उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले लगभग महीने भर से चल रहे समाजवादी खेमे के पारिवारिक ड्रामे ने पिछले दिनों एक नया और भीषण मोड़ ले लिया. एक तरफ अखिलेश यादव ने अपने मंत्रिमंडल से चाचा शिवपाल यादव समेत चार मंत्रियों को बर्खास्त कर दिया तो वहीँ दूसरी तरफ मुलायम यादव ने अखिलेश के समर्थन में खड़े होने के अपराध में रामगोपाल यादव को पार्टी के सभी पदों से छः वर्षों के लिए निलंबित करने का फरमान सुनाया. इसके अगले रोज एक प्रेसवार्ता में मुलायम और अखिलेश बारी-बारी से भावुक होकर अपनी-अपनी व्यथा-कथा भी सुनाई. इन सबके बाद से ही तमाम तरह की अटकलें लगाए जाने लगी हैं कि सूबे की सियासत और सरकार जिसके कुछ ही महीने शेष हैं, का क्या होगा. कुछ लोग इस उठापटक को मुलायम की दूसरी पत्नी के पुत्र की सियासी महत्वाकांक्षाओं से जोड़कर भी देख रहे हैं.
इसे भी पढ़ें: समाजवादी पार्टी में ग्रह शांति के लिए मुलायम को करने होंगे ये उपाय
लेकिन, यहाँ कुछ ऐसे सवाल हैं जिनपर विचार किया जाय तो इस पूरे ड्रामे के सियासी पहलू को बाखूबी समझा जा सकता है. सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि अगर मुलायम सिंह यादव को अखिलेश यादव से इतनी अधिक दिक्कत है कि उनका समर्थन करने के लिए रामगोपाल को पार्टी से निलंबित कर दिया, तो फिर अखिलेश अबतक पार्टी से लेकर सीएम पद पर क्यों और कैसे बने हुए हैं? वो भी इसके बावजूद कि अखिलेश ने मुलायम के समर्थित शिवपाल यादव को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया. इस सवाल की तह में जाने का प्रयत्न करें तो स्पष्ट होता है कि अखिलेश को लेकर मुलायम चाहें जितना गुस्सा और विरोध दिखा रहे हों, लेकिन उनपर कोई व्यावहारिक कार्रवाई नहीं करने वाले. अगर इस पूरे वितंडे के सियासी निहितार्थों को समझने का प्रयत्न करें तो इस पूरे ड्रामे के जरिये मुलायम कई मतलब साधने की कवायदों में लगे हैं.
|
क्या इस ड्रामे से सिर्फ और मजबूत हुए अखिलेश? |
गौर करें तो समाजवादी कुनबे में ये सारा उत्पात पिछले कुछेक महीने में ही अचानक से शुरू हुआ है. अन्यथा चल तो सबकुछ ठीक ही रहा था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि समाजवादी पार्टी में ये सब वितंडा मच गया? यह वास्तविकता है कि अबतक के दंगों, अपराध और विलासिता से युक्त शासन के कारण यूपी की सियासी बयार इस समय सपा सरकार के खिलाफ है. लेकिन, इसके साथ ही यह भी सच्चाई है कि सूबे का एक वर्ग ऐसा है, जो सपा को तो नहीं पर अखिलेश की युवा और कथित विकासोन्मुख छवि को अब भी एक हद तक पसंद करता है. यानी सपा तो नहीं, मगर अखिलेश अब भी यूपी में सपा के पारंपरिक मतदाताओं से इतर एक वर्ग की पसंद हैं. ये अखिलेश का अपना अर्जित किया हुआ मतदाता वर्ग है. अब अगर अखिलेश चुपचाप सपा का सीएम चेहरा बनते हैं तो उनका मतदाता वर्ग उन्हें पसंद करते हुए भी सपा के कारण उनसे दूरी बना लेगा. अब इस सियासी समीकरण का आभास मुलायम सिंह यादव को भी जरूर होगा. संभव है कि इसी के मद्देनज़र उन्होंने ये सारा सियासी बवाल रचा हो, जिससे जनता में ये सन्देश जाए कि अखिलेश पार्टी में रहते हुए भी अब किसी के दबाव में नहीं रहेंगे.
इसे भी पढ़ें: क्या है मुलायम के सामने विकल्पः कैसे बचाएंगे पार्टी को टूटने से?
लेकिन, इससे भी अगर बात नहीं बनी तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अखिलेश एक अलग पार्टी बनाकर चुनाव में उतर जाएं, ताकि उनका जो मतदाता वर्ग है, उसका वोट उन्हें मिल जाए और इधर सपा का पारंपरिक वोट भी मिल जाएगा. ऐसी स्थिति में अगर समीकरण सध गया और वोट सीटों में कन्वर्ट हो गया, तब तो इस सपा के छक्के-पंजे हैं, लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो भी वोटों के इस भारी विभाजन के बाद बाकी दलों का खेल तो कम से कम खराब हो ही जाएगा.
अब बसपा का तो अपना एक निश्चित मतदाता वर्ग है, जो हर हाल में उसकी तरफ ही जाएगा. कांग्रेस के पास खोने को कुछ भी नहीं है. यानी कि सपा के उपर्युक्त समीकरण से सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को ही पहुंचेगा, जो कि इस समय सर्वे आदि के अनुसार प्रदेश में नंबर एक पार्टी बनकर उभर रही है. पर यह भी एक तथ्य है कि अगर भाजपा अपना सीएम उम्मीदवार प्रस्तुत कर दे तो इस समस्या से अवश्य पार पा सकती है.
बहरहाल, बाकी इस पूरे खेल का क्या परिणाम होगा, ये तो चुनाव के बाद पता चलेग, लेकिन उपर्युक्त विश्लेषण से फिलहाल इतना साफ़ है कि यह सारा खेल ही अखिलेश को राजनीतिक स्थायित्व देने की कवायदों का है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.