यदि लोग ये सोच रखते हैं कि एकनाथ शिंदे द्वारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद राज्य में चल रहे सियासी ड्रामे पर विराम लग गया है. तो वो गलत हैं. चूंकि एकनाथ शिंदे तमाम मौकों पर इस बात को दोहरा चुके हैं कि अब बाल ठाकरे की विरासत को वो आगे ले जाएंगे इसलिए तजा विवाद पार्टी के सिंबल को लेकर है. बड़ा सवाल जो अब देश के सामने है वो ये कि एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे में से असली शिव सेना कौन है. साथ ही पार्टी सिंबल पर मालिकाना हक़ किसका है? क्योंकि पार्टी के चिन्ह को लेकर उद्धव और एकनाथ फिर एक दूसरे के आमने सामने हैं इसलिए ये बता देना जरूरी है कि एक ही दल के दो नेताओं में प्रतीकों को लेकर लड़ाई दशकों पुरानी है और इतिहास में ऐसे भी मौके आए हैं जब इस लड़ाई को बार बार देखा गया है. चुनाव आयोग तक पहुंचे अधिकांश विवादों में पार्टी के प्रतिनिधियों, पदाधिकारियों, सांसदों और विधायकों के स्पष्ट बहुमत ने एक गुट का समर्थन किया. जब भी चुनाव आयोग पार्टी संगठन के समर्थन के आधार पर प्रतिद्वंद्वी समूहों की ताकत का परीक्षण करने में नाकाम रहा, तब उसने केवल निर्वाचित सांसदों और विधायकों के बीच बहुमत का परीक्षण किया.
ऐसे मामलों में क्या रहती है चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली?
जब दो धड़े एक ही चुनाव चिह्न पर दावा पेश करते हैं, चुनाव आयोग सबसे पहले पार्टी के संगठन और उसकी विधायक शाखा के भीतर प्रत्येक गुट को मिलने वाले समर्थन की जांच करता है. फिर यह राजनीतिक दल के भीतर शीर्ष पदाधिकारियों और निर्णय लेने वाले निकायों की पहचान करने के लिए आगे बढ़ता है और यह जानने का प्रयास करता है कि उसके कितने सदस्य या पदाधिकारी किस गुट में वापस आते हैं. उसके बाद आयोग प्रत्येक...
यदि लोग ये सोच रखते हैं कि एकनाथ शिंदे द्वारा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद राज्य में चल रहे सियासी ड्रामे पर विराम लग गया है. तो वो गलत हैं. चूंकि एकनाथ शिंदे तमाम मौकों पर इस बात को दोहरा चुके हैं कि अब बाल ठाकरे की विरासत को वो आगे ले जाएंगे इसलिए तजा विवाद पार्टी के सिंबल को लेकर है. बड़ा सवाल जो अब देश के सामने है वो ये कि एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे में से असली शिव सेना कौन है. साथ ही पार्टी सिंबल पर मालिकाना हक़ किसका है? क्योंकि पार्टी के चिन्ह को लेकर उद्धव और एकनाथ फिर एक दूसरे के आमने सामने हैं इसलिए ये बता देना जरूरी है कि एक ही दल के दो नेताओं में प्रतीकों को लेकर लड़ाई दशकों पुरानी है और इतिहास में ऐसे भी मौके आए हैं जब इस लड़ाई को बार बार देखा गया है. चुनाव आयोग तक पहुंचे अधिकांश विवादों में पार्टी के प्रतिनिधियों, पदाधिकारियों, सांसदों और विधायकों के स्पष्ट बहुमत ने एक गुट का समर्थन किया. जब भी चुनाव आयोग पार्टी संगठन के समर्थन के आधार पर प्रतिद्वंद्वी समूहों की ताकत का परीक्षण करने में नाकाम रहा, तब उसने केवल निर्वाचित सांसदों और विधायकों के बीच बहुमत का परीक्षण किया.
ऐसे मामलों में क्या रहती है चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली?
जब दो धड़े एक ही चुनाव चिह्न पर दावा पेश करते हैं, चुनाव आयोग सबसे पहले पार्टी के संगठन और उसकी विधायक शाखा के भीतर प्रत्येक गुट को मिलने वाले समर्थन की जांच करता है. फिर यह राजनीतिक दल के भीतर शीर्ष पदाधिकारियों और निर्णय लेने वाले निकायों की पहचान करने के लिए आगे बढ़ता है और यह जानने का प्रयास करता है कि उसके कितने सदस्य या पदाधिकारी किस गुट में वापस आते हैं. उसके बाद आयोग प्रत्येक खेमे में सांसदों और विधायकों की संख्या की गणना करने के लिए आगे आता है.
उपरोक्त सभी को ध्यान में रखते हुए, चुनाव आयोग या तो गुट के पक्ष में फैसला कर सकता है या उनमें से किसी के भी पक्ष में फैसला नहीं कर सकता है. आयोग पार्टी के चुनाव चिह्न पर भी रोक लगा सकता है और दोनों गुटों को नए नामों और प्रतीकों के साथ पंजीकरण करने के लिए कह सकता है. यदि चुनाव नजदीक हैं, तो वह गुटों को अस्थायी चुनाव चिह्न चुनने के लिएभी बाध्य कर सकता है. यदि गुट भविष्य में एकजुट होने और मूल प्रतीक को वापस लेने का निर्णय लेते हैं, तो चुनाव आयोग को विलय पर शासन करने का अधिकार है और वह एकीकृत पार्टी को प्रतीक को बहाल करने का फैसला कर सकता है.
कब प्रतीकों को चुनाव आयोग द्वारा फ्रीज किया गया
पूर्व में ऐसे तमाम मौके आए हैं जब चुनाव आयोग द्वारा ऐसा किया गया है.
1964- CPI (M) : सबसे पुराना मामला 1964 का है जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का है. एक अलग हुए समूह ने दिसंबर 1964 में चुनाव आयोग से संपर्क किया और उन्हें सीपीआई (मार्क्सवादी) के रूप में मान्यता देने का आग्रह किया. इस गुट ने चुनाव आयोग को आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल के उन सांसदों और विधायकों की सूची प्रदान की जिन्होंने उनका समर्थन किया. चुनाव आयोग ने गुट को सीपीआई (एम) के रूप में मान्यता दी, जब उसने पाया कि 3 राज्यों में अलग-अलग समूह का समर्थन करने वाले सांसदों और विधायकों द्वारा प्राप्त वोटों में 4% से अधिक की वृद्धि हुई.
1968 - कांग्रेस: सबसे हाई-प्रोफाइल प्रतीक मामलों में से एक मामला कांग्रेस का था. पार्टी के भीतर एक प्रतिद्वंद्वी समूह के साथ इंदिरा गांधी का तनाव 3 मई, 1969 को देश की जनता के सामने आया. इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया और पार्टी दो भागों में विभाजित हो गई. पुरानी कांग्रेस (ओ) का नेतृत्व निजलिंगप्पा ने किया था और 'नई' कांग्रेस (जे) का नेतृत्व इंदिरा ने किया था.
चुनाव आयोग द्वारा 'पुरानी' कांग्रेस को एक जोड़ी बैलों का पार्टी चिन्ह सौंपा गया था, जबकि अलग हुए गुट को अपने बछड़े के साथ एक गाय का प्रतीक दिया गया था.
आयोग ने कांग्रेस (ओ) के साथ-साथ अलग हुए गुट को भी मान्यता दी, जिसके अध्यक्ष जगजीवन राम थे. कांग्रेस (ओ) की कुछ राज्यों में पर्याप्त उपस्थिति थी और उसने प्रतीक आदेश के पैरा 6 और 7 के तहत पार्टियों की मान्यता के लिए निर्धारित मानदंडों को पूरा किया.
2017 - एआईएडीएमके : 2017 में, पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता की मृत्यु के बाद, ओ पनीरसेल्वम और वीके शशिकला गुटों के बीच एक नयी तरह की बहस छिड़ गई, दोनों ने पार्टी के चुनाव चिन्ह पर दावा किया.
दोनों पक्षों को सुनने के बाद चुनाव आयोग ने अंतरिम आदेश जारी कर अन्नाद्रमुक के 'दो पत्ते' वाले चुनाव चिह्न पर रोक लगा दी. चुनाव आयोग के आदेश का मतलब था कि दोनों प्रतिद्वंद्वी खेमे तत्कालीन प्रतिष्ठित आर के नगर विधानसभा उपचुनाव के लिए पार्टी के चुनाव चिह्न या उसके नाम का इस्तेमाल कर सकते हैं.
बाद में, आयोग ने पन्नीरसेल्वम-पलानीस्वामी गठबंधन को एआईएडीएमके के 'दो पत्ते' का प्रतीक आवंटित किया, ये तब हुआ जब उन्होंने पार्टी के विधायी और संगठनात्मक विंग में बहुमत को साबित किया.
2021 - लोजपा: 2020 में पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन के बाद, चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के बीच पार्टी (लोक जनशक्ति पार्टी) को नियंत्रित करने की लड़ाई छिड़ गई.
चिराग पासवान ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर दावा किया कि बिहार के कुशेश्वर अस्थान (दरभंगा) और तारापुर (मुंगेर) विधानसभा सीटों पर उपचुनाव से पहले 2021 में पार्टी का 'बंगला' चुनाव चिन्ह है.
चुनाव आयोग ने आयोग ने लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के चुनाव चिन्ह को सील कर दिया और पार्टी के दोनों गुटों में से किसी एक को इस पर लड़ने से रोक दिया.
चुनाव आयोग ने चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को एक हेलीकॉप्टर चिन्ह और पशुपति पारस के नेतृत्व वाले गुट, राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी को एक सिलाई मशीन का चिन्ह आवंटित किया.
उपरोक्त मामलों के बाद ताजा मामला चूंकि शिवसेना का है इसलिए शिवसेना के साथ क्या होता है? हमें केवल और केवल इंतजार करना होगा. वैसे शिवसेना के मामले में दिलचस्प तथ्य ये है कि अभी तक पार्टी सिंबल को लेकर शिंदे और उद्धव में से किसी ने भी चुनाव आयोग का दरवाजा नहीं खटखटाया है.
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