऐसे में युद्ध हुआ तो चीनी आसानी से गैंगटोक तक आ जाएंगे. चीनी सीमा के आसपास इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की बात तो छोड़िए अगर हम 1962 से लेकर 2012 तक गंगटोक से नाथुला तक सड़क नहीं बना सकते हैं तो सत्ता में रही राजनीतिक पार्टियों को सवाल पूछने का हक नहीं होना चाहिए.
कभी सीमा पर बेहद शांति होती थी!
साल 2015 में हमने लद्दाख में लेह से लेकर पैंगोंग झील तक का दौरा किया, जहां पर आईटीबीपी और हमारे सैनिक तैनात थे. यहां भी लेह से लेकर पेंगोंग तक का सफर जितना सुहाना था, रास्ते उतने ही दयनीय थे. हाड़ कंपा देने वाली ठंड में फोटो खिंचवाने के लिए भी आंखों के अलावा शरीर पर लदे कपड़ों को हटाने की हिम्मत नहीं हुई. आईटीबीपी के कैंप में चाय पीते हुए हमने अपने सैनिकों से पूछा कि क्या चीनी इधर आते हैं तो उन्होंने कहा कि कभी मीटिंग के लिए आना हो तो आ जाते हैं, वैसे कभी पेट्रोलिंग के लिए नहीं आते. हम लोग ही अपनी सीमा की हिफाजत के लिए डटे रहते हैं. वैसे हमारी बातचीत अक्सर होती रहती है और यहां सीमा पर बेहद शांति है. अब सवाल उठता है कि पूरब में 2017 में डोकलाम और उत्तर में 2020 में गलवान घाटी में ऐसा क्या हुआ कि बर्फ पिघलने के मौसम में भारत चीन के संबंध जम गए.
चीन से साथ व्यापार अच्छा तो रिश्ते भी अच्छे, लेकिन...!
सूदखोर लाला चीन की हकीकत को हमें यही से समझना शुरू करना होगा. 2017 का वह दौर था, जब भारत ने यह एहसास किया कि हम चीन से 68.06 बिलियन यूएस डॉलर का आयात करते हैं, जबकि अमेरिका से 25.7 बिलियन डॉलर का आयात करते हैं. साल 2001 में हम चीन से 2.71 बिलियन यूएस डॉलर का व्यापार करते थे, जो कि 2016 आते-आते 70 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका था. साल 2001 में जब हम चीन के साथ अपने संबंधों की बुनियाद नए सिरे से रख रहे थे तब हम चीन को 0.92 बिलियन डालर का निर्यात करते थे और चीन से 1.83 बिलियन डॉलर का आयात करते थे, मगर 2016 आते-आते चीन हमें 60.48 बिलियन डॉलर का निर्यात करने लगा और हम मात्र 8.92 बिलियन डॉलर का चीन को निर्यात कर रहे थे.
हर संप्रभु देश को अपने आर्थिक हित की सुरक्षा करने का अधिकार होता है और भारत ने अपने व्यापार घाटे को कम करने के प्रयास शुरू किए. 2001 के बाद पहली बार मई 2017 में भारत चीन व्यापार का ग्रोथ अप्रैल 2017 के 64.75 फीसदी से घटकर सीधे 28.80 फीसदी पर आ गिरा. व्यापार गिरते हैं तो चीनियों को डोकलाम याद आया. जून 2017 में भारत-चीन व्यापार का ग्रोथ अब तक के सबसे निचले स्तर 16.67 फीसदी पर आ गिरा. व्यापार को औंधे मुंह गिरते देखते हुए चीन ने अपनी धौंस सेना के जरिये दिखाना शुरू कर दिया. सैन्य बल पर उसने भारत से बातचीत की शुरुआत की. बातचीत की शुरुआत होते ही चीन का भारत निर्यात बढ़ना शुरू हो गया और जून के 754 मिलियन डॉलर से निर्यात बढ़ते-बढ़ते अक्टूबर 2017 में 1224.6 मिलियन डॉलर तक पहुंच गया. अब चीन भी खुश था और डोकलाम विवाद भी खत्म हो गया.
व्यापार घाटे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा चीन
मगर भारत जैसे देश के लिए अपना हित देखना पहले जरूरी था ना कि चीनियों के लिए भारत को डंपिंग ग्राउंड बनने देना. भारत-चीन व्यापार में जनवरी 2020 का महीना बेहद निर्णायक साबित हुआ. भारत रिपब्लिक बैंक ऑफ चाइना, अलीबाबा और टेंसेंट जैसे चीनी विस्तारवादी कंपनियों के जरिये भारतीय कंपनियों में लगातार निवेश कर उनको खरीदने की चीन की साजिश को भांप गया, क्योंकि दुनिया के दूसरे देशों में चीन इन दिनों यही कर रहा था. चीन सूदखोर लाला बना हुआ था जो पहले पैसा देता था और फिर पैसे वापस नहीं मिलने के नाम पर कंपनियों को खरीद लेता था. जनवरी 2020 से भारत ने चीन पर लगाम कसना शुरू कर दिया. मार्च 2020 आते-आते भारत-चीन व्यापार घाटा अब तक के निम्नतम स्तर 1.6 बिलियन डॉलर पर आ गया था, जो कि भारत-चीन व्यापार संबंधों में सबसे बड़ी गिरावट थी. जनवरी 2018 में इसी दौरान 5.6 बिलियन डॉलर का भारत चीन के बीच व्यापार घाटा था. चीन से आयात 5 साल में सबसे ज्यादा पहली बार 50 बिलियन डॉलर से कम होकर 48.6 बिलियन डॉलर तक आ गिरा था.
सीमा विवाद के जरिये सौदा?
यह दौर था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एफडीआई नियमों में बदलाव कर चीनी कंपनियों को भारत में निवेश से रोकने का काम किया. यह दौर था, जब भारत के सबसे बड़े व्यापारिक संबंध वाले देश चीन को पीछे कर भारत-अमेरिका व्यापार नंबर वन पोजिशन पर चला गया. बौखलाए चीन को एक बार फिर से लद्दाख के बॉर्डर की याद आई, जहां पर 1962 के बाद से कभी चीनी पेट्रोलिंग करने के लिए भी नहीं आते थे. दरअसल, चीन की चिंता गलवान घाटी नहीं, बल्कि भारत के साथ उसका व्यापार घाटा है. भारत ने जनवरी से यह साफ करना शुरू कर दिया था कि चीन अब भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर नहीं रहा, बल्कि अमेरिका है. फरवरी में चीन के साथ भारत का व्यापार 87.7 मिलियन डॉलर था, जबकि अमेरिका के साथ 87.95 मिलियन डॉलर हो गया. भारत चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझाने के लिए लद्दाख में चीनी सेना के साथ मीटिंग कर रहा है, जबकि चीनी लाला भारत के साथ दिल्ली और बीजिंग में मीटिंग करना चाहता है. यकीन मानिए चीन का इतिहास रहा है कि उसे अपनी मातृभूमि से कोई लेना-देना नहीं है. वह प्रॉपर्टी डीलर है, जो पैसे कमाने के लिए सीमा विवाद का सौदा करता है.
चीन ने चली ऐसी-ऐसी चाल
चीन में जब रिपब्लिक ऑफ चाइना की साम्यवादी सरकार स्थापित हुई, तब एक तरफ भारत में नेहरू की लोकतांत्रिक समाजवादी सरकार थी तो दूसरी तरफ स्टालिन की अधिनायकवादी साम्यवादी सरकार. लाला चीन के पास दुकान खोलने के लिए जगह मिल नहीं रही थी, क्योंकि दोनों तरफ बाजारवाद विरोधी सरकार थी. हैरत की बात है कि विचारधारा के इतने करीब होने के बावजूद चीन और सोवियत संघ के बीच सीमा विवाद को लेकर झगड़े शुरू हो गए. वर्ष 1969 में तो इस माल को स्टालिन ने पैदा किया था. वह चीनी सैनिक को लेकर सोवियत संघ के बॉर्डर पर युद्ध के लिए पहुंच गया. दूसरी तरफ हिंदी-चीनी भाई-भाई की दोस्ती को दरकिनार कर माओ की रिपब्लिक ऑफ चाइना ने भारत से कभी अक्साई चीन तो कभी नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर पर अपना दावा ठोकने के लिए झगड़ना शुरू कर दिया. इस बीच सोवियत संघ और अमेरिका के बीच कोल्ड वॉर शुरू हो गया.
पड़ोस में चीन को ना कभी स्टालिन ने और ना ही ख्रुश्चेव ने सोवियत संघ के बाजार में पैर जमाने दिया. मौकापरस्त कार्ल मार्क्स का दत्तक पुत्र बनने वाला माओ दुकान खोलने की लालसा में पूंजीवादी अमेरिका की गोद में जा बैठा. अमेरिका को निर्गुट सम्मेलन की आवाज जवाहरलाल नेहरू और कोल्ड वॉर की दूसरी तरफ का नेता रूस को सबक सिखाने के लिए एक घर के भेदी की जरूरत थी, जिसकी पुर्ति लालची चीन करने लगा. यहां तक कि विचारधारा को ताक पर रखकर वियतनाम और अफगानिस्तान के कम्युनिस्ट सरकारों के खिलाफ पूंजीवादी अमेरिका खड़ा हो गया, ताकि उसका व्यापार फलता-फूलता रहे. धीरे-धीरे यह अमेरिका का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर बन गया. मगर अमेरिका बेहद चालाक देश है. अमेरिका ने चीन की महत्वाकांक्षा को भांप लिया और अपनी वित्तीय मदद सीमित कर दी.
चीन कभी दोस्त, कभी दुश्मन बनता रहा
1978 का वो दौर था, जब पूरी दुनिया घोर मंदी की गोद में समाए जा रही थी. सोवियत संघ के विघटन का बीजारोपण हो चुका था. भारत में गैर कांग्रेसी सरकार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बन चुकी थी. धूर्त लाला चीन ने समझ लिया यही वक्त है. चीन ने एक-एक कर अपने सभी पड़ोसियों से सीमा विवाद को सुलझाना शुरू किया और अगर नहीं सुलझा पाया तो विवाद को भूलना शुरू किया. भारत के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन पहुंचे तो जोरदार स्वागत हुआ. वर्ष 1979 में चीन ने दिल्ली में अपना डिप्लोमेटिक रिलेशनशिप एक बार फिर से शुरू किया. मगर 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी के साथ ही चीन का भारत में व्यापार शुरू करने का मंसूबा धरा रह गया. भारत-चीन संबंध वापस वही पहुंच गया, जहां इंदिरा गांधी के पहले के काल में 1967 और 1975 में था. सुमदोरूंग वैली को लेकर दोनों देश आमने-सामने हो गए. इंदिरा गांधी ने बड़े पैमाने पर चीन से लगते बॉर्डर पर इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाना शुरू कर दिया.
जापान को चीन ने ऐसा फंसाया कि दुनिया देखती रह गई
इस बीच 1978 तक जापान के साथ सेनकाकू द्वीप के लिए चीन युद्ध के मुहाने पर खड़ा था. मगर उसने तय किया कि मैरिटाइम विवादों को दरकिनार कर अमेरिका और जापान की आर्थिक धूरी में घुसना जरूरी है. ऐसे में चीन ने जापान के साथ ट्रिटी ऑफ पीस एंड फ्रेंडशिप बिटवीन जापान एंड पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना साइन किया. जापान पूर्वी महासागर के विवादित द्वीपों पर चीन का दावा छोड़ते हुए देख इतना खुश हुआ कि 2 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की मदद देनी शुरू कर दी. जापान को दुश्मन नंबर एक मानने वाले चीन के बहरूपिया चेहरे को जापान भांप नहीं पाया. लाला चीन ने जापान को ऐसे उलझाया कि जब तक जापान संभल पाता, जापान को नीचे धकेल कर चीन दुनिया के चौथे नंबर का आर्थिक महाशक्ति बन बैठा. साल 2012 आते-आते अमेरिका-जापान के सबसे मजबूत आर्थिक संबंधों को पीछे छोड़कर चीन-अमेरिका आर्थिक संबंध दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक संबंध बन गया. बौखलाए जापान ने विवादित द्वीपों का राष्ट्रीयकरण करना शुरू किया, मगर तब तक चीन अपनी चालें चल चुका था और जापान हाथ मलता रह गया. जापान के पैसे से ही चीन इतना आगे निकल चुका था कि जापान के गुस्से की उसने परवाह तक नहीं की.
चीन के झांसे से रूस भी नहीं बच सका
वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही चीन ने रूस के साथ अपने सीमा विवाद को खत्म करने की शुरुआत की. चीन का सबसे लंबा सीमा विवाद रूस के साथ ही मंचूरिया से लेकर साइबेरिया तक था. हर जगह चीन सोवियत संघ से लड़ता रहता था. इन सारे पड़ोसियों से एक साथ सीमा विवाद हल करने के पीछे चीन की कोशिश थी कि वह सोवियत संघ के खत्म होने के बाद अमेरिका से भी बड़ा दुनिया का दरोगा बने, जिसके लिए फौज से ज्यादा पैसे की जरूरत थी. चीन को जैसे ही साइबेरिया के तेल के कुओं का ठेका मिला, उसने सबसे पहले रूस के साथ 2001 में अपने सीमा विवाद को खत्म करने के लिए ट्रीटी ऑफ गुड नेबरलिनेस एंड फ्रेंडली कॉरपोरेशन साइन किया. अभी हालत यह है कि रूस और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर कोई समस्या नहीं है, क्योंकि रूस की पूरी इकॉमनी चीन के बिजनेसमैन संभाल रहे हैं.
1990 के बाद चीन के तेवर ही बदल गए
अब लौटते हैं भारत की ओर. भारत में नरसिम्हा राव की सरकार बनी तो बाजार के लिए भारत को पूरी तरह से खोल दिया गया. 1950 से लेकर अब तक चीन जिस इंतजार में बैठा था, वह घड़ी चीन के लिए आ गई थी. भारत का बाजार खुलते ही चीन झट से भारत में पधार गया और 1993 में भारत के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और चीन के प्रीमियर ली पेंग के बीच बॉर्डर एग्रीमेंट हुआ, जिसके अंतर्गत क्रॉस बॉर्डर ट्रेड और कॉर्पोरेशन की संधि पर हस्ताक्षर हुए. चीन भारत में पैर पसारने के लिए इतना आतुर था कि सारी दुश्मनी भुलाकर 1993 में चीनी सेना ने कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर के तहत भारत का दौरा किया. यह दौर था जब भारत और चीन का व्यापार जन्म लिया था और ऐसा लग रहा था कि दोनों देशों में सोहर (बच्चा पैदा होने पर गाए जाने वाला गीत) गाया जा रहा है.
जनवरी 1994 में तो चीन ने अपने परंपरागत दोस्त पाकिस्तान को सदमा देते हुए यहां तक कह दिया कि कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान आपसी बातचीत से समस्या का हल करें और कश्मीर की स्वतंत्रता की मांगें मानने लायक नहीं है. फरवरी में चीन के साथ बैठक हुई तो उसमें यह फैसला किया गया कि भारत और चीन के सैनिक सीमा पर अपने सैनिकों की संख्या कम करेंगे. युद्ध अभ्यास के लिए पहले से एक दूसरे देश को सूचनाएं देंगे. इधर व्यापार बढ़ता जा रहा था उधर लाला चीन उदार होता जा रहा था. 1995 में चीन इस बात पर राजी हो गया कि 4000 किलोमीटर की दूरी तक फैले सीमा पर दो पोस्ट बनाए जाएं, जहां पर भारत और चीन के सैन्य अधिकारी साप्ताहिक रूप से बैठकर कर छोटी-छोटी समस्याओं को निपटाते रहें. जिस ताइवान का नाम सुनते ही चीन आग बबूला हो जाता है उस ताइवान को भारत ने 1995 में ताइपे इकोनॉमिक एंड कल्चरल सेंटर खोलने की इजाजत दे दी, मगर चीन ने अनदेखा कर दिया.
बड़ी-बड़ी घटना घटी, लेकिन चीन शांत रहा, पर?
साल 1998 के भारत के परमाणु विस्फोट पर भी चीन ने ऐसे विरोध जताया, जैसे रस्म तो पूरी हो जाए मगर व्यापार ना रुके. 1999 में कारगिल युद्ध में तो भारत को खुश करने के लिए पाकिस्तान से सेना को पीछे हटाने तक को कह दिया. सन 2000 में जब चीन की तरफ से तैयार किए गए 17वें करमापा उग्ने त्रिन्ले दोरजे सिक्किम के रूम टेक मोनेस्ट्री में भाग कर आए तो ऐसा लगा कि अब चीन और भारत के संबंध खराब होंगे, मगर हर कोई आश्चर्य में रह गया, जब 2003 में चीन ने पहली बार आधिकारिक रूप से सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया. साल 2006 में तो नाथू ला बॉर्डर को भारत चीन व्यापार के लिए खोल दिया गया. यह 44 साल बाद हो रहा था और यह भी पहली बार हो रहा था कि भारत-अमेरिका व्यापार को पछाड़कर चीन और भारत का व्यापार 10 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था.
लाला चीन इतना खुश हुआ कि जब चीनी राष्ट्रपति वेन जियाबाओ बेंगलुरु पहुंचे तो संयुक्त राष्ट्र में भारत के सुरक्षा काउंसिल में स्थायी सदस्यता के लिए मदद करने की बात तक कह दी. तब व्यापारी वेन जियाबाओ चीन के 400 उद्योगपतियों के साथ भारत आए था. साल 2011 आते-आते चीन 73 बिलियन डॉलर के व्यापार के साथ भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बन चुका था और इसका परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान को धता बताते हुए और लद्दाख पर अपना दावा भूलते हुए जम्मू-कश्मीर के लिए स्टेपल वीजा का प्रावधान चीन ने खत्म कर दिया. यही वह साल था जब भारत और चीन की सेनाएं आपस में एक साथ युद्धाभ्यास भी करनी शुरू कर दी थी. भारत ने चीन के शहरों तक मार करने वाले अग्नि 5 मिसाइल का परीक्षण किया, तब भी लाला चीन ने अपने मुंह पर ताला लगाए रखा. साल 2012 में तो चीन ने यहां तक कह दिया कि भारत और चीन की दोस्ती इस शताब्दी की सबसे महान द्विपक्षीय समझौता है.
चीन मांगे मोर, देश कर रहा शोर
इसके बाद की कहानी तो आप जानते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ आकर अहमदाबाद में साबरमती के तट पर झूला भी झूले. चीनी राष्ट्रपति ने अपने व्यापार को बचाने की आखिरी कोशिश दोबारा महाबलीपुरम में आकर की. तब चालाक चीन चोल वंश के समय रहे व्यापारिक संबंधों को एक बार फिर से स्थापित करने के लिए चोला बदल कर आया था. फिलहाल हम 1962 में नहीं लौटे हैं, मगर इंदिरा गांधी के समय के चीन-भारत के तल्ख रिश्तों की यादें ताजा हो गई हैं. मैं अपने पहले के लेख में कई बार यह बता चुका हूं कि नरेंद्र मोदी शासन करने की किताब इंदिरा गांधी वाली खोल कर बैठे हैं. यह जरूरी भी है कि हम चीन को कभी भी आर्थिक रूप से भारत को एशिया के दूसरे देशों की तरह गुलाम बनाने नहीं दें.
इंदिरा गांधी के दौर के बाद पहली बार भारत चीन सीमा पर इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने पर जोर दे रहा है. भारत के पास इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास दो ही विकल्प हैं- एक तो भारत को आत्मनिर्भर बनाएं या फिर चीन के अलावा दूसरे देशों पर व्यापार के लिए हम निर्भर रहें और दूसरा जल्दी से जल्दी बॉर्डर इंफ्रास्ट्रक्चर और सामरिक मजबूती पर ध्यान दें. बहुत सारे लोग चीन से संबंधों को सुधारने पर ध्यान देने की बात करते हैं. शांति में विश्वास करने वाले लोगों को यह कहना लाजिम लगता है, मगर चीन से समझौते का मतलब है उसके लिए अपने बाजार को खोलना. चीन से बॉर्डर एग्रीमेंट का मतलब होता है बॉर्डर ट्रेड एग्रीमेंट. पूरी दुनिया के साथ उसने यही किया है और यही कर रहा है. भारत के साथ भी यही करना चाहता है. मगर चीन को अब यह समझाने का वक्त आ गया है कि व्यापार के घाटे से निकलने का रास्ता गलवान घाटी से होकर नहीं निकलता है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.