कई बार कुर्बानी मांगी जाती है. कई बार कुर्बानी देनी पड़ती है. कुर्बानी का मतलब, हमेशा जान की बाजी लगाना ही नहीं होता. तरीके और भी होते हैं, लेकिन सारे ही तरीके ऐसे होते हैं कि त्याग करना ही पड़ता है. तकलीफें भी सहनी ही होती हैं - और खास मकसद के लिए बहुत कुछ गंवाना भी पड़ता ही है.
अभी ये सब यूपी के समाजवादी नेता शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) से है. शिवपाल यादव समाजवाद के नाम पर राजनीति करते हैं, लिहाजा समाजवादी नेता तो कहे ही जा सकते हैं, लेकिन अभी समाजवादी पार्टी के नेता नहीं बने हैं - हालांकि, परिवार के नाम पर घरवापसी जैसी परिस्थितियां थोड़ी थोड़ी नजर आने लगी हैं.
हर किसी से तो नहीं, फिर भी परिवार कई बार कुर्बानी मांगता है. खासकर बड़े बुजुर्गों से. मुलायम सिंह यादव के बाद शिवपाल यादव को परिवार में बड़े बुजुर्ग की भूमिका में अचानक आना पड़ा है और जिस तरह से उनकी सुरक्षा में कमी कर दी गयी है, उनके खिलाफ सीबीआई जांच की इजाजत भी दे दी गयी है - मुश्किलें सिर पर मंडराने लगी हैं.
उपचुनाव में परिवार के साथ जाने फैसला तो शिवपाल यादव ने सोच समझ कर ही लिया होगा. डिंपल यादव (Dimple Yadav) का फोन आने पर काफी सोच विचार किया होगा. बहुत आगे पीछे सोचा होगा. किंतु-परंतु वाले तमाम विचार मन में आये-गये भी होंगे. जोखिम तो ऐसे हर फैसले में होता ही है. अगर मकसद पूरा हो गया तो सारी तकलीफें एक झटके में छू मंतर भी हो जाती हैं, वरना कहने की जरूरत नहीं क्या हाल होता है.
अभी तो शिवपाल यादव की सुरक्षा में सिर्फ थोड़ी कमी की गयी है. योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार ने शिवपाल यादव को मिली सुरक्षा जेड से वाई कैटेगरी की कर दी है. होने को तो ये तो जेड प्लस भी हो सकती थी. ये सब कुछ तो राजनीतिक समीकरणों पर निर्भर करता है. बेशक...
कई बार कुर्बानी मांगी जाती है. कई बार कुर्बानी देनी पड़ती है. कुर्बानी का मतलब, हमेशा जान की बाजी लगाना ही नहीं होता. तरीके और भी होते हैं, लेकिन सारे ही तरीके ऐसे होते हैं कि त्याग करना ही पड़ता है. तकलीफें भी सहनी ही होती हैं - और खास मकसद के लिए बहुत कुछ गंवाना भी पड़ता ही है.
अभी ये सब यूपी के समाजवादी नेता शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) से है. शिवपाल यादव समाजवाद के नाम पर राजनीति करते हैं, लिहाजा समाजवादी नेता तो कहे ही जा सकते हैं, लेकिन अभी समाजवादी पार्टी के नेता नहीं बने हैं - हालांकि, परिवार के नाम पर घरवापसी जैसी परिस्थितियां थोड़ी थोड़ी नजर आने लगी हैं.
हर किसी से तो नहीं, फिर भी परिवार कई बार कुर्बानी मांगता है. खासकर बड़े बुजुर्गों से. मुलायम सिंह यादव के बाद शिवपाल यादव को परिवार में बड़े बुजुर्ग की भूमिका में अचानक आना पड़ा है और जिस तरह से उनकी सुरक्षा में कमी कर दी गयी है, उनके खिलाफ सीबीआई जांच की इजाजत भी दे दी गयी है - मुश्किलें सिर पर मंडराने लगी हैं.
उपचुनाव में परिवार के साथ जाने फैसला तो शिवपाल यादव ने सोच समझ कर ही लिया होगा. डिंपल यादव (Dimple Yadav) का फोन आने पर काफी सोच विचार किया होगा. बहुत आगे पीछे सोचा होगा. किंतु-परंतु वाले तमाम विचार मन में आये-गये भी होंगे. जोखिम तो ऐसे हर फैसले में होता ही है. अगर मकसद पूरा हो गया तो सारी तकलीफें एक झटके में छू मंतर भी हो जाती हैं, वरना कहने की जरूरत नहीं क्या हाल होता है.
अभी तो शिवपाल यादव की सुरक्षा में सिर्फ थोड़ी कमी की गयी है. योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार ने शिवपाल यादव को मिली सुरक्षा जेड से वाई कैटेगरी की कर दी है. होने को तो ये तो जेड प्लस भी हो सकती थी. ये सब कुछ तो राजनीतिक समीकरणों पर निर्भर करता है. बेशक व्यक्ति की सुरक्षा को लेकर संभावित खतरे की आशंका ही आधार बनती है, लेकिन फाइनल मुहर तो राजनीति ही लगाती है. और ये सब निर्भर करता है कि आप समीकरणों में कहां तक फिट होते हैं.
शिवपाल यादव ये भी बखूबी जानते ही होंगे कि सीबीआई के निशाने पर होने का क्या मतलब होता है? वो भाई मुलायम सिंह यादव का हाल तो देख ही चुके हैं. समाजवादी पार्टी के झगड़े के दिनों में अक्सर उनके प्रति सहानुभूति दिखाने वाली मायावती को भी कैसे कैसे दिन देखने पड़े हैं, ये भी अच्छी तरह जानते हैं. शिवपाल यादव कभी मुख्यमंत्री नहीं रहे हैं, लेकिन बहुत सारी चीजों को करीब से देखा तो है ही.
जब अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) यूपी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तो सत्ता के गलियारों में चर्चित साढ़े चार मुख्यमंत्रियों में से एक शिवपाल यादव का भी नाम हुआ करता रहा - अखिलेश को हिस्से में आधा ही मिला हुआ था.
अब इसे मुलायम परिवार के लिए कुर्बानी समझें या शिवपाल यादव को कीमत चुकानी पड़ रही है, ऐसा समझें - बड़ा सवाल ये है कि क्या शिवपाल यादव ये सब करने के लिए तैयार हैं? और अगर तैयार भी हैं तो किस हद तक? सिर्फ मैनपुरी उपचुनाव तक ही या फिर उसके आगे भी?
जो मुलायम का हाल रहा, जो मायावती का हाल है
सबने देखा कि किस तरह मुलायम सिंह यादव अपनी सक्रिय राजनीति के आखिरी दिनों में पूरी तरह शांत हो गये थे. 2014 के बाद कई बार देखा गया जब विपक्ष संसद का बहिष्कार करता रहा तब भी वो पूरे परिवार के साथ सदन में बैठे रहते थे. असल में तब पूरी समाजवादी पार्टी से सिर्फ उनके परिवार के पांच लोग ही लोक सभा पहुंचे थे.
2015 के बिहार चुनाव से पहले महागठबंधन के जो भी प्रमुख कर्ताधर्ता थे, मुलायम सिंह भी उनमें से एक थे. यहां तक कि नीतीश कुमार को महागठबंधन के नेता होने की घोषणा भी मुलायम सिंह ने ही की थी, लेकिन उसके फौरन बाद ही पीछे हट गये. मुलायम सिंह यादव को खामोशी अख्तियार कर बैठ जाना पड़ा था.
ये भी देखा ही और महसूस किया जा रहा है कि कैसे मायावती राजनीतिक तौर पर करीब करीब खामोश हो चुकी हैं. सारी राजनीतिक गतिविधियां सिर्फ दिखावे भर रह गयी हैं. अब तो मायावती पर ये भी आरोप लगने लगे हैं कि वो चुनावों में बीजेपी की मददगार बन कर रह गयी हैं. राहुल गांधी का तो कहना है कि बीजेपी के डर के मारे वो कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री पद का ऑफर तक ठुकरा चुकी हैं.
वैसे भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 से लेकर आजमगढ़ उपचुनाव तक चीजों को देखें, तो मायावती पर लग रहे आरोप बिलकुल बेबुनियाद भी नहीं लगते - क्योंकि ये सिर्फ आजमगढ़ उपचुनाव की ही कहानी नहीं है.
अब तो ऐसा लगता है शिवपाल यादव को भी मुलायम सिंह यादव और मायावती की तरह तैयार रहना होगा. तब तो निश्चित रूप से जब वो अखिलेश यादव को मन से नेता मान कर फिर से समाजवादी पार्टी के बन कर रह जाएंगे.
पहले नेताजी, अब छोटे नेताजी
यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के पहले जब समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था तो अखिलेश यादव को 'नेताजी' मान लिया था. असल में मुलायम सिंह यादव को यूपी, खास कर समाजवादी पार्टी में सब लोग नेताजी ही कहा करते थे.
लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद जब चीजें मन के खिलाफ होने लगीं तो वापस भी ले लिये - अब एक बार फिर शिवपाल यादव वैसा ही दिल दिखा रहे हैं, लेकिन उससे थोड़ा छोटा. ये बात भी चुनावी रैलियों के जरिये ही सामने आयी है.
इटावा की एक रैली में शिवपाल यादव और अखिलेश यादव एक साथ मंच पर रहे. ज्यादातर ये कोशिश हो रही है कि बड़ी छोटी छोटी बैठकों में न सही, लेकिन रैलियों में मंच पर डिंपल यादव की हौसलाअफजाई के लिए शिवपाल यादव और अखिलेश यादव साथ साथ रहें.
ये इलाका जसवंत नगर विधानसभा क्षेत्र में आता है, जहां से शिवपाल यादव विधायक हैं. अपने इलाके में शिवपाल यादव को एक अलग ही अंदाज और मिजाज में महसूस किया गया. विशेष रूप से अखिलेश यादव को लेकर.
जैसे मुलायम सिंह को लोग नेताजी कहते रहे हैं, अखिलेश यादव को भैया बोलते हैं. रैली में जब समाजवादी कार्यकर्ता अखिलेश भैया बोल कर संबोधित या नारेबाजी करने लगे तो, शिवपाल यादव ने सबको ऐसा न करने की सलाह दे डाली. पहले तो एक पल के लिए सब चौंक पड़े लेकिन अगले ही क्षण शिवपाल यादव का नया रूप सामने आ गया.
शिवपाल यादव ने कार्यकर्ताओं से कहा कि वो अखिलेश भैया नहीं, बल्कि उनको छोटे नेताजी कह कर संबोधित करें. बोले, नेताजी के निधन के बाद ये पहला चुनाव है... जैसे नेताजी को आप सभी का प्यार मिला वैसे ही छोटे नेताजी को भी मिलना चाहिये.
विधानसभा चुनाव के दौरान ही शिवपाल ने कहा था कि वो नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव की ही तरह अखिलेश यादव को भी अपना नेता मान चुके हैं - लेकिन बाद में जब अखिलेश यादव की तरफ से तवज्जो मिलना कम हो गया तो मन भटकने लगा था.
ऐसा लग रहा है कि शिवपाल यादव अब अखिलेश यादव को नेता मान लेने का फैसला कर चुके हैं!
अब चाहे जो हो जाये!
बेशक शिवपाल यादव परिवार के साथ फायदे में रहेंगे. गुजरा हुआ जमाना दोबारा तो आता नहीं. हिस्सेदारी जरूर कम हो जाएगी, लेकिन कुछ चीजें तो निश्चित रहेंगी. फिर भी आगे बढ़ कर यानी दायरे को बढ़ा कर देखें तो ज्यादा फायदा हो सकता है.
शिवपाल यादव ने हमेशा ही मुलायम सिंह यादव के प्रतिनिधि के रूप में काम किया. कार्यकर्ताओं और मुलायम सिंह यादव के बीच बेहतरीन संपर्क सूत्र बने रहे, लेकिन अलग से अपना कोई जनाधार या पार्टी पर पकड़ नहीं बना पाये. जो कुछ बनाये भी थे, सत्ता के हस्तांतरण के दौरान समझ नहीं पाये, और सारी चीजों से हाथ धो बैठे.
शिवपाल यादव के लिए फिलहाल सबसे बड़ी चिंता बेटे आदित्य यादव के भविष्य को लेकर है. अगर बेटा अपने बूते कुछ नहीं कर पाया तो दूसरी किसी पार्टी में टिकना काफी मुश्किल होगा - लेकिन परिवार के साथ रहेगा तो बेड़ापार तो हो ही जाएगा.
चुनावों के बाद जब अखिलेश यादव से दूरियां बढ़ने लगीं तो धीरे धीरे शिवपाल यादव को बीजेपी के करीब देखा जाने लगा था. कई बार तो ऐसा भी लगा जैसे वो बीजेपी ज्वाइन की ही कर लेंगे - लेकिन बात जहां कहीं भी अटक गयी हो, बात नहीं बन पायी. जैसे अपर्णा यादव के मामले में हुआ.
वैसे भी बीजेपी के हिसाब से देखें तो अपर्णा यादव और शिवपाल यादव में फर्क तो है ही. समाजवादी पार्टी में रहते हुए भी अपर्णा यादव तमाम मौकों पर मोदी-मोदी किये रहती थीं - मोदी के साथ अपर्णा यादव की सेल्फी का वाकया तो सबको याद होगा ही.
बाद में तो अपर्णा यादव ने बीजेपी बस औपचारिक तौर पर ज्वाइन किया है, बीजेपी तो उनके मुलायम परिवार के राजनीतिक माहौल में भी अपना ही मानती रही होगी. ऐसा कोई भाव शिवपाल यादव की तरफ से तो कभी नहीं मिला.
वो तो समाजवादी पार्टी के झगड़े के बाद जब शिवपाल यादव अपने बूते कुछ नहीं कर पाये तब जाकर बीजेपी की तरफ देखने लगे. 2017 के विधानसभा चुनाव में शिवपाल यादव कहीं न कहीं बीजेपी के लिए अखिलेश यादव के खिलाफ मददगार तो बने ही होंगे, तभी तो बंगला और सिक्योरिटी मिली थी - ऐसा प्यार इकतरफा तो कभी नहीं ही होता. राजनीति में तो कतई नहीं.
और उन सरकारी सुविधाओं में कमी भी उसी चीज को साबित कर रही है, जो चीजें जिस फायदे के लिए दी गयी थी. अगर नहीं मिलेगा तो वापस हो जाएंगी. शिवपाल यादव के साथ फिलहाल हो तो ऐसा ही रहा है.
आगे इससे बुरा भी हो सकता है? जितने नुकसानदेह लगेंगे, सत्ता पक्ष से उतना ही नुकसान उठाना पड़ेगा.
और ये भी शिवपाल यादव को ही तय करना पड़ेगा कि वो अपनी राजनीतिक लड़ाई की दिशा और दशा कैसा चाहते हैं. संघर्ष तो अपनी राजनीति के लिए भी करना ही पड़ रहा है. राजनीतिक विरासत को बनाये रखने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है - और अगली पीढ़ी के लिए भी जरूरी इंतजाम तो करने ही होंगे. अब तक तो कहीं कोई उम्मीद दिखायी नहीं पड़ी है.
ये लड़ाई शिवपाल यादव अकेले भी लड़ सकते हैं. चाहें तो ये लड़ाई परिवार के साथ मिल कर भी लड़ सकते हैं - और एक विकल्प ये भी है कि लड़ाई बीजेपी या किसी और राजनीतिक दल के मंच से लड़ें.
जिस किसी भी मंच से लड़ाई लड़ें, शिवपाल यादव को बदले में उसी हिसाब से प्रसाद मिलेगा. अगर पार्टी सत्ता में है तो वैसी सुविधायें मिलेंगे - और अगर विपक्ष की राजनीति करनी हो तो उसके अलग तौर तरीके होते हैं और उसी हिसाब से नफे नुकसान भी होते हैं.
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