श्रीलंका में आर्थिक संकट हर बीते दिन के साथ गहराता जा रहा है. आसमान छूती महंगाई से लोग देश छोड़कर भागने को मजबूर हो रहे हैं. हाल ही में कुछ श्रीलंकाई तमिल नागरिक अपनी जान जोखिम में डालकर नाव से अपना देश छोड़ भारत आए हैं. श्रीलंका में सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन बढ़ते जा रहे हैं. वहीं, श्रीलंका को आर्थिक संकट में सहारा देने के लिए इसी महाने भारत ने 1 अरब डॉलर के एक और कर्ज का ऐलान किया है. इस घोषणा के साथ कोलंबो और दिल्ली के बीच चीन की वजह आई दूरियां कम होने की संभावना जताई जा रही है. लेकिन, तमाम कोशिशों के बावजूद भी श्रीलंका पर विदेशी कर्ज बढ़ता जा रहा है. और, कर्ज के इस जाल में श्रीलंका के फंसने की वजह कोरोना महामारी से इतर चीन भी रहा है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो चीन ने अपने कर्ज जाल में श्रीलंका को इस कदर उलझा लिया है कि अब वहां की राजपक्षे सरकार को देश बचाने का रास्ता ही नजर नहीं आ रहा है. आइए जानते हैं कि कैसे चीनी ड्रैगन ने धीरे-धीरे श्रीलंका को निगल लिया...
चीन की कर्ज देने की नीति
कोरोना महामारी के चीन से ही दुनियाभर में फैलने को लेकर भले ही शी जिनपिंग सरकार और चीनी मीडिया नकारे. लेकिन, कई देशों और वैज्ञानिकों से इसे साबित किया है कि चीन ने कोरोना महामारी फैलने के सबूत मिटाने के लिए ही लंबे समय तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैज्ञानिकों को वुहान में एंट्री नही दी. खैर, कोरोना महामारी ने मध्य, निम्न और गरीब देशों की कमर तोड़ दी. जिससे चीन को दुनिया में तेजी से पैर पसारने का मौका मिला. खुद को विश्व की महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने के लिए चीन किसी भी देश को आसानी से कर्ज दे देता है. पाकिस्तान,...
श्रीलंका में आर्थिक संकट हर बीते दिन के साथ गहराता जा रहा है. आसमान छूती महंगाई से लोग देश छोड़कर भागने को मजबूर हो रहे हैं. हाल ही में कुछ श्रीलंकाई तमिल नागरिक अपनी जान जोखिम में डालकर नाव से अपना देश छोड़ भारत आए हैं. श्रीलंका में सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन बढ़ते जा रहे हैं. वहीं, श्रीलंका को आर्थिक संकट में सहारा देने के लिए इसी महाने भारत ने 1 अरब डॉलर के एक और कर्ज का ऐलान किया है. इस घोषणा के साथ कोलंबो और दिल्ली के बीच चीन की वजह आई दूरियां कम होने की संभावना जताई जा रही है. लेकिन, तमाम कोशिशों के बावजूद भी श्रीलंका पर विदेशी कर्ज बढ़ता जा रहा है. और, कर्ज के इस जाल में श्रीलंका के फंसने की वजह कोरोना महामारी से इतर चीन भी रहा है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो चीन ने अपने कर्ज जाल में श्रीलंका को इस कदर उलझा लिया है कि अब वहां की राजपक्षे सरकार को देश बचाने का रास्ता ही नजर नहीं आ रहा है. आइए जानते हैं कि कैसे चीनी ड्रैगन ने धीरे-धीरे श्रीलंका को निगल लिया...
चीन की कर्ज देने की नीति
कोरोना महामारी के चीन से ही दुनियाभर में फैलने को लेकर भले ही शी जिनपिंग सरकार और चीनी मीडिया नकारे. लेकिन, कई देशों और वैज्ञानिकों से इसे साबित किया है कि चीन ने कोरोना महामारी फैलने के सबूत मिटाने के लिए ही लंबे समय तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैज्ञानिकों को वुहान में एंट्री नही दी. खैर, कोरोना महामारी ने मध्य, निम्न और गरीब देशों की कमर तोड़ दी. जिससे चीन को दुनिया में तेजी से पैर पसारने का मौका मिला. खुद को विश्व की महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने के लिए चीन किसी भी देश को आसानी से कर्ज दे देता है. पाकिस्तान, किर्गिस्तान, पूर्वी अफ्रीका समेत कई देशों में स्थानीय विकास के नाम पर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट के जरिये चीन ने निवेश कर रखा है. वहीं, चीन की ओर से उपलब्ध कराए जाने वाले पैसों पर ब्याज दर ज्यादा होती है. तो, समय से कर्ज न चुकाए जाने पर पूरा का पूरा प्रोजेक्ट ही चीन निगल जाता है.
दरअसल, चीन की ओर से दिया जाने वाला कर्ज इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर खनन तक की तमाम योजनाएं में निवेश के तौर पर दिया जाता है. तो, इसे ट्रेस करना आसान नहीं होता है. माना जाता है कि कर्ज समय से न चुका पाने की स्थिति में देशों को मजबूरन चीन के सामने घुटने टेकने पड़ते हैं. पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश इसका बेहतरीन उदाहरण माने जा सकते हैं. जहां चीन ने निवेश के जरिये राजनीति तक में अपना दखल बना लिया है. हालांकि, चीन इन आरोपों को हमेशा से नकारता रहा है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के ड्रीम प्रोजेक्ट 'बेल्ट एंड रोड इनशिएटिव' के तहत दिए जाने वाले कर्ज का जाल अफगानिस्तान तक पहुंच चुका है. वहीं, श्रीलंका को चीन ने हिंद महासागर में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया.
श्रीलंका भी हुआ इसी चाल का शिकार
चीन पर हमेशा से आरोप लगता रहा है कि कर्ज न चुका पाने वाले देशों की जमीन पर वह अपना कब्जा कर लेता है. पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का निर्माण इसका उदाहरण है. वहीं, श्रीलंका भी चीन की इसी चाल का शिकार हुआ. श्रीलंका ने चीनी निवेश की मदद से हंबनटोटा में बंदरगाह परियोजना को पूरा करने का ख्वाब देखा था. लेकिन, चीन ने हंबनटोटा में अरबों डॉलर का निवेश किया और श्रीलंका सरकार को अन्य परियोजनाओं के लिए भी पैसा उपलब्ध कराया. श्रीलंका की सरकार चीन के इस कर्ज जाल में ऐसी फंसी की 2017 में हंबनटोटा बंदरगाह के 99 साल की लीज पर मिलने के बाद ही इस पर फिर से काम शुरू हुआ. हंबनटोटा बंदरगाह के लीज पर मिलने से चीन का सीधे तौर पर इस कब्जा नहीं माना जा सकता है. लेकिन, देखा जाए, तो यह एक तरह से चीन के कब्जे में आ चुका है.
बीते साल श्रीलंका ने 'कोलंबो पोर्ट सिटी इकोनॉमिक कमीशन बिल' पास किया था. इस बिल के तहत कोलंबो में भी बंदरगाह बनाने के लिए चीनी कंपनियों को 269 हेक्टेयर जमीन दी गई है. और, जैसे हालात आज श्रीलंका के हैं, उसे देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि ये जमीन भी श्रीलंका के हाथ से निकल ही जाएगी. दरअसल, श्रीलंका पर चीन का करीब 5 अरब डॉलर कर्ज है. श्रीलंका आर्थिक संकट से निकलने के लिए भारत और जापान से भी कर्ज ले रहा है. वहीं, श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार भी तेजी से गिर रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार न्यूनतन स्तर पर पहुंचता जा रहा है. और, श्रीलंका के गोल्ड रिजर्व का 54.1 फीसदी हिस्सा भी विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत करने के लिए बेचा जा चुका है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो श्रीलंका दिवालिया होने की कगार पर आ खड़ा हुआ है.
भारत में शरणार्थी संकट का खतरा
श्रीलंका में नागरिकों की एक बड़ी संख्या तमिल भाषी है. संभावना जताई जा रही है कि जैसे-जैसे श्रीलंका में हालात खराब होंगे, वहां से इन लोगों का पलायन होना शुरू हो जाएगा. और, इन लोगों के सामने भारत के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. और, इस स्थिति में भारत के सामने शरणार्थी संकट खड़ा होने का खतरा पैदा हो सकता है. श्रीलंका को भारत और जापान देशों की बजाय चीन की गोद में जाकर बैठना अब महंगा पड़ रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें, तो श्रीलंका को अगले 12 महीने में विदेशी सरकारों और राष्ट्रीय बैंकों का 7.3 बिलियन डॉलर का कर्ज चुकाना है. जबकि, श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार 1 अरब डॉलर ही रह गया है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कर्ज चुकाते-चुकाते जल्द ही श्रीलंका की कमर टूट जाएगी. वहां के हालात और ज्यादा बिगड़ सकते हैं. क्योंकि, पर्यटन से लेकर तमाम व्यापार-उद्योग जिनसे विदेशी मुद्रा श्रीलंका में आती थी, उन पर संकट मंडरा रहा है.
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