दिल्ली चुनाव 2020 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) लगता है 2015 के नतीजों के मुकाबले ज्यादा गंभीरता से ले रहा है. संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गेनाइजर (RSS mouthpiece Organiser) में प्रकाशित एक लेख में बीजेपी को सलाह दी गयी है कि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal saffron politics) की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखे. लेख में निशाने पर दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी भी हैं जिन्हें विधानसभा चुनावों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह (Modi-Shah) के भरोसे नहीं रहने को कहा गया है. माना जाता है कि मनोज तिवारी पहले भी दिल्ली में संघ का काम देख रहे नेताओं के निशाने पर रहे हैं और वे पसंद नहीं करते. वैसे भी दिल्ली बीजेपी के नेताओं मनोज तिवारी और 2015 में मुख्यमंत्री का चेहरा बनायी गयीं किरण बेदी में ज्यादा फर्क नहीं लगता.
ऑर्गेनाइजर में संपादक प्रफुल्ल केतकर के लेख से ये तो साफ है कि मोदी-शाह को दिल्ली की हार की तोहमत से बचाने की पूरी कोशिश है - लेकिन अरविंद केजरीवाल को लेकर जिस तरह आगाह किया गया है वो काफी गंभीर बात लगती है. क्या अरविंद केजरीवाल के इरादों को संघ ने पहले ही भांप लिया है?
सवाल ये है कि जिस अरविंद केजरीवाल को प्रधानमंत्री मोदी किसी छोटे शहर के मामूली नेता जैसा मानते रहे, वो राजनीतिक तौर पर कैसे इतने खतरनाक हो चुके हैं कि संघ की तरफ से बीजेपी को उन पर नजर रखने की सलाह दी जा रही है?
बीजेपी के लिए केजरीवाल कितने खतरनाक?
दिल्ली के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की ये लगातार छठी हार है, जिसमें दो बार तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से ही मुंह की खानी पड़ी है. केंद्र की सत्ता में दोबारा वापसी के बावजूद दिल्ली में लगातार हार तो यही कहती है कि कहीं न कहीं बड़ी खामी है जिस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है, या फिर जान बूझ कर उस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
पहले की बातें छोड़ भी दें तो पिछले पांच साल में बीजेपी दिल्ली में संगठन को मजबूत बनाने में नाकाम रही और लेख में भी...
दिल्ली चुनाव 2020 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) लगता है 2015 के नतीजों के मुकाबले ज्यादा गंभीरता से ले रहा है. संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गेनाइजर (RSS mouthpiece Organiser) में प्रकाशित एक लेख में बीजेपी को सलाह दी गयी है कि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal saffron politics) की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखे. लेख में निशाने पर दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी भी हैं जिन्हें विधानसभा चुनावों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह (Modi-Shah) के भरोसे नहीं रहने को कहा गया है. माना जाता है कि मनोज तिवारी पहले भी दिल्ली में संघ का काम देख रहे नेताओं के निशाने पर रहे हैं और वे पसंद नहीं करते. वैसे भी दिल्ली बीजेपी के नेताओं मनोज तिवारी और 2015 में मुख्यमंत्री का चेहरा बनायी गयीं किरण बेदी में ज्यादा फर्क नहीं लगता.
ऑर्गेनाइजर में संपादक प्रफुल्ल केतकर के लेख से ये तो साफ है कि मोदी-शाह को दिल्ली की हार की तोहमत से बचाने की पूरी कोशिश है - लेकिन अरविंद केजरीवाल को लेकर जिस तरह आगाह किया गया है वो काफी गंभीर बात लगती है. क्या अरविंद केजरीवाल के इरादों को संघ ने पहले ही भांप लिया है?
सवाल ये है कि जिस अरविंद केजरीवाल को प्रधानमंत्री मोदी किसी छोटे शहर के मामूली नेता जैसा मानते रहे, वो राजनीतिक तौर पर कैसे इतने खतरनाक हो चुके हैं कि संघ की तरफ से बीजेपी को उन पर नजर रखने की सलाह दी जा रही है?
बीजेपी के लिए केजरीवाल कितने खतरनाक?
दिल्ली के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की ये लगातार छठी हार है, जिसमें दो बार तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से ही मुंह की खानी पड़ी है. केंद्र की सत्ता में दोबारा वापसी के बावजूद दिल्ली में लगातार हार तो यही कहती है कि कहीं न कहीं बड़ी खामी है जिस तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है, या फिर जान बूझ कर उस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
पहले की बातें छोड़ भी दें तो पिछले पांच साल में बीजेपी दिल्ली में संगठन को मजबूत बनाने में नाकाम रही और लेख में भी इस बात का जोर देकर जिक्र है - 'मोदी शाह हमेशा मदद के लिए नहीं आएंगे'. दिल्ली बीजेपी के लिए लेख में सलाहियत है कि दिल्लीवासियों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश हो और पार्टी को नये सिरे से खड़ा करने की कोशिश की जानी चाहिये.
दिल्ली में बीजेपी नेतृत्व ने पूरी ताकत से शाहीन बाग को मुद्दा बनाने की कोशिश की, लेकिन फेल रहा. अरविंद केजरीवाल शाहीन बाग पहुंच जायें या फिर कोई बयान ही दें दे, बीजेपी की ऐसी हर कोशिश असफल रही - अरविंद केजरीवाल लोगों के बीच अपने काम की चर्चा करते रहे - और बीजेपी उसे कारनामा साबित करने में भी चूक गयी. अमित शाह पूछते रहे कि केजरीवाल की सरकार ने एक भी कॉलेज नहीं खोला लेकिन AAP नेता समझाने में कामयाब रहे कि बजट का बड़ा हिस्सा शिक्षा पर खर्च किया गया और स्कूलों के कमरे, सफाई और बच्चों के यूनिफॉर्म दिखा कर सबको समझा दिया कि पूरी तस्वीर ही बदल डाली है. बीजेपी नेतृत्व इसकी काट खोजने में पूरी तरह चूक गया.
प्रफुल्ल केतकर ने बीजेपी को जो समझाने की कोशिश की है वो बड़ी बात है. प्रफुल्ल केतकर को लगता है कि दिल्ली अरविंद केजरीवाल के लिए अपने राजनीतिक तौर तरीकों के आजमाने का नया मैदान बन सकता है. अरविंद केजरीवाल के हनुमान चालीसा के पाठ और उसके दूरगामी असर की तरफ भी इशारा किया गया है.
प्रफुल्ल केतकर को लगता है कि बीजेपी ने शाहीन बाग को जिस तरह प्रोजेक्ट करने की कोशिश की वो दांव बिलकुल उलटा पड़ गया और CAA के नाम पर जो कुछ हुआ उसे अपने तरीके से समझ कर लोगों ने आम आदमी पार्टी का रूख कर लिया. बीजेपी बस देखती रह गयी.
ऐसा लगता है जैसे प्रफुल्ल केतकर, दिल्ली चुनाव के नतीजों के बाद अरविंद केजरीवाल का भगवा अवतार देखने लगे हैं - और यही वजह है कि बीजेपी को अरविंद केजरीवाल पर पैनी नजर रखने की सलाह दी है.
काफी हद तक बात सही भी है. टीवी इंटरव्यू में अरविंद केजरीवाल का हनुमान चालीसा पाठ भले ही संयोग रहा हो, लेकिन बाद वो सारे ही प्रयोग कर डाले और बीजेपी सिर्फ रिएक्ट करती रह गयी. अरविंद केजरीवाल की हनुमान भक्ति पर मनोज तिवारी का रिएक्शन तो उलटा ही पड़ गया. जब अरविंद केजरीवाल मंदिर गये तो मनोज तिवारी ने समझाने की कोशिश की कि मंदिर ही अपवित्र हो गया - लोग मनोज तिवारी की बात तो नहीं समझे लेकिन उनके इरादे समझ लिये.
अरविंद केजरीवाल को शायद हनुमान की राजनीतिक ताकत का अंदाजा लग गया और वो मतदान की पूर्वसंध्या पर हनुमान मंदिर दर्शन करने चले गये. ये भी बताया कि हनुमान जी से कैसा संवाद हुआ और वरदान कैसा मिला. जब चुनाव के नतीजे आये तो पहले ही भाषण में हनुमान जी को सारा क्रेडिट दे डाला और साथ में शुक्रिया भी कहा.
अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की इस नयी राह पर सफर तो बहुत कम किया है लेकिन जिस तेजी से कदम बढ़ाते जा रहे हैं वो किसी भी राजनीतिक विरोधी के लिए चौकान्ना करने वाला है. अब तो अरविंद केजरीवाल सिर्फ दिल्ली की ही पूरे भारत की बात करते हैं. शपथग्रहण में वो ये ध्यान तो रखते हैं कि फोकस दिल्ली से हटे नहीं लेकिन मौके पर जो नारे लगाते हैं और जिन बातों पर जोर देते हैं वे साफ करते हैं कि अरविंद केजरीवाल की नजर कहां तक पहुंच रही है और यही संघ की चिंता की सबसे बड़ी वजह भी यही लगती है.
अब अरविंद केजरीवाल सिर्फ 'इंकलाब जिंदाबाद' ही नहीं, साथ में 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम्' के नारे भी लगाने लगे हैं जिनसे कांग्रेस बचती रही है और नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने भी बैठे बैठे मुस्कुराना छोड़ कर सुर में सुर मिलना शुरू कर दिया है.
देखा जाये तो जो प्रयोग अरविंद केजरीवाल ने अभी शुरू किया है वो कांग्रेस के लिए राहुल गांधी पहले ही कर चुके हैं. राहुल गांधी को जनेऊधारी हिंदू बताया जाना और शिवभक्त के तौर पर पेश किया जाना. मंदिरों और मठों में वहां की खास वेशभूषा में चलते हुए लोगों का ध्यान खींचना - ये सब तो राहुल गांधी पहले ही कर चुके हैं. राहुल गांधी के फेल होने की वजह ये भी हो सकती है कि वो सब तो करते थे लेकिन 'भारत माता की जय' और 'वंदे मातरम्' जैसे नारे कभी नहीं लगाये, बल्कि कई कांग्रेस नेताओं ने तो इसका कड़ा विरोध भी किया है. फिर भला राहुल गांधी को वो फायदा कैसे मिल सकता है, जो अरविंद केजरीवाल को मिल रहा है या आगे मिलने की संघ को आशंका है?
प्रफुल्ल केतकर ही क्यों संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी तो 'राष्ट्रवाद' की लाइन छोड़ने की सलाह दी है. मोहन भागवत ने बीजेपी से राष्ट्रवाद की जगह सिर्फ राष्ट्र या राष्ट्रीय शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए कहा है.
क्या बीजेपी ने केजरीवाल को नजरअंदाज किया?
बेशक अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में विरोधियों को शिकस्त देने का पूरा ताना बाना वक्त रहते बुन लिया था, लेकिन हैरानी की बात तो यही है कि बीजेपी नेतृत्व सारे संकेतों को नजरअंदाज करता रहा. मोदी-शाह जहां विरोधियों को पाकिस्तान का पक्षधर बताने में लगे रहे, केजरीवाल ने अपने लिए सेफ पैसेज निकाल लिया. पहले तीन तलाक और फिर धारा 370 के मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल ने मोदी सरकार का साथ इसीलिए दिया ताकि वो पाकिस्तान की भाषा बोलने वालों की जमात से खुद को अलग कर सकें. नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ शाहीन बाग का मुद्दा उभर कर आया लेकिन केजरीवाल बड़ी ही चालाकी से उसमें भी फंसने से की जगह बचते-बचाते निकल लिये - बीजेपी हाथ पर हाथ धरे बैठी रही.
अरविंद केजरीवाल के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र क्या सोचते हैं, ये तब मालूम हुआ जब बीबीसी के पत्रकार रहे लांस प्राइस ने एक राज की बात बतायी. 2014 के लोक सभा चुनाव के दौरान वाराणसी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल भी चुनाव लड़े थे - लेकिन मोदी ने केजरीवाल पर कोई टिप्पणी ही नहीं की. लांस प्राइस ने इसका जिक्र अपनी किताब 'द मोदी एफेक्ट: इनसाइड नरेन्द्र मोदीज कैंपेन टू ट्रांसफॉर्म इंडिया' में विस्तार से किया है.
मोदी से लांस प्राइस ने चुनाव प्रचार के दौरान अरविंद केजरीवाल पर चुप्पी के बारे में पूछा तो जवाब मिला, 'मेरी खामोशी मेरी ताकत है. आपको यह जानना चाहिये कि बड़े नजरिये में, केजरीवाल कुछ और नहीं बल्कि, किसी शहर के एक छोटे से नेता जैसे हैं... इस लायक भी नहीं है कि मैं केजरीवाल को नजरअंदाज करने में अपना समय गवाउं.'
मोदी का ये भी कहना रहा कि उन्हें निशाना बनाने के लिए कांग्रेस के इशारे पर एक चुनिंदा मीडिया समूह ने केजरीवाल को उछाला. मोदी की दलील रही कि वो भला क्यों ध्यान दें वो न तो सांसद हैं न ही उनका वोट शेयर ही राष्ट्रीय स्तर पर एक फीसदी भी है. मोदी ने तब उनके महज 49 दिन में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर भाग जाने की ओर भी ध्यान दिलाया था - लेकिन ये सब तो तब की बातें हैं. उसके बाद तो केजरीवाल अपने बूते 2015 में दिल्ली की 70 में से 67 और 2020 में 62 सीटें जीतने का रिकॉर्ड भी कायम कर चुके हैं.
क्या बीजेपी नेतृत्व विधानसभा चुनाव में भी आम चुनाव के नतीजे दोहराये जाने की ही उम्मीद रही?
लेकिन ऐसा न तो महाराष्ट-हरियाणा में हुआ और न ही झारखंड में, फिर दिल्ली में आम चुनाव जैसे नतीजे की उम्मीद की क्या वजह हो सकती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी नेतृत्व महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड से दिल्ली को अलग करके देख रहा था - क्योंकि आम चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पार्टी को कांग्रेस ने धक्का देकर तीसरे स्थान पर पहुंचा दिया था. ये भी हो सकता है कि इसे केजरीवाल के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर से जोड़ कर देखा गया हो - क्योंकि एमसीडी चुनाव के नतीजे भी तो केजरीवाल के खिलाफ ही रहे.
क्या मोदी-शाह दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की ताकत को 2020 में भी नजरअंदाज करते रहे? और अब भी कर रहे हैं?
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