45 साल पहले देश में लागू इमरजेंसी ही वो अकेली कड़ी है जो गांधी परिवार को अब भी जोड़े हुए है. संजय गांधी (Sanjay Gandhi Emergengy Tag) की वजह है कि बीजेपी में रहते हुए भी मेनका गांधी (Maneka Gandhi) और वरुण गांधी (Varun Gandhi) को इमरजेंसी के असर से बचना मुश्किल होता है. देखा जाये तो जून का महीना हर साल गांधी परिवार के लिए आता तो खुशियां लेकर ही है, लेकिन फिर भारी भी पड़ने लगता है. राहुल गांधी के बर्थडे 19 जून के चार दिन बाद ही संजय गांधी की पुण्यतिथि पुराने जख्मों को हरा कर देती है, फिर दो दिन बाद ही इमरजेंसी की याद दिलाकर राजनीतिक विरोधी जख्मों को कुरेद कर हर तरीके से जलील करने की कोशिश करते हैं. 1975 और 1980 के ये दो वाकये 2020 तक हर साल गांधी परिवार को एक जैसी पीड़ा का एहसास कराते ही हैं
जैसे एक टीवी कार्यक्रम में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी पर टिप्पणी के बाद विवाद शुरू हुआ, उसी तरह संजय गांधी पर भी कटाक्ष किया गया है - और इससे मेनका गांधी और वरुण गांधी के लिए काउंटर करने में राजनीतिक चुनौती सामने आ खड़ी हुई है.
बीजेपी में मेनका-वरुण के गांधी होने की मुश्किलें
मेनका गांधी भले ही राहुल गांधी को कितना भी कोस लें. वरुण गांधी भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कमतर कर के पेश करने की कोशिश करें - संजय गांधी पर लगे इमरजेंसी के दाग से दूरी बनाना दोनों के लिए नामुमकिन है.
जब भी इमरजेंसी की बरसी पर इंदिरा गांधी की बात होती है, संजय गांधी का भी जिक्र आ ही जाता है - और वो एक खलनायक के तौर पर ही याद किये जाते हैं. 1975 में इमरजेंसी लागू के बाद संजय गांधी ने जिस तरीके से जबरन नसबंदी लागू करने की कोशिश की और प्रधानमंत्री के बिगड़ैल बेटे के तौर पर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया - आपातकाल के सरकारी उत्पात के दस्तावेजों में हर छोटी बड़ी बातें दर्ज हैं - और ये हर बरस बरबस याद आती हैं.
संजय गांधी की राजनीतिक सक्रियता की अवधि भले ही छोटी रही हो, लेकिन सिर्फ...
45 साल पहले देश में लागू इमरजेंसी ही वो अकेली कड़ी है जो गांधी परिवार को अब भी जोड़े हुए है. संजय गांधी (Sanjay Gandhi Emergengy Tag) की वजह है कि बीजेपी में रहते हुए भी मेनका गांधी (Maneka Gandhi) और वरुण गांधी (Varun Gandhi) को इमरजेंसी के असर से बचना मुश्किल होता है. देखा जाये तो जून का महीना हर साल गांधी परिवार के लिए आता तो खुशियां लेकर ही है, लेकिन फिर भारी भी पड़ने लगता है. राहुल गांधी के बर्थडे 19 जून के चार दिन बाद ही संजय गांधी की पुण्यतिथि पुराने जख्मों को हरा कर देती है, फिर दो दिन बाद ही इमरजेंसी की याद दिलाकर राजनीतिक विरोधी जख्मों को कुरेद कर हर तरीके से जलील करने की कोशिश करते हैं. 1975 और 1980 के ये दो वाकये 2020 तक हर साल गांधी परिवार को एक जैसी पीड़ा का एहसास कराते ही हैं
जैसे एक टीवी कार्यक्रम में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी पर टिप्पणी के बाद विवाद शुरू हुआ, उसी तरह संजय गांधी पर भी कटाक्ष किया गया है - और इससे मेनका गांधी और वरुण गांधी के लिए काउंटर करने में राजनीतिक चुनौती सामने आ खड़ी हुई है.
बीजेपी में मेनका-वरुण के गांधी होने की मुश्किलें
मेनका गांधी भले ही राहुल गांधी को कितना भी कोस लें. वरुण गांधी भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कमतर कर के पेश करने की कोशिश करें - संजय गांधी पर लगे इमरजेंसी के दाग से दूरी बनाना दोनों के लिए नामुमकिन है.
जब भी इमरजेंसी की बरसी पर इंदिरा गांधी की बात होती है, संजय गांधी का भी जिक्र आ ही जाता है - और वो एक खलनायक के तौर पर ही याद किये जाते हैं. 1975 में इमरजेंसी लागू के बाद संजय गांधी ने जिस तरीके से जबरन नसबंदी लागू करने की कोशिश की और प्रधानमंत्री के बिगड़ैल बेटे के तौर पर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया - आपातकाल के सरकारी उत्पात के दस्तावेजों में हर छोटी बड़ी बातें दर्ज हैं - और ये हर बरस बरबस याद आती हैं.
संजय गांधी की राजनीतिक सक्रियता की अवधि भले ही छोटी रही हो, लेकिन सिर्फ कांग्रेस की कौन कहे कोई भी राजनीतिक दल संजय गांधी को याद करने तक की जहमत नहीं उठाता है. वरुण गांधी जहां पिता होने के नाते अपने तरीके से याद करते हैं, मेनका गांधी भी पत्नी होने के नाते बीती यादों का जिक्र जरूर करती हैं. ये स्वाभाविक है - क्योंकि ये राजनीति से परे है.
सोनिया गांधी और संजय गांधी दोनों के मामले में कॉमन बात ये है कि एक ही टीवी एंकर ने टिप्पणी की है. टिप्पणी के बाद एंकर के खिलाफ यूथ कांग्रेस ने महाराष्ट्र के कई थानों में शिकायत दर्ज करायी. कांग्रेस के नेताओं ने भी देश भर में कुछ जगह पुलिस में वैसी ही शिकायतें दर्ज करायी थीं. एक टीवी डिबेट में एंकर ने इंदिरा गांधी के बेटे के लिए 'यूजलेस संजय गांधी' बोला है.
कांग्रेस नेता जहां टीवी एंकर की पत्रकारिता को लेकर कठघरे में खड़े कर रहे थे, वहीं सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने अर्णब गोस्वामी पर केस दर्ज कराये जाने की निंदा की. टीवी एंकर से पुलिस कई घंटों तक लगातार पूछताछ कर चुकी है और मामला कोर्ट पहुंच चुका है.
सोनिया गांधी की बात और थी, लेकिन मेनका गांधी और वरुण गांधी फिलहाल बीजेपी में ही हैं - और इमरजेंसी को लेकर दोनों के लिए निजी हमले बर्दाश्त कर पाना राजनीतिक तौर पर भी काफी मुश्किल भरा लगता है.
सबसे बड़ा सवाल है कि अगर मां-बेटे दोनों टीवी एंकर के खिलाफ लीगल एक्शन का रास्ता अख्तियार करते हैं तो क्या होगा - क्या बीजेपी ये जानते हुए भी खामोशी अख्तियार कर पाएगी कि दोनों का स्टैंड पार्टी की पॉलिसी के खिलाफ इसलिए हो रहा है क्योंकि मामला निहायत ही निजी है?
बीजेपी की नजर में वरुण गांधी का जिगरा कैसा है?
बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राजनीति में जिगरा का जिक्र किया है. ये शब्द नड्डा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए इस्तेमाल किया है. नड्डा की नजर में राजनीति में सही फैसला लेने के लिए जिगरा की जरूरत होती है. मध्य प्रदेश की वर्चुअल रैली में जिस तरीके से नड्डा सिंधिया को पेश कर रहे थे, ऐसा लग रहा था जैसे वो कांग्रेस के भीतर घुट रहे नेताओं को ललकार रहे हों - है किसी में सिंधिया जैसा जिगरा जो कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन करने जैसे सही फैसला लेने का जिगरा दिखा सके. पूर्व बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी कांग्रेस के भीतर नेताओं के घुटन की बात की थी, जिस पर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उनको लालकृष्ण आडवाणी और आपातकाल की आशंका वाले उनके बयान के साथ जवाब दिया है.
मध्य प्रदेश की वर्चुअल रैली में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा - 'राजनीति में बोल्ड फैसला लेना और सही फैसले के साथ खड़ा होना, इसके लिए बड़ा जिगरा चाहिए होता है - और वो जिगरा ज्योतिरादित्य सिंधिया जी ने भी दिखाया है.'
जैसे सिंधिया के नाम पर नड्डा कांग्रेस में घुट रहे नेताओं को सलाह दे रहे थे, ठीक वैसे ही अब कई कांग्रेस नेता वरुण और मेनका गांधी को नसीहत देने की कोशिश कर रहे हैं. सवाल ये है कि क्या ये बात वरुण गांधी और मेनका गांधी के लिए भी उतनी ही अहमियत रखती है?
सवाल ये भी है कि जिस कड़ी से फिलहाल गांधी परिवार जुड़ा हुआ लगता है - क्या वो मेनका गांधी और वरुण गांधी को सही फैसले के लिए जिगरा की भूमिका निभा सकती है?
2019 के आम चुनाव के वक्त जब प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस में महासचिव बनाया गया तो वरुण गांधी के भी बीजेपी छोड़ने के कयास लगाये जा रहे थे. वरुण गांधी ने जरा भी रिएक्ट नहीं किया. रिएक्ट किया भी तो बीजेपी का टिकट मिलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने के लिए और अपनी दादी इंदिरा गांधी को नीचा दिखाते हुए.
तब ये माना जा रहा था कि कांग्रेस 2022 के चुनाव में वरुण गांधी को बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर सकती है, लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं - और प्रियंका खुद एक तरीके से मुख्यमंत्री पद की दावेदार के रूप में खुद को पेश कर रही हैं - और कांग्रेस की तरफ से भी ऐसी ही बातें सुनने को मिलती हैं. सवाल सिर्फ जिगरा का नहीं, मुश्किल तो ये है कि कांग्रेस का हाल फिलहाल कोई भविष्य नहीं नजर आ रहा है. कांग्रेस की जो हालत है - और कार्यकारिणी से जो खबर आ रही है उससे तो स्थिति और भी दयनीय लग रही है.
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, केरल में विस्फोटक युक्त फल खाने से हुए हथिनी की मौत पर मेनका गांधी ने राहुल गांधी पर जोरदार हमला बोला था. एक वजह तो राहुल गांधी का वायनाड से सांसद होना रही - और दूसरी वजह प्रधानमंत्री मोदी पर राहुल गांधी के हमलों का पलटवार रही होगी, लेकिन सबसे बड़ी वजह लगी बीजेपी में हाशिये से मुख्यधारा में आने की कोशिश.
दरअसल, माना जाता है कि वरुण गांधी को अमित शाह राजनाथ सिंह का आदमी समझते हैं. एक बार राजनाथ की तारीफ और फिर एक बार नरेंद्र मोदी की रैली में भीड़ को लेकर वरुण गांधी की टिप्पणी इतनी भारी पड़ी कि आज तक उससे वो उबर नहीं पाये.
मई 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने की अभी चर्चा जोर पकड़ रही थी. ये वो दौर था जब नीतीश कुमार भी एडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किये जाने को लेकर लॉबिंग कर रहे थे. तब नीतीश कुमार को पूरी उम्मीद रही कि गुजरात दंगों को लेकर मोदी के नाम पर बीजेपी को छोड़ कर एनडीए के बाकी नेता तैयार ही नहीं होंगे, लेकिन उनको क्या पता कि इतिहास को तो कुछ और ही मंजूर था.
बरेली में एक पब्लिक मीटिंग चल रही थी जिसमें राजनाथ सिंह भी मौजूद थे, वरुण गांधी ने कहा था, 'वाजपेयी जी की सोच बहुत अच्छी थी... उनका शासनकाल देश के हर बच्चे को याद है... मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूं कि आज की तारीख में देश में कोई व्यक्ति जाति और मजहब की दीवार तोड़कर लोगों को साथ ला सकता है तो वो आदरणीय राजनाथ सिंह जी ही हैं.' दूसरा वाकया कोलकाता का है. कोलाकाता में फरवरी, 2014 में नरेंद्र मोदी की एक रैली हुई थी और रैली की भीड़ की खूब चर्चा हो रही थी. तभी वरुण गांधी ने एक और टिप्पणी जड़ दी, 'मीडिया के पास ग़लत आंकड़ा है. ये सच नहीं है कि रैली में दो लाख से ज्यादा लोग आये थे - रैली में 45-50 हजार के बीच लोग आये थे.'
तब वरुण गांधी बीजेपी में महासचिव और पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रभारी हुआ करते थे. जाहिर है, मोदी को कौन कहे अमित शाह को भी ऐसी बातें भला कैसे हजम हो सकती है. बमुश्किल छह महीने बीते होंगे, जैसे ही अमित शाह के हाथ में बीजेपी की कमान आयी, वरुण गांधी को महासचिव और प्रभारी दोनों पदों से हटा दिया गया.
मेनका गांधी और वरुण गांधी दोनों ही बीजेपी के सांसद हैं लेकिन किसी को भी मोदी कैबिनेट 2.0 में जगह नहीं दी गयी है. पहली मोदी सरकार में मेनका गांधी कैबिनेट में शामिल जरूर रहीं. कैबिनेट में जगह की कौन कहे, 2019 के चुनाव में तो जैसे दोनों को टिकट तक के लाले पड़े लग रहे थे. बहरहाल, मेनका गांधी ने एक अच्छा प्रपोजल तैयार कर जैसे तैसे दोनों टिकट मैनैज कर लिया था - आगे का हाल तो सबके सामने ही है!
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