महाराष्ट्र (Maharashtra government formation) में तमाम कोशिशों के बाद अब शिवसेना (Shiv Sena) और कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन (Congress-NCP Alliance) की सरकार बनना लगभग तय हो गया है. शिवसेना ने चुनाव तो भाजपा (BJP) के साथ लड़ा, लेकिन मुख्यमंत्री (Maharashtra CM Candidate) पद नहीं मिलने की वजह से एनडीए (NDA) से किनारा कर लिया है. बता दें कि शिवसेना की मांग थी कि आधे-आधे समय दोनों पार्टियों से मुख्यमंत्री बनें, जिस पर भाजपा नहीं मानी. अब शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ बातचीत शुरू कर दी है, लेकिन ये सवाल उठ रहा है कि आखिर ये सरकार कितने दिन चलेगी? एक ओर शिवसेना है, हिंदू विचारधारा वाली, दूसरी ओर कांग्रेस और एनसीपी हैं, सेक्युलर छवि वाली. इनकी तो कुंडली ही मेल नहीं खाती, तो फिर गठबंधन से सरकार बनाने के बाद ये सरकार कितने दिन चलेगी? ये सवाल यूं ही खड़ा नहीं हो रहा, इतिहास गवाह है कि ऐसी सरकारों का हश्र बुरा ही हुआ है.
1- कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के बाद चला कर्नाटक में सियासी नाटक
12 मई 2018 को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव हुआ था. 104 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जबकि कांग्रेस 78 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और जेडीएस को महज 37 सीटें मिलीं. भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली, लेकिन उसके बाद से ही कांग्रेस और जेडीएस में तकरार शुरू हो गई. कर्नाटक में जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाने पर कांग्रेस सिर्फ इस बात से खुश थी कि उसने भाजपा को हरा दिया है. मन ही मन तो वह दुखी थी ही, क्योंकि कम सीटें होने के बावजूद जेडीएस के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद देना पड़ा था. खैर, कांग्रेस को सिर्फ यही खुशी थी कि भाजपा को हराया है, लेकिन वो भी ज्यादा दिन नहीं टिकी. करीब 14 महीने बाद कुछ विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और देखते ही देखते कांग्रेस-जेडीएस के गठबंधन की सरकार गिर गई और वहां भाजपा की सरकार बन गई.
महाराष्ट्र (Maharashtra government formation) में तमाम कोशिशों के बाद अब शिवसेना (Shiv Sena) और कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन (Congress-NCP Alliance) की सरकार बनना लगभग तय हो गया है. शिवसेना ने चुनाव तो भाजपा (BJP) के साथ लड़ा, लेकिन मुख्यमंत्री (Maharashtra CM Candidate) पद नहीं मिलने की वजह से एनडीए (NDA) से किनारा कर लिया है. बता दें कि शिवसेना की मांग थी कि आधे-आधे समय दोनों पार्टियों से मुख्यमंत्री बनें, जिस पर भाजपा नहीं मानी. अब शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ बातचीत शुरू कर दी है, लेकिन ये सवाल उठ रहा है कि आखिर ये सरकार कितने दिन चलेगी? एक ओर शिवसेना है, हिंदू विचारधारा वाली, दूसरी ओर कांग्रेस और एनसीपी हैं, सेक्युलर छवि वाली. इनकी तो कुंडली ही मेल नहीं खाती, तो फिर गठबंधन से सरकार बनाने के बाद ये सरकार कितने दिन चलेगी? ये सवाल यूं ही खड़ा नहीं हो रहा, इतिहास गवाह है कि ऐसी सरकारों का हश्र बुरा ही हुआ है.
1- कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के बाद चला कर्नाटक में सियासी नाटक
12 मई 2018 को कर्नाटक विधानसभा का चुनाव हुआ था. 104 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जबकि कांग्रेस 78 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और जेडीएस को महज 37 सीटें मिलीं. भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली, लेकिन उसके बाद से ही कांग्रेस और जेडीएस में तकरार शुरू हो गई. कर्नाटक में जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाने पर कांग्रेस सिर्फ इस बात से खुश थी कि उसने भाजपा को हरा दिया है. मन ही मन तो वह दुखी थी ही, क्योंकि कम सीटें होने के बावजूद जेडीएस के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद देना पड़ा था. खैर, कांग्रेस को सिर्फ यही खुशी थी कि भाजपा को हराया है, लेकिन वो भी ज्यादा दिन नहीं टिकी. करीब 14 महीने बाद कुछ विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और देखते ही देखते कांग्रेस-जेडीएस के गठबंधन की सरकार गिर गई और वहां भाजपा की सरकार बन गई.
2- भाजपा-पीडीपी की बेमेल दोस्ती
2015 में जम्मू-कश्मीर में चुनाव हुआ तो भाजपा उतरी तो मोदी के चेहरे को लेकर थी, लेकिन मोदी मैजिक चला नहीं. 28 सीटों के साथ पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और 25 सीटों के साथ भाजपा दूसरी बड़ी पार्टी बनी. मौके की नजाकत को समझते हुए भाजपा ने सत्ता में आने के चक्कर में पड़कर पीडीपी के साथ गठबंधन कर लिया. 1 मार्च 2015 को मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जम्मू-कश्मीर के 12वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. 7 जनवरी 2016 को उनका निधन हो गया, जिसके बाद राज्य में संवैधानिक संकट पैदा हो गया. सरकार बनाने के लेकर खींचतान शुरू हो गई और आखिरकार महबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति बनी. इस तरह महबूबा मुफ्ती 4 अप्रैल 2016 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए जम्मू कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. ये दोस्ती बेमेल थी, सभी जानते थे, भाजपा भी... और एक दिन सबने इसे खुलकर स्वीकार भी कर लिया. जून 2018 में भाजपा ने पीडीपी को दिया अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई. इस बेमेल दोस्ती को 40 महीने का वक्त तो मिला, लेकिन पूरे समय दोनों में खटपट होती रही. दोस्ती बेमेल थी, इसलिए उसका हश्र भी बुरा ही हुआ.
3- आप-कांग्रेस के गठबंधन वाली सरकार 49 दिन में गिरी
बात दिल्ली की है. 4 दिसंबर 2013 को हुए चुनाव में भाजपा 31 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. दूसरे नंबर की पार्टी बनी आम आदमी पार्टी, जिसने 28 सीटें जीतीं और कांग्रेस के खाते में महज 8 सीटें गईं. खैर, किसी के भी पास बहुमत नहीं था तो आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने हाथ मिलाया और सरकार बना ली. अभी सरकार को 49 ही दिन बीते थे कि अरविंद केजरीवाल ने लोकपाल बिल पास नहीं हो पाने पर इस्तीफा दे दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा और कांग्रेस मिलकर लोकपाल बिल को पास नहीं होने दे रहे हैं. 2015 में जब दोबारा चुनाव हुए तो केजरीवाल प्रचंड बहुमत से जीते और 67 सीटों पर कब्जा किया.
4- भाजपा-जेडीएस गठबंधन में कुमारस्वामी ने उठाया फायदा
बात 2004 की है, जब कर्नाटक चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना ली. अभी दो साल ही बीते थे कि येदियुरप्पा ने दोबारा ताकत हासिल कर ली जब तत्कालीन मुख्यमंत्री धरम सिंह पर माइनिंग स्कैम के तहत आरोप लगाते हुए जांच शुरू हुई. येदियुरप्पा ने पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी की पार्टी जेडीएस के साथ गठबंधन कर लिया. दोनों में बारी-बारी मुख्यमंत्री बनने के फैसले पर डील तय हो गई. डील के अनुसार कुमारस्वामी पहले मुख्यमंत्री बने. येदियुरप्पा की बारी 2007 में आई, लेकिन सप्ताह भर बाद ही कुमारस्वामी ने अपना समर्थन वापस ले लिया और ये सरकार भी गिर गई. जैसा भाजपा के साथ मायावती ने उत्तर प्रदेश में किया था, वैसा ही कुमारस्वामी ने भाजपा के साथ कर्नाटक में किया.
5- भाजपा-बसपा गठबंधन में मायावती ने दिया धोखा
1977 में उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा बनी थी. भाजपा 425 सीटों की विधानसभा में 175 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. मायवती की पार्टी बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था, जिन्होंने 100 सीटों जीती थीं, जिसमें बसपा की 67 सीटें थीं. बहुमत ना होने की वजह से चुनाव के बाद भाजपा और बसपा के बीच गठबंधन हुआ, जिसकी उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मायावती ने मुख्यमंत्री बनने की मांग रखी. उस समय भाजपा की ओर से यूपी के सीएम पद के उम्मीदवार थे कल्याण सिंह. तब अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी ने कांशीराम से बात करना शुरू किया, जो बसपा के असली बॉस थे. आखिरकार मामला इस बात पर सेटल हुआ कि पहले मायावती 6 महीनों के लिए मुख्यमंत्री बनेंगी और फिर कल्याण सिंह भी 6 महीनों के लिए मुख्यमंत्री बनेंगे. एक साल पूरा होने के बाद दोनों के नेतृत्व देखते हुए ये तय किया जाएगा कि सीएम की कुर्सी पर बाकी 4 सालों तक कौन बैठेगा. जब मायावती का समय खत्म हुआ और सत्ता कल्याण सिंह को सौंपने का समय आया तो मायवती और कांशीराम ने बहानेबाजी शुरू कर दी. हालांकि, सत्ता ने फिर भी हाथ बदल ही लिए. यानी तब भी दो विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों के गठबंधन की सरकार गिरी ही थी.
महाराष्ट्र-हरियाणा के चुनाव का हश्र क्या होगा?
विरोधी विचारधारा की पार्टियों के बीच गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चलता, इसके तो आपने कई उदाहरण देख ही लिए. महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी के साथ शिवसेना का गठबंधन और हरियाणा में भाजपा का जेजेपी के साथ गठबंधन भी विरोधी विचारधाराओं वाला ही है. शिवसेना और भाजपा हिंदूवादी छवि वाली पार्टियां हैं. वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस-एनसीपी सेकुलर राजनीति करती हैं. इधर हरियाणा में जेजेपी ने चुनाव ही भाजपा के खिलाफ लड़ा था, लेकिन जब सरकार बनाने की बात आई तो सब भूलकर एक साथ हो गए. इन दोनों राज्यों में विरोधी विचारधारा एक साथ मिली हैं. देखना दिलचस्प रहेगा कि इनका हश्र क्या होता है.
6- 1989 में केंद्र में बनी थी खिचड़ी सरकार
इस सरकार को खिचड़ी सरकार इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि कांग्रेस का विजय रथ रोकने के उद्देश्य से जनता दल, भाजपा और लेफ्ट पार्टियों ने मिलकर सरकार बनाई थी. जनता दल के पास 143 सीटें थीं, भाजपा के पास 85 और लेफ्ट पार्टियों के पास 52 सीटें थीं. किसी का भी एक दूसरे की विचारधारा सो कुछ लेना देना नहीं था. ये सिर्फ एक महागठबंधन जैसा था, जिसका मकसद कांग्रेस का विजयरथ रोकना था. खैर, इस सरकार का अंजाम वही हुई जो विरोधी विचारधारा के बावजूद गठबंधन से बनने वाली सरकारों का हुआ है. महज 11 महीने बाद ही पहले भाजपा ने अपना समर्थन वापस लिया और फिर चंद्रशेखर भी अपना समर्थन लेकर वापस बाहर निकल गए. नतीजा ये हुआ कि वीपी सिंह की सरकार गिर गई.
7- 1990 में दुश्मन दोस्त बन गए
जिस तरह शिवसेना और कांग्रेस एक दूसरे की कट्टर दुश्मन समझी जाती हैं, ठीक वैसे ही 1990 में चंद्रशेखर भी कांग्रेस के कट्टर दुश्मन माने जाते थे. उन्होंने जनता दल तोड़कर अपनी अलग पार्टी 'जनता दल सोशलिस्ट' बनाई. उनके पास पर्याप्त नंबर नहीं थे, तो उन्हें कांग्रेस का समर्थन मिल गया और वह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए. आपको बता दें कि इस वाकये से करीब साल भर पहले तक चंद्रशेखर ही कहा करते थे कि राजीव गांधी बच्चे हैं, जो गलती से राजनीति में घुस आए हैं. साल भर में ही उनके तेवर बदल गए और वह कांग्रेस के साथ-साथ राजीव गांधी की तारीफ में कसीदे पढ़ने लगे. बता दें तब कांग्रेस ने चंद्रशेखर को बाहर से समर्थन दिया था. तब पीएम तो चंद्रशेखर बने थे, लेकिन हर ओर बातें सिर्फ कांग्रेस की हो रही थीं, मानो राजीव गांधी ने ही पीएम पद की शपथ ली हो. खैर, मार्च 1991 में राजीव गांधी के बाहर दो सीआईडी अधिकारी दिखे, जो हरियाणा के थे. तब हरियाणा के सीएम थे ओम प्रकाश चौटाला, जो चंद्रशेखर के करीबी थी. चंद्रशेखर सरकार पर कांग्रेस ने राजीव गांधी की जासूसी का आरोप लगाया और अपना समर्थन वापस ले लिया. इस तरह नवंबर 1990 में पीएम बने चंद्रशेखर राव को मार्च 1991 में इस्तीफा देना पड़ गया. महज 6 महीने में विपरीत विचारधाराओं वाली दो पार्टियों के गठबंधन से बनी सरकार गिर गई.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ चुनाव के बाद हुए गठबंधन ही असफल रहे, कुछ ऐसे भी गठबंधन थे जो चुनाव से पहले ही हुए और असफल रहे, क्योंकि सरकार गिर गई. हां, इनमें जो बात कॉमन थी, वो ये थी कि ये सभी गठबंधन एक दूसरे की विरोधी विचारधारा वाली पार्टियों के बीच हुए. यहां बात हो रही है सपा-बसपा के गठबंधन वाली सरकार की. 1993 में भाजपा को उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर करने के लिए सपा और बसपा ने विरोधी विचारधारा की पार्टियां होने के बावजूद गठबंधन किया और चुनाव लड़ा. तब यूपी और उत्तराखंड एक थे. कुल 422 सीटों में से सपा 256 सीटों पर लड़ी और बसपा 164 सीटों पर. सपा-बसपा की रणनीति काम कर गई और उनका गठबंधन बहुमत के साथ जीत गया. इसके बाद मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने, लेकिन आपसी मनमुटाव के चलते 2 जून 1995 को बसपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार अल्पमत में आ गई. गुस्से से आग बबूला सपा कार्यकर्ताओं ने लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित गेस्ट हाउस में पहुंच कर मारपीट शुरू कर दी. अजस बोस ने अपनी किताब 'बहनजी' में बताया है कि मायावती को कमरे में बंद कर के पीटा गया था और यहां कि उनके कपड़े फाड़ दिए गए थे. उस दिन को उत्तर प्रदेश की राजनीति में गेस्ट हाउस कांड के नाम से जाना जाता है, जिसकी टीम मायावती के दिल से शायद ही कभी निकल पाए. यानी तब भी विरोधी विचारधारा वाली पार्टियों के गठबंधन की सरकार गिर गई थी और कई गहरे जख्म तक दे गई.
ये भी पढ़ें-
महाराष्ट्र में अयोध्या पर फैसले का फायदा किसे मिलेगा - BJP या शिवसेना को?
अब महाराष्ट्र में शिवसेना के सामने बस एक ही विकल्प बचा है
5 वजहें, जिससे भाजपा को शिवसेना से गठबंधन का अफसोस रहेगा
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.