दारा शिकोह का शुमार इतिहास में एक 'लिबरल' की तरह रहा है. उसका हद से ज्यादा लिबरल होना ही वो कारण है जिसके चलते आरएसएस मुगल बादशाह औरगंजेब के भाई दारा में, अपना नया आइकन तलाश रहा है. आरएसएस के सह सरकार्यवाह डॉ. गोपाल कृष्ण गोपाल ने ये कहकर कि अगर औरंगजेब की जगह दारा शिकोह मुगल सम्राट बनता तो इस्लाम देश में और फलता-फूलता एक नए वाद को जन्म दे दिया है. सवाल होगा कि आखिर क्यों संघ दारा शिकोह को एक आदर्श मुस्लमान की तरह देखता है? जवाब बेहद आसान है. किसी और बादशाह विशेषकर औरंगजेब की तरह कभी दारा ने अपनी बात मनवाने के लिए तलवार का सहारा नहीं लिया. साथ ही दारा का शुमार उन मुग़ल शासकों में है जिसका अधिकांश समय कला, साहित्य और संगीत में बीता. किताबों से घिरा रहने के कारण दारा का रुझान हिंदू धर्म की तरफ भी आया. माना जाता है कि दारा हिंदू दर्शन को ज्यादा से ज्यादा समझना चाहता था और उसका प्रचार प्रसार करना चाहता था. सूफी स्वाभाव का होने और न्याय और बराबरी की बात करने के कारण दारा को इसका फायदा भी मिला जिसका नतीजा हमारे सामने है. वर्तमान में दक्षिणपंथी संगठनों ने दारा शिकोह को एक 'मॉडल मुसलमान' के रूप में पेश किया है, जो बौद्धिक और दार्शनिक होने के कारण मुगलिया सल्तनत का असल हकदार था.
भाजपा और संघ परिवार दारा को किस हद तक पसंद करते हैं इसे हम फ़रवरी 2017 की एक घटना से भी समझ सकते हैं जब केंद्र की बीजेपी सरकार ने राजधानी नई दिल्ली में डलहौजी रोड का नाम बदलकर दारा शिकोह रोड रखा था. पार्टी सांसद मीनाक्षी लेखी के इस प्रस्ताव को केंद्र के नियंत्रण वाली न्यू दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ने मंजूरी दी थी. मीनाक्षी लेखी का कहना था कि ये...
दारा शिकोह का शुमार इतिहास में एक 'लिबरल' की तरह रहा है. उसका हद से ज्यादा लिबरल होना ही वो कारण है जिसके चलते आरएसएस मुगल बादशाह औरगंजेब के भाई दारा में, अपना नया आइकन तलाश रहा है. आरएसएस के सह सरकार्यवाह डॉ. गोपाल कृष्ण गोपाल ने ये कहकर कि अगर औरंगजेब की जगह दारा शिकोह मुगल सम्राट बनता तो इस्लाम देश में और फलता-फूलता एक नए वाद को जन्म दे दिया है. सवाल होगा कि आखिर क्यों संघ दारा शिकोह को एक आदर्श मुस्लमान की तरह देखता है? जवाब बेहद आसान है. किसी और बादशाह विशेषकर औरंगजेब की तरह कभी दारा ने अपनी बात मनवाने के लिए तलवार का सहारा नहीं लिया. साथ ही दारा का शुमार उन मुग़ल शासकों में है जिसका अधिकांश समय कला, साहित्य और संगीत में बीता. किताबों से घिरा रहने के कारण दारा का रुझान हिंदू धर्म की तरफ भी आया. माना जाता है कि दारा हिंदू दर्शन को ज्यादा से ज्यादा समझना चाहता था और उसका प्रचार प्रसार करना चाहता था. सूफी स्वाभाव का होने और न्याय और बराबरी की बात करने के कारण दारा को इसका फायदा भी मिला जिसका नतीजा हमारे सामने है. वर्तमान में दक्षिणपंथी संगठनों ने दारा शिकोह को एक 'मॉडल मुसलमान' के रूप में पेश किया है, जो बौद्धिक और दार्शनिक होने के कारण मुगलिया सल्तनत का असल हकदार था.
भाजपा और संघ परिवार दारा को किस हद तक पसंद करते हैं इसे हम फ़रवरी 2017 की एक घटना से भी समझ सकते हैं जब केंद्र की बीजेपी सरकार ने राजधानी नई दिल्ली में डलहौजी रोड का नाम बदलकर दारा शिकोह रोड रखा था. पार्टी सांसद मीनाक्षी लेखी के इस प्रस्ताव को केंद्र के नियंत्रण वाली न्यू दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ने मंजूरी दी थी. मीनाक्षी लेखी का कहना था कि ये फैसला 'हिन्दुओं और मुस्लिमों को साथ लाने के लिए' शहजादे के सम्मान में लिया गया है.
दारा शिकोह का कॉन्ट्रिब्यूशन
संघ और भाजपा में दारा का बखान यूं ही नहीं किया जा रहा है. इसके पीछे एक जायज वजह है. हिंदू धर्म की तरफ रुझान होने और उसके दर्शन को समझने के कारण दारा शिकोह ने इस्लाम और वेदांत के एकीकरण की दिशा में काफी काम किया. इसके अलावा बात अगर हिंदू धर्म की दिशा में दारा शिकोह द्वारा किये गए मुख्य काम की हो तो उसने उपनिषदों का अनुवाद फारसी में किया. धार्मिक सद्भाव में विश्वास रखने और धर्म निरपेक्ष होने के कारण दारा शिकोह ने कभी अपनी मर्जी को दूसरों पर थोपा नहीं. जबकि बात अगर औरंगजेब की हो तो उसकी बर्बरता और अतिवाद/ कट्टरपंथ के किस्सों से इतिहास भरा पड़ा है. दारा का नरम रवैया ही वो अहम कारण है जिसकी वजह से आज भाजपा और संघ परिवार न सिर्फ दारा को पसंद करते हैं. बल्कि ये तक कह रहे हैं कि देश के आम मुसलमानों को दारा शिकोह से प्रेरणा लेकर हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार की दिशा में काम करना चाहिए.
दारा शिकोह का भारतीय संस्कृति से जुड़ाव
एक मुग़ल बादशाह और एक मुस्लिम होने के बावजूद दारा ने जिस तरह अपना समय अध्ययन और शोध को दिया वो कमाल का था. भले ही दारा एक साहित्य और कलाप्रेमी रहा हो लेकिन भारत में ही पैदा होने के कारण उसका भारतीय संस्कृति से जुड़ाव स्वाभाविक था. चूंकि दारा खुद बुद्धिजीवियों के संपर्क में रहना पसंद करता था और उसे नई जानकारियां जुटाने का शौक था उसने वेद, पुराणों और उपनिषदों की तरफ रुख किया. इन सब का फायदा ये हुआ कि जैसे जैसे दारा ने भारतीय संस्कृति के बारे में जाना वो इससे जुड़ता चला गया और उन चीजों से दूर हुआ जिसके लिए उसका अपना सगा भाई औरंगजेब मशहूर था.
लड़ाई दारा बनाम औरंगजेब की सोच की
दारा का चाल चरित्र और चेहरा कैसा था वो हमारे सामने हैं. वहीं बात अगर औरंगजेब की तो हो तो उसका शुमार एक ऐसे व्यक्ति में है जिसने अपने को तृप्त करने के लिए अतिवाद का मार्ग चुना और कट्टरपंथ का रास्ता अपनाया. वर्तमान में माना यही जा रहा है कि जिस शहजादे को औरंगजेब ने मौत के घाट उतार दिया था, उसका गुणगान अच्छे मुस्लिम की अवधारणा बनाने की RSS की कोशिश है. कुल मिलकर कहा यही जा सकता है कि दारा शिकोह और औरंगजेब के बीच जो लड़ाई थी वो केवल सत्ता संघर्ष की लड़ाई नहीं थी. इस लड़ाई की एक बड़ी वजह विचारधारा को माना जा सकता है. औरंगजेब किसी भी सूरत में कट्टरपंथ लाना चाहता था जबकि इतिहास यही बताता है कि ऐसे तमाम मौके आए जब दारा ने खुलकर औरंगजेब की नीतियों का विरोध किया.
क्या इतिहासकारों ने भी छल किया है दारा से?
ये वाकई अपने आप में एक दिलचस्प प्रश्न है. यदि मध्यकालीन इतिहास पर नजर डालें और उसका अवलोकन करें तो जवाब हमें खुद मिल जाते हैं. जैसे जैसे हम इतिहास पढ़ेंगे पाएंगे कि दारा के साथ धोखा केवl उसके भाई ने नहीं किया. दारा के साथ हुए छल के जिम्मेदार खुद इतिहासकार भी हैं. इस बात में रत्ती बराबर भी शक की गुंजाइश नहीं है कि बादशाह औरंगजेब एक बर्बर और कट्टरपंथी शासक था. वहीं बात अगर दारा शिकोह की हो तो वो एक विवेकशील और पढ़ा लिखा व्यक्ति था.
ऐसे में जिस तरह मध्यकालीन इतिहास से दारा को दूध में पड़ी मक्खी की तरह अलग किया गया. उसकी उपलब्धियों और न्यायप्रियता को छुपाया गया वो उन इतिहासकारों का एजेंडा बता देता है जिसने मुस्लिम के नाम पर केवल और केवल 'बैड मुस्लिम' दिखाया और ज़माने को 'गुड मुस्लिम' और इसके पूरे कॉन्सेप्ट से दूर रखा. यदि इतिहासकारों ने लोगों को दारा और उसके जीवन से अवगत कराया होता तो आज स्थिति कुछ और होती.
बहरहाल अब जबकि एक हीरो के तौर पर संघ दारा को सामने ले ही आया है तो देखना दिलचस्प रहेगा कि इससे भारत का मुस्लमान कितना खुश होता है. ये सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि एक लंबे वक़्त से संघ परिवार मुस्लिम समुदाय को लुभाने की कोशिश में जुटा है. ये कोशिश कितनी कामयाब होगी इसका फैसला आने वाला वक़्त करेगा.लेकिन जो वर्तमान है वो यही बता रहा है कि इस पहल का फायदा भाजपा और संघ परिवार को जरूर मिलेगा और कहीं न कहीं इस देश के आम मुस्लिम, 'गुड मुस्लिम' और बैड मुस्लिम के इस खेल में अपने आपको सेफ पाले में रखेंगे.
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