महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना (BJP-Shivsena Alliance) 50-50 फॉर्मूले को लेकर एक दूसरे से उलझ रहे हैं. शिवसेना ने लिखित में भाजपा को ये प्रस्ताव दिया है कि आधे-आधे टाइम दोनों पार्टियों के सीएम रहेंगे. भाजपा ने शिवसेना के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है. अब शिवसेना दावा कर रही है कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव से पहले वादा किया था कि बराबर की साझेदारी की जाएगी. उद्धव ठाकरे के करीबी माने जाने वाले शिवसेना नेता हर्शल प्रधान ने फरवरी 2019 की एक टेप भी रिलीज की है, जिसमें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ये कह रहे हैं कि 'सत्ता में दोबारा आने की स्थिति में हमने पदों और जिम्मेदारियों का बराबर बंटवारा करने का फैसला किया है.' ये टेप फडणवीस के उस बयान के बाद सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा था कि शिवसेना को मुख्यमंत्री पद पर बारी-बारी आने का वादा नहीं किया गया था.
शिवसेना बारी-बारी मुख्यमंत्री बनाए जाने का मुद्दा बार-बार उठा रही है. शिवसेना के 53वें स्थापना दिवस पर सामने के संपादकीय में लिखा था- 'महाराष्ट्र और देश की राजनीति में शिवसेना आज धारदार तलवार के तेज से चमक रही है. बीजेपी से युति (गठबंधन) अवश्य है, लेकिन शिवसेना अपने तेवरवाला संगठन है. एक संकल्प लेकर शिवसेना आगे बढ़ी है. इसी संकल्प के आधार पर हम कल विधानसभा को भगवा करके छोड़ेंगे और शिवसेना के 54वें स्थापना दिवस समारोह में शिवसेना का मुख्यमंत्री विराजमान होगा. चलिए, यह संकल्प लेकर काम शुरू करें!' शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत और आदित्य ठाकरे के चचेरे भाई युवा सेना प्रमुख वरुण सरदेसाई कह रहे हैं कि महाराष्ट्र का अगला मुख्यमंत्री शिवसेना का होगा.
शिवसेना लगातार बारी-बारी मुख्यमंत्री बनाने की मांग पर जोर दे रही है, लेकिन भाजपा के अपने पुराने जख्म हैं, जो उन्हें आगे नहीं बढ़ने दे रहे. यही वजह भी है जिसके चलते भाजपा मुख्यमंत्री पद को लेकर 50-50 का फॉर्मूला मानने को तैयार नहीं हो रही है.
भाजपा को मायावती और कुमारस्वामी ने ऐसे धोखे दिए हैं कि 50-50 फॉर्मूले से उसका विश्वास ही उठ गया है.
जब मायावती ने भाजपा को दिया था धोखा
1977 में उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा बनी थी. भाजपा 425 सीटों की विधानसभा में 175 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. मायवती की पार्टी बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था, जिन्होंने 100 सीटों जीती थीं, जिसमें बसपा की 67 सीटें थीं. इसके बाद भाजपा और बसपा के बीच चुनाव के बाद गठबंधन हुआ, जिसकी उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मायावती ने मुख्यमंत्री बनने की मांग रखी. उस समय भाजपा की ओर से यूपी के सीएम पद के उम्मीदवार थे कल्याण सिंह. तब अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी ने कांशीराम से बात करना शुरू किया, जो बसपा के असली बॉस थे. आखिरकार मामला इस बात पर सेटल हुआ कि पहले मायावती 6 महीनों के लिए मुख्यमंत्री बनेंगी और फिर कल्याण सिंह भी 6 महीनों के लिए मुख्यमंत्री बनेंगे.
एक साल पूरा होने के बाद दोनों के नेतृत्व देखते हुए ये तय किया जाएगा कि सीएम की कुर्सी पर बाकी 4 सालों तक कौन बैठेगा. जब मायावती का समय खत्म हुआ और सत्ता कल्याण सिंह को सौंपने का समय आया तो मायवती और कांशीराम ने बहानेबाजी शुरू कर दी. हालांकि, सत्ता ने फिर भी हाथ बदल ही लिए. जैसा मायावती ने भाजपा के साथ उत्तर प्रदेश में किया था, कुछ वैसा ही भाजपा के साथ कर्नाटक में भी हुआ था.
कुमारस्वामी ने भी धोखा ही दिया
बात 2004 की है, जब कर्नाटक चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली. अभी दो साल ही बीते थे कि येदियुरप्पा ने दोबारा ताकत हासिल कर ली जब तत्कालीन मुख्यमंत्री धरम सिंह पर माइनिंग स्कैम के तहत आरोप लगाते हुए जांच शुरू हुई. येदियुरप्पा ने पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी की पार्टी जेडीएस के साथ गठबंधन कर लिया. दोनों में बारी-बारी मुख्यमंत्री बनने के फैसले पर डील तय हो गई. कुमारस्वामी पहले मुख्यमंत्री बने. येदियुरप्पा की बारी 2007 में आई, लेकिन सप्ताह भर बाद ही कुमारस्वामी ने अपना समर्थन वापस ले लिया.
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