सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की कैटेगरी से हटाकर अधिकारों की झोली में डाल दिया है. सर्वोच्च अदालत की संवैधानिक पीठ ने एक मत से ये फैसला सुनाया है जिसमें दो बालिगों के बीच सहमति से बनाये गये समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 के प्रावधान को खत्म कर दिया गया है.
ध्यान रहे - सुप्रीम कोर्ट ने दो बालिगों के बीच सिर्फ सहमति से बने संबंध को ही अपराध की कैटेगरी से हटाया है, बाकी बातें बदस्तूर जारी रहेंगी.
नौ साल बाद निकले खुशी के आंसू
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों के अति महत्वपूर्ण फैसलों में से एक सुना रहे थे. अरसे से अपने हक के पक्ष में फैसले का लोगों को बेसब्री से इंतजार था. संविधान पीठ के सभी जजों ने अलग-अलग फैसले सुनाये, हालांकि, सभी एकमत थे. पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थीं. बीते 10 जुलाई को इस मामले की सुनवाई शुरू हुई - और 17 जुलाई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था.
अदालत में नौ साल बाद फिर से वैसा ही नजारा देखने को मिल रहा था. फैसला सुनाये जाते वक्त वहां मौजूद तमाम लोग भावुक हो गये - कुछ की आंखों से सिर्फ आंसुओं की धार टपक रही थी तो कुछ रोने भी लगे थे. वैसे सबके सब खुशी के ही आंसू थे कुछ शांत, कुछ साइलेंट और कुछ हल्के शोर लिये हुए.
धारा 377 को मनमाना करार देते हुए और व्यक्तिगत पसंद को सम्मान देने की बात कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2013 के अपने ही फैसले को पलट दिया. एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के 2009 के फैसले को ही सही ठहराया है.
समलैंगिकता को लेकर सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण...
सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की कैटेगरी से हटाकर अधिकारों की झोली में डाल दिया है. सर्वोच्च अदालत की संवैधानिक पीठ ने एक मत से ये फैसला सुनाया है जिसमें दो बालिगों के बीच सहमति से बनाये गये समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 के प्रावधान को खत्म कर दिया गया है.
ध्यान रहे - सुप्रीम कोर्ट ने दो बालिगों के बीच सिर्फ सहमति से बने संबंध को ही अपराध की कैटेगरी से हटाया है, बाकी बातें बदस्तूर जारी रहेंगी.
नौ साल बाद निकले खुशी के आंसू
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों के अति महत्वपूर्ण फैसलों में से एक सुना रहे थे. अरसे से अपने हक के पक्ष में फैसले का लोगों को बेसब्री से इंतजार था. संविधान पीठ के सभी जजों ने अलग-अलग फैसले सुनाये, हालांकि, सभी एकमत थे. पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थीं. बीते 10 जुलाई को इस मामले की सुनवाई शुरू हुई - और 17 जुलाई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था.
अदालत में नौ साल बाद फिर से वैसा ही नजारा देखने को मिल रहा था. फैसला सुनाये जाते वक्त वहां मौजूद तमाम लोग भावुक हो गये - कुछ की आंखों से सिर्फ आंसुओं की धार टपक रही थी तो कुछ रोने भी लगे थे. वैसे सबके सब खुशी के ही आंसू थे कुछ शांत, कुछ साइलेंट और कुछ हल्के शोर लिये हुए.
धारा 377 को मनमाना करार देते हुए और व्यक्तिगत पसंद को सम्मान देने की बात कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2013 के अपने ही फैसले को पलट दिया. एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के 2009 के फैसले को ही सही ठहराया है.
समलैंगिकता को लेकर सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां
धारा 377 के तहत समलैंगिकता को आपराधिक कृत्य से हटाकर दो बालिगों को सहमति से संबंध बनाने का हक देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसके सामाजिक और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में कई पहलुओं की चर्चा की. सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणियां सिर्फ धारा 377 ही नहीं अंग्रेजों के जमाने के ऐसे तमाम कानूनों के सिलसिले में बेहद महत्वपूर्ण लगती हैं. केंद्र की मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार ने जरूर कुछ कानूनों को खत्म किया है, लेकिन ऐसे अप्रासंगिक कानूनों का अंबार है जिनके होने का आज कोई मतलब नहीं रह गया है.
संविधान द्वारा देश के नागरिकों को मिले मौलिक अधिकारों को सबसे अहम मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणियां की हैं -
1. सहमति से बालिगों के बीच बने समलैंगिक रिश्ते नुकसानदेह नहीं हैं. कोर्ट का कहना रहा कि आईपीसी की धारा 377, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मौजूदा रूप में सही नहीं है.
2. सेक्शुअल ओरिएंटेशन यानी यौन रुझान बायोलॉजिकल है और इस पर किसी भी तरह की रोक संवैधानिक अधिकारों का हनन है.
3. कोई भी अपने व्यक्तित्व से बच नहीं सकता है और इसके लिए समाज अब बेहतर है. मौजूदा हालत में हमारे विचार-विमर्श के विभिन्न पहलू नजर आते हैं.
4. हमारी विविधता को स्वीकृति देनी होगी और इसके लिए व्यक्तिगत पसंद को भी सम्मान देना होगा.
5. LGBTQ के पास भी ऐसे ही समान अधिकार हैं - Right to Life उनका अधिकार है और ये सुनिश्चित करना अदालत का काम है.
6. जीवन का अधिकार मानवीय अधिकार है, जिसके बगैर बाकी अधिकार औचित्यहीन हैं और इसके लिए संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तन जरूरी है.
7. सबको समान अधिकार सुनिश्चित करने की जरूरत है और ऐसा होने देने के लिए समाज को पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिेये.
धारा 377 खत्म नहीं हुई है
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी ऐसी परिस्थितियों में ये कानून पहले की ही तरह लागू रहेगा -
1. अगर दो लोग बालिग हैं और उनके बीच यौन संबंध को लेकर सहमति नहीं है.
2. अगर बच्चों के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाया जाता है.
3. अगर कोई शख्स जानवरों के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाते पाया जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को मनमाना जरूर बताया है, लेकिन इसका कतई ये मतलब नहीं निकाला जाना चाहिये कि इसे रद्द कर दिया गया है.
संविधान पीठ द्वारा कही गयी सबसे खास बात - 'हर बादल में इंद्रधनुष खोजना चाहिए.' दिलचस्प बात ये है कि LGBTQ समुदाय भी ऐसे मौकों पर इंद्रधनुषी झंडा ही लहराता नजर आता है.
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