सपा-बसपा गठबंधन को प्रेमपूर्वक तोड़ते और भतीजे अखिलेश काे ‘अपना घर मजबूत करने की नसीहत’ देते हुये मायावती ने उपचुनाव लड़ने का ऐलान किया है. गठबंधन के चुनावी नतीजों से बेहद मायूस मायावती ने ‘एकला चालो रे’ की राह पकड़ी है, इसमें शायद ही किसी को ताज्जुब हुआ हो. क्योंकि इस गठबंधन के अल्पायु होने का अंदाजा हर खासो-आम को पहले से ही था. ताज्जुब तो इस बात को लेकर है कि बसपा उपचुनाव लड़ेगी! मायावती के राजनीतिक जीवन में यह शायद पहला ऐसा अवसर होगा जब ऐलानिया तौर पर बसपा उपचुनाव लड़ने जा रही है. ऐसे में कई सवाल एक साथ जहन में आते हैं कि ऐसी क्या वजह है या ऐसे कौन से हालात हैं कि बसपा को उप चुनाव के मैदान में उतरना पड़ रहा है.
सवाल यह है कि क्या मायावती उपचुनाव के जरिये अपने वोटरों को कोई संदेश देना चाहती हैं-
1. क्या मायावती अपने वोट बैंक की जमीनी हकीकत और ताकत को फिर एक बार परखना चाहती हैं?
2. क्या मायावती 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले दलित मुस्लिम या फिर दलित-ब्राहम्ण की सोशल इंजीनियरिंग का लिटमस टेस्ट करना चाहती हैं?
3. क्या मायावती 2022 के विधानसभा चुनाव का रोड मैप उपचुनाव के नतीजों के मार्फत तय करना चाहती हैं?
4. क्या मायावती उपचुनाव लड़कर यह बताना चाहती हैं कि यूपी में बीजेपी से वो ही लोहा ले सकती हैं?
5. क्या उपचुनाव के माध्यम से मायावती 2022 के चुनाव में मुख्यमंत्री पद की अपनी दावेदारी को पक्का करना चाहती हैं?
क्या मायावती अपने वोट बैंक की जमीनी हकीकत और ताकत को फिर एक बार परखना चाहती हैं?
इन तमाम सवालों का माकूल व तसल्लीबख्श जवाब तो आने वाला वक्त ही देगा, फिलवक्त यूपी के राजनीतिक गलियारों में ये तमाम सवाल हवा में तैर रहे हैं. मायावती भले ही गठबंधन तोड़ने के दस बहाने गिनाएं, सच्चाई यह है कि गठबंधन की बदौलत ही वो शून्य से दस के आंकड़े को छू पाई हैं. अब यादव वोट ट्रांसफर हुआ या नहीं ये तो लंबी बहस का विषय है.
2012 के यूपी विधानसभा चुनाव के बाद से प्रदेश व देश की राजनीति में लगातार पिछड़ रही बसपा के लिये लोकसभा चुनाव के नतीजे थोड़ा सुकून लेकर आये हैं. इतिहास के पन्ने पलटे तो वर्ष 1990-91 के बाद से ही बसपा ने अपने वोट बैंक में धीरे-धीरे ही सही लेकिन इजाफा किया है. 1995, 1996 और 2002 में मायावती ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई. तभी उनको एहसास हुआ कि उन्हें अपना वोट बैंक दलित और मुसलमानों से इतर भी बढ़ाना पड़ेगा. तब उन्होंने सर्वजन समाज की बात की और सवर्णों को अपनी पार्टी में न सिर्फ शामिल किया बल्कि उन्हें पार्टी व सरकार में अहम जिम्मेदारियां व ओहदे भी बख्शे.
मायावती की सर्वजन समाज की नीति का नतीजा 2007 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला, जब बसपा को 30.43 प्रतिशत वोट मिले. उसने 403 में से 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत पाया. लेकिन इस बीच 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश की 80 में से 20 सीटें मिलीं. वोट प्रतिशत लगभग 3 फीसदी गिरा और 27.20 फीसदी पर आ गया. 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी. मायावती का मत प्रतिशत 25.95 प्रतिशत रह गया. माना गया कि सवर्ण धीरे-धीरे मायावती का साथ छोड़ रहे हैं. समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान मुस्लिमों ने भी बसपा का साथ छोड़कर सपा का दामन थामना उचित समझा. नतीजा 2014 के लोकसभा चुनाव में दिखा जब वो शून्य पर आउट हो गई. बसपा को 19.77 फीसदी मत हासिल हुए.
2014 के लोकसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा कोई बड़ा चमत्कार नहीं कर सकी. उसे 19 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. बसपा के लिए तसल्ली की बात यह रही कि उसका वोट बैंक लगभग ढाई फीसदी बढकर 22.23 फीसदी हो गया. विधानसभा चुनाव में लचर प्रदर्शन के बाद यह कयास लगने लगे कि अब मायावती का जादू खत्म हो गया है. उनकी राजनीति में आई गिरावट अब एक स्थाई रूप धारण कर चुकी है. यह समझने वाले राजनीतिक पंडितों ने संभवतः एक महत्वपूर्ण बात नजरअंदाज कर दी कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बसपा ने मोदी आंधी के बावजूद अपना आधार वोट बैंक बचाने में कामयाबा रही थी.
पिछले एक दशक से बसपा का 19 फीसदी का बेस वोट बैंक मायावती के साथ चट्टान की तरह खड़ा है
यूपी विधानसभा चुनाव के बाद से ही मायावती ने फूंक-फूंककर कदम रखे और बड़ी होशियारी से सपा के दोस्ती के प्रस्ताव को अपनी शर्तों और मनमुताबिक हरी झंडी दी. लोकसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयरिंग 19.26 फीसदी रही. 2017 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले यह मोटे तौर पर 3 फीसदी कम है, लेकिन वो 10 सीटें जीतने में कामयाब रही.
पिछले एक दशक से बसपा का चुनावी प्रदर्शन देखें तो हर उतार-चढ़ाव और लहर के बावजूद लगभग 19 फीसदी का बेस वोट बैंक मायावती के साथ चट्टान की तरह खड़ा है. और यही वोट बैंक मायावती की पूंजी हैं और यही उनकी मजबूती का कारण भी है. सपा से चतुराई पूर्वक गठबंधन का लाभ उठाकर मायावती ने देश व प्रदेश की राजनीति में फिर एक बार खुद को ‘पुर्नस्थापित’ कर लिया है.
बसपा ने पहले कभी किसी उपचुनाव में हिस्सा नहीं लिया. 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद प्रदेश में 11 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में बसपा ने सीटवार निर्दलीय उम्मीदवारों का समर्थन किया था. बसपा की गैरमौजूदगी और निर्दलीयों का समर्थन करने के मायावती के फरमान से उपजे हालात में दलित समाज खासकर युवाओं ने उपचुनाव में दूसरे राजनीतिक दलों को वोट करके संकेत दिये थे कि अब वे बसपा के बंधुआ वोटर नहीं हैं. इस चुनाव में सपा ने बसपा के मजबूत वोट बैंक में सेंध लगाकर 11 में से 7 सीटों पर विजय पताका फहराई थी.
2017 के विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश में लोकसभा तीन गोरखपरु, फूलपुर, कैराना और विधानसभा की एक सीट पर हुये उपचुनाव में बसपा ने सपा उम्मीदवारों को समर्थन दिया था. जिसके नतीजे आशाजनक रहे. इसी समर्थन से गठबंधन का रास्ता आसान हुआ था. लेकिन कागज पर असरदार, मारक और विस्फोटक लग रहा गठबंधन जमीन पर मिट्टी का शेर साबित हुआ. जिस गठबंधन से 50 से 60 सीटें जीतने की उम्मीदें की जा रही थीं, उसकी 15 पर ही ब्रेक लग गयी. गठबंधन से मनमुताबिक नतीजे न आने के बाद से ही इस बात के कयास लगाये जा रहे थे, इस गठबंधन की उम्र ज्यादा नहीं होगी, और हुआ भी ऐसा ही.
मायावती उपचुनाव में उतरकर यह संदेश देना चाहती हैं कि भाजपा के बाद वो ही प्रदेश की सत्ता की असली दावेदार हैं
आज पांच साल बाद प्रदेश की राजनीति फिर उसी चैराहे पर खड़ी है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होना है. जिन सीटों पर चुनाव होना है उनमें 9 भाजपा और 2 सपा के कब्जे वाली हैं. मतलब साफ है कि मायावती के पास खोने के लिए कुछ ज्यादा नहीं है. वहीं सपा सत्ता से बाहर और प्रदेश में अब तीसरे नम्बर की पार्टी है. ऐसे में मायावती उपचुनाव में उतरकर अपने वोटरों और प्रदेशवासियों को यह संदेश देना चाहती हैं कि भाजपा के बाद वो ही प्रदेश की सत्ता की असली दावेदार हैं.
मायावती अपने बेस वोटरों का मनोबल बढ़ाने और परखने के तौर पर भी इस उपचुनाव को इस्तेमाल करेंगी. असल में सपा के साथ चुनाव लड़ने के फैसले से अंदर ही अंदर बसपा के वोटरों में कहीं न कहीं नाराजगी थी. विधानसभा चुनाव की अपेक्षा लोकसभा चुनाव में तीन फीसदी वोट भी कम हुए हैं, जबकि उसने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. ऐसे में मायावती अपने वोट बैंक का लिटमस और रियलिटी चेक दोनों एक साथ उपचुनाव में करना चाहेंगी. यादव वोटों की बदौलत बसपा ने दस सीटें जीतीं या फिर मुस्लिमों ने उसका साथ दिया, उपचुनाव में तमाम शंकाएं, सवाल और कयास दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएंगे.
राजनीतिक विशलेषकों के मुताबिक उपचुनाव के नतीजे भले कुछ भी हों लेकिन इस उपचुनाव के माध्यम से मायावती अपने पक्के वोटरों को यह संदेश देने में कामयाब रहेंगी कि उनकी राजनीतिक पारी अभी खत्म नहीं हुई है. वहीं उपचुनाव के नतीजे 2022 के विधानसभा चुनाव की रणनीति तैयार करने में मायावती के लिये मददगार साबित होंगे.
लोकसभा चुनाव नतीजों ने मुकम्मल तौर पर तो नहीं लेकिन आंशिक तौर पर मायावती को राहत पहुंचाई ही है. वहीं गठबंधन तोड़कर उसने अपने एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी की राजनीति को पूरी तरह बिखेरने का काम भी किया है.
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