मध्य प्रदेश कांग्रेस में अभी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जो पहली बार हो रहा हो. फर्क बस इतना है कि जो कुछ परदे के पीछे होता आ रहा था वो सबके सामने आ चुका है. 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद तो इससे बड़ी बड़ी बातें और राजनीति हुई थीं, लेकिन तब सबका ध्यान सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहा.
मुख्यमंत्री कमलनाथ ने लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की हार को लेकर इस्तीफे की पेशकश की थी, लेकिन, बकौल कमलनाथ, कांग्रेस नेतृत्व नयी व्यवस्था होने तक पद पर बने रहने को कहा था. अब जबकि कांग्रेस ने अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया है, MPCC को भी नया कमान मिलने की बारी आ गयी है. जाहिर है कमलनाथ तो यही चाहेंगे कि प्रदेश अध्यक्ष उन्हीं के गुट का हो या फिर कम से कम कट्टर विरोधी तो हरगिज न हो.
सोनिया गांधी के फिर से कमान ले लेने के बाद अति संक्षिप्त राहुल-युग की सारी व्यवस्थाएं अस्तित्व खो चुकी हैं - और एक बार फिर वे लोग सक्रिय हो गये हैं जो बरसों से सोनिया गांधी के भरोसेमंद रहे हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया तो राहुल गांधी के बेहद करीबी रहे हैं, जबकि कमलनाथ का पीढ़ियों से चला आ रहा कनेक्शन अभी राहुल गांधी की कृपा का मोहताज नहीं हुआ है.
ज्योतिरादित्य सिंधिया फिलहाल उन नेताओं के लिए मिसाल बने हुए हैं जो नये समीकरण में खुद को मिसफिट पाते हुए जगह बनाने के लिए संघर्षरत हैं - समझने वाली बात ये है कि क्या राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ देने से सिंधिया जैसे नेताओ की मुश्किलें बढ़ी हैं या आगे चल कर घटने वाली हैं?
कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन का कितना असर
कांग्रेस में 2017 के आखिर तक दो-दो पावर सेंटर हुआ करते रहे. तब किसी भी कांग्रेस नेता को ये समझ नहीं आता था कि कौन फाइनल अथॉरिटी है - तभी तो राहुल गांधी ने दागी नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश अचानक मीडिया के सामने आकर फाड़ दिया. वो फैसला तो कैबिनेट का था. अगर राहुल गांधी ने उसे फाड़ कर अध्यादेश की ऐसी तैसी न की होती तो लालू प्रसाद की संसद सदस्यता भी न जाती. समझा गया कि लालू प्रसाद यादव के सोनिया...
मध्य प्रदेश कांग्रेस में अभी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जो पहली बार हो रहा हो. फर्क बस इतना है कि जो कुछ परदे के पीछे होता आ रहा था वो सबके सामने आ चुका है. 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद तो इससे बड़ी बड़ी बातें और राजनीति हुई थीं, लेकिन तब सबका ध्यान सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहा.
मुख्यमंत्री कमलनाथ ने लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की हार को लेकर इस्तीफे की पेशकश की थी, लेकिन, बकौल कमलनाथ, कांग्रेस नेतृत्व नयी व्यवस्था होने तक पद पर बने रहने को कहा था. अब जबकि कांग्रेस ने अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया है, MPCC को भी नया कमान मिलने की बारी आ गयी है. जाहिर है कमलनाथ तो यही चाहेंगे कि प्रदेश अध्यक्ष उन्हीं के गुट का हो या फिर कम से कम कट्टर विरोधी तो हरगिज न हो.
सोनिया गांधी के फिर से कमान ले लेने के बाद अति संक्षिप्त राहुल-युग की सारी व्यवस्थाएं अस्तित्व खो चुकी हैं - और एक बार फिर वे लोग सक्रिय हो गये हैं जो बरसों से सोनिया गांधी के भरोसेमंद रहे हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया तो राहुल गांधी के बेहद करीबी रहे हैं, जबकि कमलनाथ का पीढ़ियों से चला आ रहा कनेक्शन अभी राहुल गांधी की कृपा का मोहताज नहीं हुआ है.
ज्योतिरादित्य सिंधिया फिलहाल उन नेताओं के लिए मिसाल बने हुए हैं जो नये समीकरण में खुद को मिसफिट पाते हुए जगह बनाने के लिए संघर्षरत हैं - समझने वाली बात ये है कि क्या राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ देने से सिंधिया जैसे नेताओ की मुश्किलें बढ़ी हैं या आगे चल कर घटने वाली हैं?
कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन का कितना असर
कांग्रेस में 2017 के आखिर तक दो-दो पावर सेंटर हुआ करते रहे. तब किसी भी कांग्रेस नेता को ये समझ नहीं आता था कि कौन फाइनल अथॉरिटी है - तभी तो राहुल गांधी ने दागी नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश अचानक मीडिया के सामने आकर फाड़ दिया. वो फैसला तो कैबिनेट का था. अगर राहुल गांधी ने उसे फाड़ कर अध्यादेश की ऐसी तैसी न की होती तो लालू प्रसाद की संसद सदस्यता भी न जाती. समझा गया कि लालू प्रसाद यादव के सोनिया गांधी को विदेशी मूल के मुद्दे पर सोपर्ट करने के एहसानों का वो एक तरह से बदला चुकाने की कोशिश रही.
2017 में जब राहुल गांधी ने कुर्सी बाकायदा संभाल ली तो कांग्रेस नेता कम से कम एक मुद्दे पर बड़ी राहत महसूस कर रहे थे कि अगर कोई फैसला लेना होगा तो भटकना नहीं पड़ेगा. अफसोस की बात ये रही कि व्यवस्था लंबी नहीं चल पायी. वैसे ऐसी भी कोई मिसाल अब तक नहीं मिली है जिससे माना जाये कि एक ही पावर सेंटर होने की स्थिति में कोई फैसला समय रहते लिया गया हो.
राहुल गांधी ने घोषित तौर पर नेतृत्व वाले काम छोड़ दिया है - और कमान सोनिया के हाथों में वापस पहुंच गयी है - जाहिर है, राहुल के साथी ताकत में कमी महसूस कर रहे होंगे. जो बातें और फैसले पहले हंसी मजाक में यहां तक कि आंख मारते हुए भी हो जाया करते रहे - अब तो नामुमकिन ही हो चला है. जो बातें राहुल गांधी से उनकी हो सकती थीं, उनके लिए तो अब उन्हें अहमद पटेल जैसे नेताओं की मदद लेनी पड़ रही होगी.
सबसे बड़ा नमूना तो नवजोत सिंह सिद्धू ही हैं. वो लाख कहते रहे कि उनके कैप्टन राहुल गांधी हैं, लेकिन जब कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ उनकी जंग आखिरी पड़ाव पर पहुंची तब तक राहुल गांधी कुर्सी छोड़ चुके थे. लिहाजा अहमद पटेल से मिलने को कह दिया गया - अहमद पटने ने सोनिया के मन की बात सुनी और फैसला सुना दिया. लौटते ही सिद्धू ने इस्तीफा भी भेज दिया. कोई रास्ता भी तो नहीं बचा था. जब आगे भी कोई खोज खबर नहीं हुई और विधानसभा न जाने पर सवाल उठने की बारी आयी तो सिद्धू को खुद ही इजहार-ए-इस्तीफा करना पड़ा और कॉपी कैप्टन को भेजनी पड़ी.
मौजूदा हालात में ज्योतिरादित्य सिंधिया से बेहतर ये बातें कौन समझ सकता है. हो सकता है धारा 370 पर सिंधिया के पार्टीलाइन के खिलाफ जाने की असली वजह भी यही रही हो. धारा 370 हटाये जाने को लेकर सिंधिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले को सपोर्ट करते हुए ट्वीट तो किया ही - CWC की मीटिंग में भी अपनी बात पर डटे रहे.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के बागी तेवर को देखते हुए उनके समर्थक भी खुल कर मैदान में उतर चुके हैं. जब सिंधिया को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए स्क्रीनिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया तो कमलनाथ सरकार में मंत्री इमरती देवी बिफर पड़ीं. मध्य प्रदेश की महिला एवं बाल विकास विभाग मंत्री इमरती देवी ने नेतृत्व के निर्णय पर सवाल उठाते हुए यहां तक कह दिया - महाराष्ट्र में पूछता कौन है?
इमरती देवी ने साफ तौर पर कह दिया - 'इस फैसले से मैं बिल्कुल खुश नहीं हूं... महाराज जानें, पार्टी जाने या राहुल गांधी जानें. अगर महाराज को कोई जिम्मेदारी देनी है तो मध्य प्रदेश में दें. महाराष्ट्र में महाराज को कौन पूछेगा?' ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनके समर्थक महाराज ही कह कर बुलाते हैं. बुलाते तो कुछ कुछ वैसी ही यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी उनके समर्थक वैसे हैं, लेकिन वो 'महाराज जी' कहलाते हैं.
कर्नाटक की आंच से मध्य प्रदेश को बचा लेने के बाद कमलनाथ वैष्णो देवी दर्शन करने जा रहे थे, तभी दिल्ली में रुक कर सोनिया गांधी से मुलाकात कर ली - और जब मीटिंग हुई तो अपनी ओर से जो कुछ भी कहना रहा कह भी दिया. मीडिया के सामने आये तो सिंधिया को लेकर सवाल उठा, कमलनाथ का जवाब रहा कि उन्हें नहीं लगता कि सिंधिया नाराज हैं. बल्कि ये भी कहा कि वो खुद चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी PCC अध्यक्ष का चुनाव हो जाये.
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष को लेकर पार्टी में गुटबाजी तो पहले भी रही है, ताजा हाल ये है कि दिग्विजय सिंह भी भीतर ही भीतर अपनी सियासी चाल चलने लगे हैं - और ये तो जग जाहिर है कि सिंधिया की बात होगी तो कमलनाथ दिग्विजय सिंह का ही पक्ष लेंगे. ऐसा तब भी हुआ था जब ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया को वर्चस्व साबित करने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती रही - और कमलनाथ उसमें रोड़ा अटका दिया करते रहे. वैसे कहा ये जा रहा है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दीपक बावरिया ने संभावित नामों की जो सूची दिल्ली भेजी है उसमें सिंधिया का नाम सबसे ऊपर है. कहने को तो सिंधिया गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भी खासे सक्रिय रहे, लेकिन वो राहुल गांधी की सहयोगी की भूमिका रही. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया. कांग्रेस के चुनाव जीतने के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री और सिंधिया को कुछ दिन होल्ड कर राहुल गांधी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया. सिंधिया के लिए सबसे खराब बाद रही गुना लोक सभा सीट से उनका चुनाव हार जाना, सिंधिया परिवार के लिए अब तक का सबसे बड़ा झटका है. निश्चित रूप से सिंधिया के मन में कमलनाथ को लेकर एक बार फिर अच्छी राय तो नहीं ही बनी होगी, क्योंकि छिंदवाड़ा से उनके बेटे नकुलनाथ तो चुनाव जीतकर संसद पहुंच ही चुके हैं.
राहुल गांधी से पावर सेंटर सोनिया गांधी के यहां शिफ्ट होने के बाद से एक बार फिर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह एक्टिव हो गये हैं - ऐसे में आखिर सिंधिया करे तो क्या करें? अब सिंधिया वही कर रहे हैं जो करना पॉलिटिकली करेक्ट लग रहा होगा.
क्या सिंधिया भी कैप्टन और हुड्डा की राह पर हैं
कुछ मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि जब सिंधिया को महाराष्ट्र भेजे जाने का फैसला किया गया उस वक्त कमलनाथ दिल्ली में ही मौजूद थे. कयास ये लगाये जा रहे हैं कि ऐसे में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमान कमलनाथ के ही किसी करीबी को सौंपे जाने की संभावना बढ़ जाती है - और इस हिसाब से रेस में कमलनाथ के करीबी बाला बच्चन का नाम रेस में आगे माना जा रहा है.
दिग्विजय सिंह गुट अपने तरीके से मुहिम चला रहा है और अजय सिंह और गोविंद सिंह के नाम पर दावेदारी पेश की जा रही है. दिग्विजय सिंह और उनके समर्थक तो शांत नजर आ रहे हैं लेकिन कमलनाथ और सिंधिया समर्थक आमने सामने आ डटे हैं. नतीजा ये हुआ है कि सिंधिया के कई समर्थक किसी और के अध्यक्ष बनाये जाने की सूरत में कांग्रेस छोड़ने की खुली धमकी दे चुके हैं.
तो क्या सिंधिया को भी हक हासिल करने के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके रास्ते आगे बढ़ते हुए भूपिंदर सिंह हुड्डा वाला तरीका अपनाना होगा?
कैप्टन अमरिंदर सिंह के सामने चुनौतियां अलग रहीं. हुड्डा के सामने हालात कैप्टन से काफी अलग हैं. सिंधिया की तो स्थिति ही ऐसी है कि समीकरण ही पूरी तरह पलट गया है. सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद और गौरव गोगोई जैसे युवा नेताओं की पूछ राहुल गांधी के करीबी होने के चलते ही बढ़ी हुई थी. अब राहुल गांधी ने ही मैदान छोड़ दिया तो बाकियों की कौन सुनेगा. कोई दो राय नहीं कि आने वाले दिनों में सचिन पायलट की भी राह ज्योतिरादित्य की तरह ज्यादा मुश्किल हो जाये.
कैप्टन अमरिंदर सिंह जिस प्रताप सिंह बाजवा के खिलाफ लड़े और हटाकर अध्यक्ष की कुर्सी हथिया लिये वो राहुल गांधी के समर्थक थे - और कमान तब सोनिया गांधी के हाथों में थी. हुड्डा इन दिनों राहुल की पसंद अशोक तंवर को हटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और एक बार फिर कमान सोनिया गांधी के हाथ में आ चुकी है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की लड़ाई दोनों से बिलकुल अलग है - सिंधिया भी राहुल गांधी के पसंदीदा रहे हैं और कमान अब उनके हाथ में रही नहीं. जब भी बात कमलनाथ की आएगी सोनिया गांधी तीन पीढ़ियों के रिश्तों को तरजीह देते हुए बात उन्हीं की मानेंगी.
वैसे लगता नहीं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कमनाथ से समझौता करने वाले हैं या हथियार डाल देने वाले. फेसबुक पर पोस्ट किये गये सिंधिया के एक वीडियो से भी ऐसा ही लगता है - बात जब निकल चुकी है तो दूर तलक जाएगी ही.
बड़ा सवाल ये है कि अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया की बात नहीं सुनी गयी तो वो क्या करेंगे? पिता माधवराव सिंधिया की तरह अपनी नयी पार्टी बनाएंगे या फिर पिता की विरासत ढोने की जगह दादी विजयाराजे सिंधिया के दिखाये राष्ट्रवादी रास्ते पर चलने का फैसला करेंगे जहां उनके परिवार के ज्यादातर लोग पहले से ही मौजूद हैं?
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