72वें गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में पुलिस और किसानों के बीच हुई हिंसक झड़पों और लाल किले पर 'निशान साहिब' फहराने वाले बवाल के बाद एक ख्याल मन में आया कि अगर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह होते, तो लाल किले पर जो हुआ और शाहीन बाग में जो हुआ था, वो कभी नहीं होता. लेकिन, कुछ ही पलों में मुझे याद आ गया कि देश में मोदी ही प्रधानमंत्री और गृह मंत्री भी शाह ही हैं. ये वाला 'अटपटा ख्याल' मुझे क्यों आया, ये थोड़ा सा दिलचस्प है. 2014 से पहले देश को निराशा के अंधकार से निकाल कर एक नए सूर्योदय की रोशनी में लाने वाले दो गुजरातियों की जोड़ी ने जनता का नैरेटिव कुछ ऐसा सेट कर दिया था कि लोगों को लगने लगा था, यही दोनों कुछ कर सकते हैं. ये ठीक-ठीक कुछ वैसा ही था, जैसा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लेकर लोगों का एक खास नजरिया बन गया था.
पीएम मोदी के लिए लोगों के मन में एक अलग नजरिया बन गया था.
'मैं देश नहीं झुकने दूंगा'
2014 से पहले की सत्ताविरोधी लहर को भाजपा ने अपने पक्ष में मोड़ते हुए 'मोदी लहर' में बदल लिया था. 'सौगंध मुझे इस मिट्टी की, मैं देश नहीं मिटने दूंगा, मैं देश नहीं झुकने दूंगा' को भाजपा ने इस लोकसभा चुनाव अभियान का थीम सांग बनाया था. सभी मुद्दों पर सरकार से उकता चुके लोगों में एक स्थापित जनभावना बन गई थी कि अगर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होते, तो शायद ऐसा नहीं होता. ये जो जनभावना है ना, इसने 2019 में भी कुछ ऐसा ही काम किया था और नरेंद्र मोदी दोबारा इस देश के प्रधानमंत्री बने थे. इस दौरान पीएम मोदी के नेतृत्व में भारतीय सेना ने आतंकवाद को मुंह तोड़ जवाब दिया, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटा दी, दंगों और बवालों पर काफी हद तक रोक भी लग गई थी.
देश की राजधानी के रूप में दिल्ली बीते कुछ वर्षों में बहुत 'कमजोर' होती दिखती है.
क्या अराजकता को मिला है सरकार का मौन समर्थन?
वहीं, कई मामलों पर सरकार 'फेल' होती भी नजर आई. अब गणतंत्र दिवस के दिन वाला मामला ही ले लीजिए. दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर परेड हिंसक हो गई. कुछ लोगों को मौका मिल गया और लाल किले पर सिख समुदाय का प्रतीक 'निशान साहिब' फहरा दिया गया. दुनिया-जहान की कूटनीति और रणनीति की बात करने वाली सरकार इस मामले पर फुस्स पटाखा हो गई. एक मिनट रुकिए, इसमें शाहीन बाग भी तो जोड़ा जाएगा. देश की राजधानी के रूप में दिल्ली बीते कुछ वर्षों में बहुत 'कमजोर' होती दिखती है. धरना-प्रदर्शन के नाम पर होने वाली 'अराजकता' पर मोदी सरकार के रवैये को देखकर लगता है कि इनको सरकार की मौन सहमति मिली हुई है. शाहीन बाग का मामला हो या किसान आंदोलन का दिल्ली की सीमाएं कुछ खास उपद्रवियों का गढ़ बन जाती हैं. किसी मुद्दे को लेकर शुरू हुआ प्रदर्शन कब 'देशविरोधी' हो जाता है, पता ही नहीं चलता.
शाहीन बाग प्रदर्शन के दौरान दिल्ली की एक बड़ी आबादी कई महीनों तक हलकान रही.
CAA विरोधी दंगों के बाद दिल्ली के एक हिस्से शाहीन बाग में कुछ हजार लोग सड़क पर कब्जा कर बैठ गए. दिसंबर, 2019 को शुरू हुए शाहीन बाग प्रदर्शन के आयोजकों में से एक रहे शरजील इमाम को सभी जानते ही होंगे. एक छात्र जो AM में दिए अपने एक भाषण में कहते नजर आए थे कि 'चिकन नेक' के सहारे उत्तर-पूर्व के राज्यों को भारत से अलग किया जा सकता है. इन जैसों के नेतृत्व में शाहीन बाग की रूप-रेखा तैयार की गई थी. इस दौरान दिल्ली की एक बड़ी आबादी कई महीनों तक हलकान रही. लेकिन, सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए और ना ही सरकार की ओर से बातचीत के लिए वहां कोई गया था.
कोरोना काल में केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानून पास किए, जिसके बाद किसानों का गुस्सा भड़क गया.
इससे इतर कोरोना काल में केंद्र की मोदी सरकार ने तीन कृषि कानून पास कर दिए. इसे लेकर किसानों का गुस्सा भड़क गया. किसानों ने भी शाहीन बाग वाला स्थापित मॉडल अपना लिया. लेकिन, इस बार एक नहीं अलग-अलग दिल्ली बॉर्डर पर कई किसान संगठन घेराबंदी में जुट गए. इन किसान नेताओं ने दिल्ली को ब्लॉक करने की लगातार धमकियां दीं. लेकिन, मोदी सरकार के 'कान पर जूं नहीं रेंगी'. दिल्ली की सीमाओं पर दो महीनों से ज्यादा समय से जमे किसान संगठनों को लेकर केंद्र सरकार बैठकों का दौर चला रही थी. आखिर में सुप्रीम कोर्ट के दखल पर केंद्र सरकार ने कहा कि डेढ़ साल के लिए कृषि कानून टाल देंगे. लेकिन, किसान कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े रहे.
किसानों ने 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड निकालने की बात पहले ही कह दी थी. इसके बावजूद सरकार नहीं चेती. आंदोलन को मद्देनजर रखते हुए कोई खास इंतजाम नहीं किए गए. शाहीन बाग से सीख लेते हुए सरकार कुछ तो कर ही सकती थी. लेकिन, ना...केंद्र की मोदी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही. आखिर में वही हुआ, खालिस्तान समर्थकों ने लाल किले पर फतह हासिल कर ली. उस पर 'निशान साहिब' लगाने का मकसद पूरा होते ही खालिस्तान समर्थक दीप सिद्धू भाग गया. मैं तो यही कहूंगा कि दिल्ली के लाल किले पर निशान साहिब फहराने वाले अगर करतारपुर कॉरीडोर का इस्तेमाल कर लेते, तो देश की एक बड़ी समस्या हल हो जाती.
भाजपा की सफल रणनीति का नुस्खा
भाजपा को काफी लंबे समय तक विपक्षी दल बने रहने का सौभाग्य मिला था. लगता है कि इसी अनुभव को आधार बनाते हुए भाजपा ने 2014 के बाद से 'विपक्ष' को खत्म करने की ठान सी ली है. कांग्रेस सरीखा राष्ट्रीय दल अभी अपने नए पार्टी अध्यक्ष को लेकर ही पशोपेश में फंसा है. रणदीप सुरजेवाला जैसे प्रवक्ता किसी भी घटना के बाद केवल इस्तीफा मांगते नजर आते हैं. जनता के बीच जाकर लोगों से बात करने की जहमत अब कोई उठाना ही नहीं चाहता है. वहीं, अगर इस समय भाजपा विपक्ष में होती तो, संसद से लेकर सड़क तक सरकार को घेर चुकी होती.
दरअसल, 2014 के बाद से ही भाजपा ने विपक्ष को कभी एक होने का मौका नहीं दिया. अलग-अलग मुद्दों पर विपक्षी दलों की अलग-अलग राय रही. उदाहरण के तौर पर राम मंदिर का मुद्दा ले लेते हैं. AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी को छोड़ दें, तो कम ही दल होंगे, जो इसके विरोध में रहे. धारा 370 पर भी विपक्ष की आवाज एक सुर में नहीं थी. कुल मिलाकर विपक्ष को पूरी तरह से कमजोर बनाने की रणनीति पर भाजपा सफल रही है. अगर विपक्ष खुद को भाजपा के सामने एक समर्थ प्रतिद्वंदी के रूप में देखना चाहता है, तो उसे जल्द ही इस रणनीति का तोड़ निकालना होगा. वहीं, सुप्रीम ने किसान आंदोलन और दिल्ली हिंसा पर कहा है कि सरकार इस मुद्दे पर आंखें बंद क्यों किए है. सरकार को कुछ तो करना चाहिए. बाकी ट्विटर पर #Salute2DelhiPolice अभी का सबसे ट्रेंडिंग हैशटैग तो बना ही हुआ है.
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