शरद पवार (Sharad Pawar) ने विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी मुश्किल खत्म कर दी है. बहुत कुछ उलझा भी दिया है. चाहे वो विपक्षी एकजुटता का मामला हो, चाहे तीसरे मोर्चे की कवायद - हमेशा ही प्रधानमंत्री पद (Prime Minister) पर तमाम नेताओं की दावेदारी आड़े आ जाती है. कोशिशें फलने फूलने से पहले ही मुरझा जाती हैं.
ये प्रधानमंत्री पद के दावेदार ही हैं जो विपक्ष को कभी इतना मजबूत होने ही नहीं देते कि वो सत्ताधारी दल को चैलेंज कर सके. फर्क इस बात से कतई नहीं पड़ता कि दिल्ली की गद्दी पर राज संघ और बीजेपी का है या फिर कांग्रेस के नेतृत्व में अकेले या गठबंधन साथियों के साथ.
बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है - आखिर राहुल गांधी और ममता बनर्जी के बीच होड़ भी तो इसी बात को लेकर चल रही है. अगर ममता बनर्जी की तरफ से कोई भी पहल होती है तो राहुल गांधी खलल डाल देते हैं. मुश्किल तो ये है कि राहुल गांधी सिर्फ खलल डाल कर खामोश भी हो जाते हैं. और राहुल गांधी के खलल की अवधि भी बहुत छोटी होती है. उनको छुट्टियों पर भी तो जाना ही होता है.
शरद पवार ने अपनी तरफ से साफ कर दिया है कि विपक्ष का नेतृत्व करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. विपक्ष के नेतृत्व से आशय हमेशा ही प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी से ही होता है. असल में शरद पवार के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती विपक्षी नेताओं का भरोसा जीतने की है, ताकि किसी एक को वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के मुकाबले मैदान में उतार सकें.
शरद पवार की साफगोई भरे बयान का पहला फायदा तो यही होगा कि विपक्ष के तमाम धड़े उनसे बात करने को तैयार होंगे. अब कम से कम किसी को अपने मन की बात शेयर करने में कोई संकोच तो नहीं ही होगा.
और शरद पवार ने भी ये बात काफी देर तक चीजों को लेकर सोचने और मौजूदा हालात को समझने के बाद कही है. थोड़े टालमटोल के बाद...
शरद पवार (Sharad Pawar) ने विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी मुश्किल खत्म कर दी है. बहुत कुछ उलझा भी दिया है. चाहे वो विपक्षी एकजुटता का मामला हो, चाहे तीसरे मोर्चे की कवायद - हमेशा ही प्रधानमंत्री पद (Prime Minister) पर तमाम नेताओं की दावेदारी आड़े आ जाती है. कोशिशें फलने फूलने से पहले ही मुरझा जाती हैं.
ये प्रधानमंत्री पद के दावेदार ही हैं जो विपक्ष को कभी इतना मजबूत होने ही नहीं देते कि वो सत्ताधारी दल को चैलेंज कर सके. फर्क इस बात से कतई नहीं पड़ता कि दिल्ली की गद्दी पर राज संघ और बीजेपी का है या फिर कांग्रेस के नेतृत्व में अकेले या गठबंधन साथियों के साथ.
बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है - आखिर राहुल गांधी और ममता बनर्जी के बीच होड़ भी तो इसी बात को लेकर चल रही है. अगर ममता बनर्जी की तरफ से कोई भी पहल होती है तो राहुल गांधी खलल डाल देते हैं. मुश्किल तो ये है कि राहुल गांधी सिर्फ खलल डाल कर खामोश भी हो जाते हैं. और राहुल गांधी के खलल की अवधि भी बहुत छोटी होती है. उनको छुट्टियों पर भी तो जाना ही होता है.
शरद पवार ने अपनी तरफ से साफ कर दिया है कि विपक्ष का नेतृत्व करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. विपक्ष के नेतृत्व से आशय हमेशा ही प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी से ही होता है. असल में शरद पवार के सामने फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती विपक्षी नेताओं का भरोसा जीतने की है, ताकि किसी एक को वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के मुकाबले मैदान में उतार सकें.
शरद पवार की साफगोई भरे बयान का पहला फायदा तो यही होगा कि विपक्ष के तमाम धड़े उनसे बात करने को तैयार होंगे. अब कम से कम किसी को अपने मन की बात शेयर करने में कोई संकोच तो नहीं ही होगा.
और शरद पवार ने भी ये बात काफी देर तक चीजों को लेकर सोचने और मौजूदा हालात को समझने के बाद कही है. थोड़े टालमटोल के बाद वो ममता बनर्जी से भी मिल ही चुके हैं - और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बुलावे पर वो मीटिंग भी अटेंड कर चुके हैं जहां राहुल गांधी भी मौजूद थे - नये साल 2022 में ये तस्वीर और ज्यादा साफ हो सकेगी अभी इतना तो मान कर चला ही जा सकता है.
ऐसा पहली पहली बार हुआ है
ध्यान देने वाली बात ये है कि पहली बार विपक्षी खेमे का कोई कद्दावर और अनुभवी नेता ऐसी बातें कर रहा है. अब तक चाहे वो मुलायम सिंह यादव रहे हों या फिर कोई और खुल कर कभी नहीं कहा था कि वो विपक्ष को संगठित करना चाहता है, न कि नेता बनना चाहता है.
वैसे ममता बनर्जी भी कहती रही हैं कि नेता कौन हो मुद्दा ये नहीं होना चाहिये, बीजेपी को कैसे हराया जाये फोकस इस बात पर होना चाहिये - लेकिन जैसे ही ममता बनर्जी कांग्रेस को दरकिनार करने की कोशिश करती हैं, साफ हो जाता है कि राहुल गांधी ही उनको रास्ते का रोड़ा समझ में आ रहे हैं.
अगर किसी का सवाल ये है कि क्या शरद पवार का कभी प्रधानमंत्री बनने का मन नहीं हुआ होगा? फौरी जवाब तो यही होगा कि संसद पहुंचने वाला ऐसा कौन राजनीतिज्ञ होगा जिसके मन में कभी ऐसी ख्वाहिश न हुई हो. फिर शरद पवार जैसे बड़े नेता के लिए तो ये स्वाभाविक ही है.
शरद पवार की बातों से ही साफ है कि प्रधानमंत्री तो वो भी बनना चाहते थे, लेकिन नरेंद्र मोदी की तरह कभी आगे बढ़ कर प्रयोग को प्रयास करने का ख्याल नहीं आया. शरद पवार ने मोदी के वाराणसी संसदीय सीट से चुनाव लड़ने का खास तौर पर जिक्र किया है.
तो प्रधानमंत्री बन भी सकते थे: प्रधानमंत्री पद को लेकर शरद पवार का नजरिया नीतीश कुमार से बिलकुल अलग है. नीतीश कुमार मानते हैं कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर कोई किस्मतवाला ही बैठ पाता है. हो सकता है, नीतीश कुमार के मन में ये बात नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने को लेकर आयी हो. वैसे भी नीतीश कुमार खुद को प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी से बेहतर दावेदार मानते रहे हैं.
प्रधानमंत्री पद को लेकर शरद पवार की नजर में भी उदाहरण नरेंद्र मोदी ही होते हैं, लेकिन नजरिया नीतीश कुमार से बिलकुल अलग है. वो अपनी किस्मत से ज्यादा दूरदर्शिता और रणनीति में खामी पाते हैं.
शरद पवार कहते हैं, 'मोदी का बनारस से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला बिल्कुल सही था - क्योंकि उनके पीछे पूरा प्रदेश हो गया... मैंने 14 चुनाव लड़े... इनमें सात लोकसभा के हैं, लेकिन महाराष्ट्र से बाहर चुनाव लड़ने के बारे में सोचा तक नहीं.'
शरद पवार की ख्वाहिशें: शरद पवार ने विपक्ष के नेतृत्व को लेकर अभी जो कुछ भी कहा है, उसे 2019 के आम चुनाव के दौरान भी महसूस किया गया था - और तब ऐसा सिर्फ पवार को लेकर ही नहीं, बल्कि काफी सक्रिय रहे पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के बारे में भी समझा गया था.
चूंकि पश्चिम बंगाल चुनाव में सारे संसाधनों के साथ मोदी-शाह के मोर्चे पर डटे होने के बाद भी बीजेपी की हार हो गयी, शरद पवार की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखा जाने लगा. विपक्ष ही नहीं सत्ता पक्ष को भी शरद पवार की हनक और धमक महसूस होने लगी है - पवार के बयान में डिप्लोमैटिक मैसज को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है.
देखा जाये तो शरद पवार को जितना महत्व ममता बनर्जी दे रही हैं, कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से नहीं दिखायी पड़ा है. सोनिया गांधी तो शरद पवार को इसलिए ज्यादा महत्व देने लगी हैं क्योंकि उनको डर है कि कहीं एनसीपी नेता के सपोर्ट से ममता बनर्जी इतनी मजबूत न हो जायें कि कंट्रोल करना मुश्किल हो जाये.
2024 के आम चुनाव को लेकर बनते राजनीतिक समीकरणों को लेकर शरद पवार से उनकी भूमिका के बारे में पूछा जाता है. वो अपनी तरफ से तस्वीर पूरी तरह साफ करने की कोशिश करते हैं.
लोकसभा चुनावों के बाद संभावित राजनीतिक परिदृश्य के बारे में पूछा गया कि क्या वे विपक्ष का नेतृत्व करेंगे. पवार ने कहा कि वे नेतृत्व करने के बजाए उस व्यक्ति का समर्थन और मार्गदर्शन करना चाहते हैं जो सरकार का नेतृत्व करेगा.
1. शरद पवार ने स्पष्ट करने की कोशिश की है कि वो विपक्ष का नेतृत्व करने की जगह सपोर्ट करना पसंद करेंगे.
2. शरद पवार ने साफ साफ बोल दिया है कि वो विपक्ष को सपोर्ट के साथ मार्गदर्शन करेंगे भी करेंगे. मतलब, विपक्ष की रणनीति कैसी होनी चाहिये. गठबंधन कहां और कैसे किया जाना चाहिये या सीटों के बंटवारे का कोई कॉमन आधार क्या होना चाहिये - ऐसे मसलों को दुरूस्त करना चाहेंगे.
3. शरद पवार ने ये तो कहा है कि वो उस शख्स को सपोर्ट और गाइड करना चाहेंगे जो सरकार का नेतृत्व करेगा, लेकिन ये कौन होगा, मामला अभी काफी उलझा हुआ लगता है.
किंगमेकर बनना कोई राजा-रानी का खेल नहीं
भरोसा कायम करने की कोशिश: प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी छोड़ देने के बाद शरद पवार के किंगमेकर बनने की सिर्फ संभावना नहीं, विपक्ष चाहे तो आंख मूंद कर यकीन भी कर सकता है, अगर किसी कि कोई खास मंशा न हो तो.
अब तक तो यही देखने को मिला है कि ममता बनर्जी कांग्रेस को अलग करके आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन शरद पवार ऐसा नहीं चाहते. नाप तौल जारी है. वो ममता बनर्जी से भी बात कर रहे हैं. उनकी एक एक बात सुन रहे हैं - और बुलावा मिलते ही 10, जनपथ जाने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं. वो ममता बनर्जी का मैसेज मिलने पर विपक्षी बैठकों से कांग्रेस को दूर रखते हैं, लेकिन सोनिया गांधी का संदेश मिलते ही बयान जारी कर देते हैं कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता संभव नहीं है.
जैसे परिवार का मुखिया हर किसी की बात गौर से सुनता है. हर किसी से अकेले में बात करता है. शरद पवार भी अपने एक्शन से ऐसा ही मैसेज देने की कोशिश कर रहे हैं - और विपक्षी नेताओं के लिए सबसे खास संदेश यही है कि वे शरद पवार पर भरोसा कर सकते हैं.
राहुल गांधी या कांग्रेस की विचारधारा: शरद पवार जानते हैं कि ममता बनर्जी क्या चाहती हैं और सोनिया गांधी को क्या पंसद है. शरद पवार के सामने ममता बनर्जी के मुकाबले राहुल गांधी भी हैं और कांग्रेस की विचारधारा भी. वैसे ममता बनर्जी भी तो शरद पवार की तरह ही कांग्रेस से ही निकल कर आयी हैं.
शरद पवार खुद ही बता देते हैं कि कांग्रेस की विचारधारा उनके लिए क्या मायने रखती है और ये समझाने के लिए वो उन परिस्थितियों का जिक्र करते हैं जब उनको नयी पार्टी बनाने का फैसला करना पड़ा था. एनसीपी के गठन को लेकर पवार पूछते हैं कि अगर आपको छह साल के लिए पार्टी से निकाल दिया जाये तो आप और कर भी क्या सकते हैं? कहते हैं, 'कांग्रेस उस विचारधारा का मुख्य आधार थी और इसीलिए कभी इससे दूर जाने के बारे में नहीं सोचा.'
ममता बनर्जी को भी अब ये समझने में आसानी हो सकती है कि शरद पवार के लिए कांग्रेस क्यों मायने रखती है - लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि राहुल गांधी भी शरद पवार के लिए कांग्रेस की विचारधारा जितने ही महत्वपूर्ण हैं.
वैसे शरद पवार को तब जरूर बाध्य हो जाना पड़ेगा जब कांग्रेस राहुल गांधी को फिर से स्थायी तौर पर अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठा दे. तब तो लाख नाकाबिल होने के बावजूद राहुल गांधी कांग्रेस की विचारधारा के औपचारिक प्रतिनिधि होंगे - और पवार के लिए अभी की तरह राहुल गांधी को इग्नोर करना मुश्किल हो सकता है.
यूपीए ही या कुछ और: यूपीए के अस्तित्व को लेकर ममता बनर्जी के सवाल को शरद पवार एक तरीके से खारिज ही कर चुके हैं. खुद तो सीधे सीधे कुछ नहीं बोले, लेकिन ममता बनर्जी के बयान के बाद शिवसेना मुखपत्र सामना के जरिये यूपीए को लेकर जो नजरिये पेश किया गया, उसे पवार के मन की बात ही समझा जाना चाहिये.
सामना में भी तो शरद पवार की राय ही दोहरायी गयी थी कि कांग्रेस के बगैर विपक्ष को खड़ा नहीं किया जा सकता. शिवसेना तो दो कदम आगे बढ़ते हुए राहुल गांधी से यूपीए को मजबूत करने की अपील कर डाली. और शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने तो यहां तक कह डाला कि वो उद्धव ठाकरे से बात करेंगे कि वो भी यूपीए ज्वाइन करने पर विचार करें. सवाल ये है कि क्या संजय राउत के ताजा बयान के बाद उनकी पुरानी बात भूल जाना चाहिये - यूपीए तो किसी एनजीओ की तरह हो गया है.
क्या कांग्रेस को मुख्यधारा में लाने के लिए शरद पवार मददगार बनेंगे, शरद पवार गोलमोल जवाब देकर बात टाल देते हैं - आज जरूरत इस बात की है कि सभी समान विचारधारा वाले लोग एक साथ आयें.
अब ये भविष्य तय करेगा कि यूपीए कायम रहता है या शरद पवार राष्ट्रीय स्तर पर MVA को ही स्थापित करने की कोशिश करते हैं - और सवाल ये भी है कि वो किस किस को मंजूर होगा?
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