भारतीय समाजवाद के जनक राम मनोहर लोहिया और उस दौर का समाजवाद सब कुछ असली था और भारतीय जीवन व्यवस्था पर आधारित था. आज का समाजवाद और उसके फर्ज़ी रखवालों ने समाजवाद के नाम पर परिवारवाद की ऐसी बदबू फैलाई है की अब वो पूरे राजनीतिक व्यवस्था को ग्रसित कर चुका है. सत्ता प्राप्ति के लिए लोहिया को ज़िंदा करना और उसके बाद उनके विचारों और दर्शन-शास्त्र की निर्मम हत्या कर देना इनका राजनीतिक पेशा बन चुका है. जीवन भर जिन राजनीतिक कुरीतियों के खिलाफ लोहिया ने आवाज़ उठाई आज उनके तथाकथित चेलों ने उसको भारतीय राजनीति का फैशन बना दिया. पिछड़ों को सामाजिक दलदल से निकालने के नाम पर इन्होंने अपने परिवार और उनके दूर-दूर के रिश्तेदारों को भी राजनीतिक सत्ता की मलाई चखाई. आज लोहिया का समाजवाद हांफ रहा है और अपने अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहा है. जनाजा उनके चेलों ने उठा भी लिया है.
परिवारवाद और जातिवाद की हांडी में पकने वाली इनकी राजनीति आज इनके ऊपर ही भारी पड़ रही है. कल तक जाति के नाम पर लोगों को लड़वाते थे आज आपस में सिर-फुट्टव्वल कर रहे हैं. उत्तरप्रदेश में बाप-बेटे की लड़ाई ने जितनी सुर्खियां बटोरी थीं आज उतनी ही सुर्खियां भाई-भाई के बीच सत्ता की लड़ाई भी बटोर रही है. अर्जुन को हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठकर तेजप्रताप द्वारका जाने की बात कर रहे हैं. लेकिन अगले ही पल सत्ता का मोह उनको वापस खींच लाता है. मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव, तेजप्रताप यादव और तेजस्वी यादव पैटर्न समझिये एक ही है और संघर्ष की जो सीमा है वो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ज्यादा कुछ है नहीं. एक लोहिया थे जो समाज के पिछड़ों के लिए संघर्ष करते थे और आज के तथाकथित लोहियावादी पारिवारिक संघर्ष में उलझे हुए हैं और भी उस सत्ता के लिए जिसको कभी भी लोहिया ने कुछ ख़ास तरजीह दी नहीं.
देश की आज़ादी के बाद जब सभी लोग जश्न में डूबे हुए थे, कांग्रेस के नेता राजनीतिक खाका खींचने में लगे हुए थे. उस समय लोहिया राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ नोवाखली के गलियों की ख़ाक छान रहे थे. बड़े पैमाने पर हो रहे हिन्दू-मुस्लिम दंगों को रोकने का काम कर रहे थे. एक आज के लोहियावादी हैं जो हर वक़्त इसी ताक में रहते हैं कि कैसे सम्प्रदायों को आपस में भिड़ाकर अपनी राजनीतिक हवस की पूर्ती की जा सके. लोहिया ने जिंन्दगी भर कांग्रेस के खिलाफ संघर्ष किया और देश में गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद किया. लेकिन आज तो सत्ता के द्वार तक पहुंचने के लिए कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा की गोदी में बैठना इन फर्ज़ी लोहियावादियों का फैशन बन चुका है.
अब बात करते हैं लोहिया के एक और चेले बिहार के सुशासन बाबू नीतीश कुमार की. इन्हे बिहार में विकासपुरुष कहा जाता है जो की बहुत हद तक सही भी है. जिस बिहार की हालत अफगानिस्तान के किसी प्रान्त की तरह लगती थी, जहां लोग बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीने के लिए मुहाल थे वहां नीतीश ने कम से कम ऑक्सीजन तो पहुंचा ही दी है. फिर भी विकासपुरुष अपने विकास पे भरोसा क्यों नहीं कर पाते. हर चुनाव के पहले ओबीसी के तहत आने वाली जातियों को अनुसूचित जाती वाली श्रेणी में शिफ्ट करना शुरू कर देते हैं. कभी बीजेपी को ट्रिपल तलाक बोलते हैं तो कभी उसी के साथ निकाह हलाला करने को राज़ी हो जाते हैं. माफ़ कीजियेगा नीतीश बाबू ये लोहियावादी चरित्र नहीं है.
कुल मिलाकर लोहिया के बाद के समाजवादियों ने कभी भी उनके आदर्शों का पालन किया ही नहीं. हां अगर कोई बार-बार घोटाले के आरोप में जेल जाने के बाद भी समाजवाद और सामाजिक न्याय की बात करता है तो हो सकता है कि ये नव-समाजवाद हो जो आज के नेताओं की खोज लगती है. पहले अपने सरकारी बंगले को करोड़ों रुपये लगाकर उसको अपने स्तर का बनाना और जब उसको खाली करने का वक़्त आया तो इटालियन मार्बल, टर्किश टाइल्स को अपने साथ उखाड़ के ले जाना ये भी समाजवादियों के आधुनिक कारनामे हैं. आज का समाजवाद अपने लैविश लाइफस्टाइल की धुन में है. तकनीक युग के सारे सुख भोग रहा है जिसका लोहिया और उनके समाजवाद से कोई लेना देना नहीं है.
कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न इंडिया टुडे)
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