महाराष्ट्र की राजनीति में एक वक्त था बाला साहेब ठाकरे का. ये वो वक्त था, जब ठाकरे की तूती बोलती थी. बल्कि कह लीजिए कि उनकी इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था. जनता का भी खूब साथ मिलता था. भले ही शिवसेना गठबंधन में ही चुनाव लड़ती रही, लेकिन हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रही. हर बार अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा, जबकि गठबंधन में दूसरी पार्टी को कम सीटें दीं. लेकिन अब ये तस्वीर बदल गई है. 2019 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना-भाजपा गठबंधन में चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन शिवसेना के पास महज 124 सीटें हैं, जबकि भाजपा 164 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. यानी कल तक शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में थी, लेकिन अब वो जगह भाजपा ने ले ली है. रही बात शिवसेना की, तो शिवसेना की रैलियों में अक्सर उनके चुनाव चिन्ह तीर-धनुष के अलावा दिखने वाला शेर अब सिर्फ पोस्टरों की शान बढ़ाने वाला बनकर रह गया है. तभी तो उद्धव ठाकरे ने मान लिया है कि सिर्फ सत्ता में बने रहने के लालच भर के लिए उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन किया है और कम सीटें मिलने के बावजूद संतुष्ट हैं.
जब तक बाला साहेब ठाकरे थे, जब तक शिवसेना का शेर गरजता था, सिर्फ पोस्टर की शोभा नहीं बढ़ाता था. उसकी गर्जना सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि पूरे देश में गूंजती थी, लेकिन अब यूं लग रहा है कि शेर में जान ही नहीं बची हो. मौजूदा हालात देखकर लग रहा है मानो शेर के जंगल पर भाजपा ने कब्जा कर लिया हो और उस शेर को अपनी ही जान बचाने के लिए भाजपा के पिंजरे में जाना पड़ रहा है. हाल ही में सामना को दिए एक इंटरव्यू में उद्धव ठाकरे ने कहा है कि शिवसेना की पहचान शेर है और शेर हमेशा शेर ही रहता है, वक्त पड़ने पर गरजता है. वैसे शिवसेना या यूं कहें कि उद्धव ठाकरे अब सिर्फ सामना के शेर बनकर रह गए हैं, क्योंकि पिंजरे में गरजते हुए शेर को देखकर लोग डरते नहीं, बल्कि तालियां बजाते हैं और सारा क्रेडिट भी शेर को मिलने के बजाए रिंगमास्टर को चला जाता है.
उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में समझौता करते हुए कम सीटों पर लड़ने का फैसला किया है.
एक के बाद एक चुनावों में गिरती गई शिवसेना
शुरुआत करते हैं 2004 से. भाजपा और शिवसेना ने गठबंधन में चुनाव लड़ा. भाजपा को सिर्फ 111 सीटें मिलीं, जबकि शिवसेना ने 163 सीटों पर चुनाव लड़ा. भाजपा 54 जीती और शिवसेना 62. वोट शेयर की बात करें तो भाजपा को 13.67 फीसदी वोट मिले, जबकि शिवसेना को 19.97 फीसदी वोट मिले. हालांकि, शिवसेना-भाजपा का गठबंधन हार गया और कांग्रेस-एनसीपी जीत गई.
2009 में फिर से भाजपा और शिवसेना ने गठबंधन में चुनाव लड़ा. इस बार भाजपा ने थोड़ा बार्गेनिंग करने की कोशिश की और 119 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से 46 पर जीत हासिल की. लेकिन इस बार भी 2004 की तरह ही बड़े भाई की भूमिका में शिवसेना ही रही और उसने 160 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से 45 पर जीत हासिल की. अब अगर वोट पर्सेंटेज देखें तो भाजपा का वोट शेयर मामूली बढ़कर 14.02 हो गया, जबकि शिवसेना का वोट शेयर करीब 3 फीसदी गिकर 16.26 पर पहुंच गया. यहीं से भाजपा में एक विश्वास जगा.
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत से जीत हासिल की थी. पूरे देश में मोदी लहर थी. भाजपा का कॉन्फिडेंस भी सातवें आसमान पर था. इस बार वह पूरे मूड में थी कि विधानसभा चुनाव में शिवसेना से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेगी. यहां तक कि अपनी मंशा भाजपा ने लोकसभा चुनाव में ही दिखा दी थी. भाजपा ने 24 सीटों पर चुनाव लड़ा और 20 सीटें शिवसेना को दीं. शिवसेना तब तो मान भी गई, लेकिन विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटों पर लड़ने के लिए अड़ गई. भाजपा मान भी गई और 148 सीटें शिवसेना को दीं. लेकिन शिवसेना 151 सीटों को लेकर जिद पर अड़ी रही और आखिरकार चुनाव से पहले ही गठबंधन टूट गया. दोनों पार्टियों ने अकेले-अकेले चुनाव लड़ा. भाजपा 260 सीटें पर लड़ी और शिवसेना 282 सीटें पर. यहां एक बार फिर भाजपा ने शिवसेना के इलाके में घुसकर कब्जा किया. भाजपा 122 सीटें जीत कर सबसे अधिक सीटें जीतने वाली पार्टी बनी, लेकिन शिवसेना के हिस्से में महज 63 सीटें आईं. भाजपा का वोट शेयर बढ़कर 27 फीसदी पहुंच गया, जबकि शिवसेना का वोट शेयर महज 19 फीसदी पर रुक गया. उद्धव ठाकरे समझ गए कि उनका गुजारा बिना भाजपा के हो नहीं सकता. हिंदू छवि होने की वजह से सेकुलर कांग्रेस या एनसीपी के साथ भी नहीं जुड़ सकते थे. आखिर चुनाव के बाद भाजपा को समर्थन दिया और पावर में बने रहे.
पहली बार कम सीटों पर लड़ना पड़ रहा चुनाव
अब 2019 का विधानसभा चुनाव होने वाला है. भाजपा इतने दिनों में ये समझ चुकी है कि शिवसेना का वो रुतबा नहीं रहा, जो बाला साहेबा ठाकरे के वक्त था. भाजपा ये भी जानती है कि शिवसेना सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को हर हाल में समर्थन देगी. तभी तो, हर बार बड़ा भाई बनने वाली शिवसेना को इस बार भाजपा ने छोटा कर दिया है. भाजपा 164 सीटों पर चुनावी मैदान में है, जबकि शिवसेना को सिर्फ 124 सीटें दी हैं. ये पहली बार है जब गठबंधन में शिवसेना अपनी सहयोगी पार्टी से कम सीटों पर चुनाव लड़ने को राजी हुई है. वजह भी वह बता ही चुके हैं, कि पावर में बने रहने के लिए उद्धव ठाकरे ने समझौता किया है. अब जरा खुद ही सोचिए, ऐसा कौन सा शेर होगा, जो अपने ही जंगल में किसी दूसरे शेर-हाथी या किसी से भी डर जाए. जब शेर ही डर जाए तो राजा काहे बात का.
शिवसेना को किनारे लगाना चाहती है भाजपा !
अब शिवसेना की सिर्फ बातों में शेर के किस्से सुनाई देते हैं. शिवसेना का एटिट्यूड तो अब शेर जैसा रहा नहीं. वैसे चुनावी समीकरण देखें तो ऐसा लगता है कि भाजपा की कोशिश भी इस शेर को काबू में करना था, जिसे उसने कर भी लिया है. और कहते हैं ना कि शिकंजा ढीला नहीं पड़ने देना चाहिए. शिवसेना ने इस बार भाजपा से बार-बार एक ही गुहार लगाई कि उन्हें पुणे, नासिक और नागपुर की कम से कम एक सीट पर चुनाव लड़ने दिया जाए, ताकि इन इलाकों में उनकी मौजूदगी बनी रहे, लेकिन भाजपा ने कोई भी दया नहीं दिखाते हुए उनकी मांग को सिरे से नकार दिया.
आपको बता दें कि 2014 में भाजपा इन तीनों जगहों से हर सीट पर जीती थी. यहां शिवसेना को मौका देने का मतलब था कि शिवसेना फिर से कोई चाल चल सकती थी. वैसे भी, शिवसेना ने पिछले 5 सालों में सत्ता में रहते हुए एक विभीषण की भूमिका निभाई है. ध्यान दें तो ये समझ आता है कि भाजपा धीरे-धीरे शिवसेना को किनारे तो कर ही चुकी है और जैसी हरकतें शिवसेना ने पिछले 5 सालों में की हैं, हो सकता है अगले 5 सालों में भाजपा की ओर से शिवसेना को गठबंधन से ही बाहर पटक दिया जाए. जब बात जिंदा बचे रहने की आती है तो जंगल का राजा शेर भी पिंजरे में करतब दिखाता नजर आता है.
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