2015 में चार शब्दों ने पूरे राजनीतिक मूड को ही बदलकर रख दिया- "सूट-बूट की सरकार".
राहुल गांधी को आज भी उनके राजनीतिक कौशल के लिए मजाक का सामना करना पड़ता है, लेकिन राहुल ने ही सरकार की इस दुखती रग को दबा दिया था. इस समय तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 12.5 साल गुजरात के मुख्यमंत्री के रुप में और एक साल प्रधान मंत्री के तौर पर बड़े व्यवसायियों का हितैषी माना जाने लगा था. उनकी आर्थिक नीतियां पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने वाली मानी जाती थीं. मोदी जी ने अपना नाम लिखा हुआ बंद गले का सूट पहना. ऐसा लगने लगा कि अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी के बदले उन्हें लंदन और न्यूयॉर्क में एनआरआई लोगों के बीच भाषण देना ज्यादा लुभाता है. मई 2014 में भारी बहुमत से जीत हासिल करने के बाद मोदी जी नवंबर 2014 में अपने चुनाव क्षेत्र गए थे.
'सूट-बूट की सरकार', विपक्ष के इस तंज ने रातों रात पूरी तस्वीर ही बदल दी. महंगे सूट की जगह कपास के बने नेहरू जैकेट ने ले ली. बड़े व्यापारियों को छोड़ दिया गया. आर्थिक नीतियों का लक्ष्य गरीब हो गए. बीजेपी के मूल वोट बैंक मध्यम वर्ग और छोटे व्यापारियों को आहिस्ता से किनारे कर दिया गया.
मोदी ने तेजी से अपना रास्ता बदल लिया.
1970 के दशक की शुरुआत में इंदिरा गांधी द्वारा गरीबों की राजनीति फिर से वापस आ गई थी. पीएसयू का निजीकरण? परदे के पीछे से कर दिया गया. वेतनभोगी मध्यम वर्ग के लिए टैक्स रिफॉर्म? अब कहीं से भी प्राथमिकता नहीं है. नौकरशाही को कम करना? ये और अधिक हो गई.
अपनी आर्थिक नीतियों के उलट काम करने का मतलब ये नहीं कि मोदी ने अपनी प्राकृतिक सुधारवादी प्रवृत्तियों को पूरी तरीके छोड़ दिया है. हर क्षेत्र में एफडीआई के द्वारा उदारीकरण कर दिया...
2015 में चार शब्दों ने पूरे राजनीतिक मूड को ही बदलकर रख दिया- "सूट-बूट की सरकार".
राहुल गांधी को आज भी उनके राजनीतिक कौशल के लिए मजाक का सामना करना पड़ता है, लेकिन राहुल ने ही सरकार की इस दुखती रग को दबा दिया था. इस समय तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 12.5 साल गुजरात के मुख्यमंत्री के रुप में और एक साल प्रधान मंत्री के तौर पर बड़े व्यवसायियों का हितैषी माना जाने लगा था. उनकी आर्थिक नीतियां पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने वाली मानी जाती थीं. मोदी जी ने अपना नाम लिखा हुआ बंद गले का सूट पहना. ऐसा लगने लगा कि अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी के बदले उन्हें लंदन और न्यूयॉर्क में एनआरआई लोगों के बीच भाषण देना ज्यादा लुभाता है. मई 2014 में भारी बहुमत से जीत हासिल करने के बाद मोदी जी नवंबर 2014 में अपने चुनाव क्षेत्र गए थे.
'सूट-बूट की सरकार', विपक्ष के इस तंज ने रातों रात पूरी तस्वीर ही बदल दी. महंगे सूट की जगह कपास के बने नेहरू जैकेट ने ले ली. बड़े व्यापारियों को छोड़ दिया गया. आर्थिक नीतियों का लक्ष्य गरीब हो गए. बीजेपी के मूल वोट बैंक मध्यम वर्ग और छोटे व्यापारियों को आहिस्ता से किनारे कर दिया गया.
मोदी ने तेजी से अपना रास्ता बदल लिया.
1970 के दशक की शुरुआत में इंदिरा गांधी द्वारा गरीबों की राजनीति फिर से वापस आ गई थी. पीएसयू का निजीकरण? परदे के पीछे से कर दिया गया. वेतनभोगी मध्यम वर्ग के लिए टैक्स रिफॉर्म? अब कहीं से भी प्राथमिकता नहीं है. नौकरशाही को कम करना? ये और अधिक हो गई.
अपनी आर्थिक नीतियों के उलट काम करने का मतलब ये नहीं कि मोदी ने अपनी प्राकृतिक सुधारवादी प्रवृत्तियों को पूरी तरीके छोड़ दिया है. हर क्षेत्र में एफडीआई के द्वारा उदारीकरण कर दिया गया. स्टार्ट-अप को प्रोत्साहन दिया गया. और बड़े वैश्विक रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए गए. अगले महीने प्रधान मंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के चार साल पूरे हो जाएंगे. उन्होंने कैसे काम किया? सरकार की उपलब्धियों, असफलताओं और कार्यों का आंकलन करते हैं-
उपलब्धियां:
दिवालिया और शोधन अक्षमता संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code आईबीसी) को 2016 में कानूनी मान्याता दे दी गई थी. बैंकों के एनपीए पर कड़ी नजर रखकर आईबीसी एक गेम चेंजर साबित हो रहा है. कुल बैंक एनपीए करीब 9 लाख करोड़ रुपये का है. टाटा, बिड़ला, वेदांत और ब्रिटेन के लिबर्टी हाउस जैसी प्रमुख भारतीय और वैश्विक व्यापारिक घरानों द्वारा बड़े एनपीए वाली दीवालिया कंपनियों को खरीदने में दिलचस्पी दिखाना अच्छा कदम है. इस कदम से आईबीसी द्वारा संयमित और नपेतुले कदम उठाने के कारण, भारतीय बैंकों की खस्ता हालत सुधारी जा सकती है. उन्हें कॉर्पोरेट क्षेत्र को उधार देने और निजी निवेश को बढ़ावा देने में फिर से सक्षम बनाया जा सकता है.
ग्रामीण इलाकों में विद्युतीकरण एक प्रमुख सफलता रही है. ग्रामीण विद्युतीकरण की गति भारत के इतिहास में सबसे तेज रही है. फिर चाहे वो स्वतंत्रता के पहले हो या बाद में.
सड़क निर्माण की गति में भी उत्कृष्ट सफलता मिली है. यूपीए सरकार के तहत, रोजाना लगभग 17 किमी सड़कों का निर्माण होता था. वर्तमान में, रोजाना लगभग 40 किमी से अधिक सड़कों का निर्माण किया जा रहा है. इसके अलावा अगर सड़क की लंबाई की गिनती वैश्विक स्तर के मान्यता प्राप्त मॉडल से करें जिसमें दोनों ही लेन को गिना जाता है तो ये आंकड़े एनडीए और यूपीए सरकारों दोनों के तहत दोगुना हो जाएंगे.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना (एनएचपीएस) मोदी सरकार की सबसे साहसी पहलों में से एक है. यह 50 करोड़ कम आय वाले भारतीयों को 5 लाख रुपये का मेडिकल इंश्योरेंस कवर प्रदान करेगा. इस योजना का सालाना बजट 10,000 करोड़ रुपये का होगा. हालांकि आलोचकों का कहना है कि लागत 80,000 करोड़ रुपये से अधिक हो सकती है.
2 अक्टूबर 2018 को इस योजना को लागू कर दिया जाएगा. तीसरे चरण के ग्रामीण हेल्थ केयर सेंटर स्थापित करना इस योजना को जमीनी स्तर पर लाने के लिए बहुत जरुरी हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य क्लीनिक और योग्य डॉक्टरों की कमी के कारण सरकार के लिए ये बहुत बड़ी चुनौती है.
इन चार सालों में एनडीए सरकार की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मुद्रा योजना है. इसके तहत छोटे उद्यमियों को ऋण बहुत ही कम या फिर बिना किसी कागजी कार्रवाई के आसानी से मिल जाता है. इस योजना के तहत ऐसे लोगों की संख्या को बढ़ाया जाए जो स्वरोजगार करें और दूसरों को रोजगार भी दें.
इसके अलावा जो जन धन योजना इनकी बहुत ही सफल रही है. इसने 31.2 करोड़ से अधिक नए बैंक खातों, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) योजना बनाई है. जिसकी वजह से चोरियां कम हुई हैं और गरीबों को एलपीजी पर सब्सिडी भी मिली. इन सभी के आलावा सरकार में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार में भी कमी आई है.
अच्छी खबरें यहीं समाप्त होती हैं. निचले स्तर पर भ्रष्टाचार वैसा ही बना हुआ है और ये राज्य से लेकर स्थानीय स्तर तक फैला हुआ है.
विफलताएं:
इसी बीच शासन के स्तर पर विफलताओं ने मोदी सरकार की चमक छीन ली है. भारत का रक्षा बजट बहुत कम है. देश को दो-मोर्चे पर युद्ध के लिए तैयार होने की जरूरत के साथ यह बिल्कुल तालमेल नहीं खाता है. सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत से भी नीचे होने के बाद हमारे रक्षा बजट का ज्यादातर हिस्सा लगभग दो करोड़ पुरुषों और महिलाओं के पेंशन, वेतन और सेना को चलाने में चला जाता है.
मोदी सरकार के कई गलत फैसले वित्त मंत्रालय की तरफ से लिए गए. वित्त मंत्रालय द्वारा नोटबंदी को बहुत ही बुरे तरीके से कार्यान्वित किया गया. एक अनावश्यक और जटिल कायदों के कारण जीएसटी एक बोझ है. नए इंकम टैक्स रिफॉर्म में वो डिटेल मांगे जा रहे हैं जो पहले कभी मांगे ही नहीं गए. रेड (छापा) राज वापस आ गया है.
नतीजा:
एक विचलित मध्यम वर्ग, पीड़ित और दुखी कारोबारी. अगर टैक्स कलेक्शन तेजी से बढ़ता तो फिर भी इन सभी पर सरकार थोड़ा गर्व कर सकती थी. लेकिन वो बढ़े तो हैं पर पिछले वर्ष की तुलना में बहुत ज्यादा नहीं.
मेक इन इंडिया स्कीम का असर मिलाजुला ही रहा. निजी और विदेशी निवेशकों ने इस स्कीम पर सावधानी से प्रतिक्रिया व्यक्त की. चीजों को आगे बढ़ने के मकसद से सरकार राफले सौदे से शुरूआत कर रक्षा के क्षेत्र में ज्वाइंट वेंचर पर ध्यान केंद्रित कर रही है.
सरकार की कई अन्य योजनाएं नौकरशाही की अकर्मण्यता के कारण रुक गई हैं. सबसे खराब रूप से बनाई गई कुछ नीतियों में फिर से वित्त मंत्रालय का ही नाम आता है: उदाहरण के लिए, लंबे समय तक पूंजीगत लाभ कर (जिसने म्यूचुअल फंड में इनफ्लो धीमा कर दिया) और 10 करोड़ रुपये से अधिक के लिए एंजेल-फंडेड स्टार्ट-अप पर टैक्स लगाना.
जो काम अभी चल रहे हैं:
आधार, स्वच्छ भारत अभियान और गंगा की सफाई ये तीन महत्वपूर्ण मिशन हैं. हालांकि तीनों को ही झटका लगा, लेकिन अब ट्रैक पर वापस आ गए हैं. वहीं रेलवे आधुनिकीकरण भी गति पकड़ रहा है. कई तरह के अन्य पहलों का अभी भी सक्रिय होना बाकी है: किसानों के लिए बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य, ग्रामीणों को आवास, नौकरी, सामाजिक समावेश और कानून व्यवस्था.
सरकार को अपने कार्यकाल के आखिरी साल में सरकार को अपनी संचार रणनीति बदलनी होगी. इनके पास प्रतिभाशाली पेशेवर हैं जो वर्तमान मुद्दों पर रोजाना ब्रीफिंग कर सकते हैं. निम्नलिखित लोगों से बना एक पैनल बारी बारी से रोज मीडिया को ब्रीफ कर सकता है: बिबेक देब्रॉय (इकोनॉमी), एमजे अकबर (विदेश नीति), संजीव सान्याल (बैंकिंग), अमिताभ कांत (गवर्नेंस), पीयुष गोयल (निवेश) और स्मृति ईरानी (राजनीति). धारणा ही कुंजी है. यह 2019 में एक बड़ा हिस्सा बनेंगे.
कुल मिलाकर मोदी सरकार ने टुकड़ों टुकड़ों में अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विफल रहे हैं. इसकी चुनावी मशीनरी अजेय है. लेकिन चार सालों के बाद न्यायिक और पुलिस सुधार अटके हुए हैं. लोकपाल को भी आधे अधूरे मन से लागू किया गया है. विपक्ष अगर बिखरा हुआ न होता तो 2019 के चुनावों में नरेंद्र मोदी संभवत: सत्ता से बाहर हो जाते.
राहुल गांधी, ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी ऐसे ही 'संयुक्त प्रयास' करते रहे तो वे बीजेपी की तकदीर नहीं पलट पाएंगे.
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