2019 के चुनाव शिवसेना और भाजपा अलग अलग लड़ेंगे. यह शायद महाराष्ट्र और देश की राजनीति से शिवसेना के अंत की शुरुआत है. जल्दी ही महाराष्ट्र की राजनीति में उथल पुथल की उम्मीद की जा सकती है. हमारे देश में शासन में रहने का मतलब है की पार्टी के लिए फंड आते रहेंगे. अगर राजनीति से पावर और पैसा का प्रलोभन हट जाये तो आपको ये साफ दिख जाएगा कि कितने लोग सिर्फ विचारधारा के बलबुते पर राजनीति से जुड़े रहते हैं. लेकिन शायद उद्धव जी के लिए विकल्प बहुत ही कम बच गए थे. शिवसेना कांग्रेस के साथ बैठ नहीं सकती. या यूं कहें की कांग्रेस सीढ़ी के तौर पर शिवसेना से गठजोड़ नहीं कर पायेगी. अगर ऐसा हुआ तो बचे-खुचे कुछ वोटर भी दूसरे पाले में चले जायेंगे.
उधर सेना प्रमुख को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे की करीबियां भी याद ही होंगी. और अगर सत्ता से बाहर होने के बाद शिवसेना में कोई बंटवारा होता है तो मराठी मानूस की अपनी लाइन के साथ नवनिर्माण सेना फिर से राज्य की राजनीति में वापसी कर सकती है. वैसे भी जब शिवसेना प्रमुख ने महाराष्ट्र में भाजपा के साथ सरकार बनाने की घोषणा की थी तब भी पार्टी में बंटवारे की खबर ज़ोरों पर थी. हो सकता है कि 2019 से पहले उद्धव ठाकरे के सामने वही परिस्थिति फिर से आ जाए.
नारायण राणे का भाजपा में आना सिर्फ एक ट्रिगर हो सकता है- एकमात्र वजह नहीं. शिवसेना और भाजपा के एक साथ होने से तथाकथित हिन्दू वोट में बंटवारा नहीं होता है और दोनों कांग्रेस विरोधी भी हैं. जब तक इधर बाला साहब थे- और उधर वाजपेयी जी थे, तब भाजपा ने शिवसेना के जूनियर पार्टनर का रोल निभाया था. लेकिन इस भाजपा और उस भाजपा में बहुत अंतर है. मोदी जी और अमित शाह जी के नेतृत्व वाली भाजपा ने 2014 के विधानसभा चुनाव में यह साबित कर...
2019 के चुनाव शिवसेना और भाजपा अलग अलग लड़ेंगे. यह शायद महाराष्ट्र और देश की राजनीति से शिवसेना के अंत की शुरुआत है. जल्दी ही महाराष्ट्र की राजनीति में उथल पुथल की उम्मीद की जा सकती है. हमारे देश में शासन में रहने का मतलब है की पार्टी के लिए फंड आते रहेंगे. अगर राजनीति से पावर और पैसा का प्रलोभन हट जाये तो आपको ये साफ दिख जाएगा कि कितने लोग सिर्फ विचारधारा के बलबुते पर राजनीति से जुड़े रहते हैं. लेकिन शायद उद्धव जी के लिए विकल्प बहुत ही कम बच गए थे. शिवसेना कांग्रेस के साथ बैठ नहीं सकती. या यूं कहें की कांग्रेस सीढ़ी के तौर पर शिवसेना से गठजोड़ नहीं कर पायेगी. अगर ऐसा हुआ तो बचे-खुचे कुछ वोटर भी दूसरे पाले में चले जायेंगे.
उधर सेना प्रमुख को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे की करीबियां भी याद ही होंगी. और अगर सत्ता से बाहर होने के बाद शिवसेना में कोई बंटवारा होता है तो मराठी मानूस की अपनी लाइन के साथ नवनिर्माण सेना फिर से राज्य की राजनीति में वापसी कर सकती है. वैसे भी जब शिवसेना प्रमुख ने महाराष्ट्र में भाजपा के साथ सरकार बनाने की घोषणा की थी तब भी पार्टी में बंटवारे की खबर ज़ोरों पर थी. हो सकता है कि 2019 से पहले उद्धव ठाकरे के सामने वही परिस्थिति फिर से आ जाए.
नारायण राणे का भाजपा में आना सिर्फ एक ट्रिगर हो सकता है- एकमात्र वजह नहीं. शिवसेना और भाजपा के एक साथ होने से तथाकथित हिन्दू वोट में बंटवारा नहीं होता है और दोनों कांग्रेस विरोधी भी हैं. जब तक इधर बाला साहब थे- और उधर वाजपेयी जी थे, तब भाजपा ने शिवसेना के जूनियर पार्टनर का रोल निभाया था. लेकिन इस भाजपा और उस भाजपा में बहुत अंतर है. मोदी जी और अमित शाह जी के नेतृत्व वाली भाजपा ने 2014 के विधानसभा चुनाव में यह साबित कर दिया था कि उनकी ज़मीनी स्थिति मजबूत है.
हालांकि वह करीब दो दर्ज़न सीटों पर चूक गई लेकिन यह साबित हो गया की भाजपा, महाराष्ट्र में अकेले चल सकती है. 2014 के चुनावी नतीजे उद्धव ठाकरे की कल्पना से परे थे. विधानसभा और स्थानीय चुनावों में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया. हालांकि इसके आंकड़े नहीं है फिर भी यह लगता है की मुंबई में गुजराती वोट भी भाजपा को मिला. म्युनिसिपल चुनाव से पहले ही ऐसे संकेत मिलने लगे थे की शायद इन दोनों पार्टियों का रास्ता बंट जाएगा.
अब तक शिवसेना ने केंद्र सरकार के लगभग सारे बड़े फैसलों पर विरोधी पार्टियों से भी ज़्यादा सरकार की आलोचना की है. मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस और कुछ वरिष्ठ नेताओं का मानना था कि एनसीपी जैसे दुसरी पार्टियों की अपेक्षा शिवसेना को सहना सही है. साथ ही शायद मुख्यमंत्री सेना में फूट डाल कर अपनी इमेज ख़राब नहीं करना चाहते थे. शायद इन्हीं कारणों से यह गठबंधन इतने दिन चल पाया.
अगर म्यूनिसिपल चुनाव के नतीजों को देखें तो भाजपा ने महाराष्ट्र में कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरी है और अपनी राजनीतिक ज़मीन को सशक्त किया है. शिवसेना भी कुछ जगहों पर भाजपा से पिछड़ गई है. और अब तो यह लगने लगा है कि शिवसेना की लगातार आलोचना का भाजपा की छवि पर, कम से कम राज्य में तो कोई असर नहीं पड़ा है. उल्टे सरकार की तीखी आलोचना करने के बावजूद भी गठबंधन में टिके रहने से खुद सेना की राजनीतिक ज़मीन सिकुड़ गई है.
राजनीति के जानकर शायद यह कहें कि 'यह तो होना ही था'. पर अगर आप यह सोचें की भाजपा से अलग होकर सेना जाएगी कहां- इसका कोई उत्तर नहीं है. जिस पार्टी ने एक समय पर महाराष्ट्र में भाजपा को राजनीतिक ज़मीन मुहैया कराई थी, आज खुद उसके ही पास कुछ ज़्यादा विकल्प नहीं बचे हैं. भविष्य का तो पता नहीं पर इस 'पोस्ट डेटेड पॉलिटिकल डाइवोर्स' में कुछ दिलचस्प मोड़ आ सकता है- देखते रहिये.
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