महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की सरकार बननी तय हो गई है, मगर शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे के घर मातोश्री के बाहर दिनभर सन्नाटा पसरा रहा. पहले जब शिवसेना की जीत होती थी तो पूरे इलाके में ट्रैफिक रोक दिया जाता था और बड़े-बड़े ऊंचे भगवा झंडों से पूरा इलाका भगवा हो जाता था. मगर आज मातोश्री पर इक्के-दुक्के समर्थक पहुंचे जो जबरदस्ती शिवसेना के नारे लगा रहे थे. मातोश्री के बाहर 10-12 पुलिस वाले थके अंदाज में कुर्सियों पर ऊंघ रहे थे. समर्थकों से ज्यादा मीडिया वालों की भीड़ थी. मुंबई के शिवसेना दफ्तर में भी जो समर्थक पहुंचे थे उनमें जोश के नाम पर कैमरे के आगे नारे लगाना भर दिख रहा था. जब सरकार बननी तय हो और जश्न मनाने का दिल न करे तो सोचिए क्या स्थिति होती होगी. कुछ इन्हीं हालातों में आज शिवसेना मतगणनाओं के दौर में गुजरती रही.
मातोश्री के आंगन में ठाकरे परिवार का नया सितारा उदय हो रहा था आदित्य ठाकरे. शिवसेना को लगा कि बाला साहब ठाकरे के जाने के बाद हो सकता है कि शिवसैनिकों के दिल में ऐसा बैठा हो कि राजनीति में सीधे हमारा नेतृत्व करने वाला कोई नहीं दिख रहा है इसलिए शिवसेना ने ठाकरे परिवार की चौथी पीढ़ी को वर्ली विधानसभा सीट से अपने मौजूदा विधायक सुशील शिंदे का टिकट काटकर चुनाव मैदान में उतार दिया. मगर उससे कोई फर्क नहीं पड़ा और शिवसेना को पिछली बार की 63 सीटों से भी कम सीटों पर संतोष करना पड़ा. मातोश्री में जश्न नहीं मनने की एक बड़ी वजह यह भी है कि उन्हें लग रहा था कि 100 सीटों के आसपास हमारा आंकड़ा रहेगा और हम 5 सालों में ढाई-ढाई साल की कुर्सी बांटकर ठाकरे परिवार के राजनीतिक वारिस आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बना लेंगे पर फिलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा है, क्योंकि मौजूदा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने साफ कर दिया है कि हमारा स्ट्राइक रेट साथियों से बेहतर है. जब आप उम्मीदें ज्यादा पाल लेते हैं और फिर वो पूरी नहीं होतीं तो सफलता की मिठास कम हो जाती है.
बाल ठाकरे के दौर में उनके निवास मातोश्री पर मजमा लगा रहा था, लेकिन गुरुवार शाम 5 बजे चुनाव नतीजे आने के बाद भी यहां सन्नाटा पसरा रहा.
शिवसेना के उद्धव ठाकरे के घर के बाहर का सन्नाटा यह बताने के लिए काफी था कि शिवसेना अपने दौर के सबसे चुनौतीपूर्ण समय से गुजर रही है. शिवसेना कि जब सीटें इतनी भी नहीं आती थीं तब भी मातोश्री की धमक मुंबई की राजनीति में रहती थी और पूरा इलाका भगवा झंडों से पटा रहता था, क्योंकि बाल ठाकरे अपने फैसलों पर अडिग रहने वाले इंसान थे. चाहे मुसलमानों के खिलाफ बोलना हो या फिर पाकिस्तान के खिलाफ, चाहे इमरजेंसी का समर्थन करना हो या फिर हिटलर को हीरो बताना हो, बाल ठाकरे की एक सोच थी और शिवसैनिक उस सोच के दीवाने थे. ठाकरे के जाने के बाद उनके बेटे उद्धव ठाकरे में शिवसैनिकों को वो आग नहीं दिखती है, जिसकी ज्वाला में शिवसैनिक जलने के लिए अभ्यस्त हो गए थे.
उद्धव ठाकरे ने बड़े थके अंदाज में राम मंदिर के लिए अयोध्या की यात्रा की, मगर रस्मअदायगी से ज्यादा नहीं दिखी. जब शिवसेना की पूरी राजनीति ऋणात्मक सोच पर निर्भर हो, शिवसेना ने अपनी पूरी राजनीतिक यात्रा ही नेगेटिव मेंटालिटी के साथ की हो, तब इससे आगे बढ़ने का दायरा सीमित हो जाता है. शिवसेना इसी हालात से गुजर रही है. पार्टी के पास ले देकर बाला साहब ठाकरे के बेटे और पोते तो हैं, मगर उस नेगेटिव फंडामेंटलिज्म की धमक नहीं है, जिसे शिवसैनिक इंजॉय करते थे. उद्धव ठाकरे की उपलब्धि यही रही है कि वह बाला साहब ठाकरे के बेटे हैं और आदित्य ठाकरे की उपलब्धि यही रही है कि उन्होंने रोहिंटन मिस्त्री की किताब 'सच्च ए लोंग जर्नी' का विरोध यूनिवर्सिटी में किया और बाला साहब ठाकरे को लगा कि मेरा पोता मेरे रास्ते पर चलने के लायक है, इसलिए शिवसेना में युवाओं का एक नया विंग बनाकर उसके मुखिया बना दिए गए. आदित्य जब राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय हुए तो शिवसैनिकों को कहकर उनसे राज्य भर में 75 रैलियां करा दी गईं. अगर ऐसे नेता बनना होता तो सभी राजनीतिक परिवारों के वारिस अपने-अपने बेटों को बड़ा नेता बना डालते.
बाल ठाकरे के जाने के बाद शिवसेना की धमक लगातार गिरती गई है.
शिवसेना के लिए बीजेपी के अंदर अपनी बारगेनिंग पावर का इस्तेमाल कर सत्ता में बने रहने से बड़ी चुनौती महाराष्ट्र के लोगों के दिल में जगह बनाने की है. अगर सीटों के बंटवारे को लेकर देखें तो डेढ़ सौ सीटों पर लड़ी बीजेपी जितनी सीटें जीती है, उसे वह अपने लिए बेहतर स्ट्राइक रेट वाला बता रही है, मगर 126 सीटों पर लड़ी शिवसेना का स्ट्राइक रेट अच्छा नहीं कहा जा सकता है, इसलिए बीजेपी कह सकती है कि सेना को जीतने के लिए बीजेपी का सहारा मिला है और बीजेपी के हारने के लिए शिवसेना जिम्मेदार है.
बीजेपी और शिवसेना की दोस्ती और दुश्मनी को लेकर महाराष्ट्र में अंग्रेजी का नया शब्द आजाद फ्रेनिमी हुआ है यानी फ्रेंड और एनिमी. शिवसेना बीजेपी के साथ पूरे 5 साल तक दोस्ती के साथ-साथ दुश्मनी निभाती रही. इसकी वजह यह रही कि शिवसेना इस बात को समझ नहीं पा रही है कि जिस मातोश्री के द्वार पर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे लोग धोक देने के लिए आते थे, वहां रहने वाले लोगों की हैसियत अब बीजेपी के नए-नए नवेले नेताओं से कमतर हो गई है. बीजेपी में नरेंद्र मोदी का एक विराट युग शुरू हो गया है, जहां पर सहयोगी पार्टियों के नेता बौने हो गए हैं. इसी गुस्से में शिवसेना 5 साल बीजेपी के साथ रहते हुए भी दिल से बीजेपी का साथ नहीं निभा पाई. जनता सब देख रही थी. इसलिए जनता ने भी इस गठबंधन को जिता तो दिया, मगर जो उम्मीदें शिवसेना ने पाली थीं, उसे पूरी भी नहीं कीं.
उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे को अब ठाकरे नाम के सहारे के अलावा भी अपनी नीतियों पर ध्यान देना होगा. शिवसेना की जो राजनीति पाकिस्तान के खिलाफ या पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के भारत में खेलने के खिलाफ पिच खोदने जैसी रहती थी वैसे ही राजनीति करने के मामले में बीजेपी शिवसेना से कहीं आगे निकल गई है. इसलिए इसी तरह के काम करके बीजेपी की बी टीम बनने के बजाय महाराष्ट्र के लोगों के साथ जुड़ने वाली योजनाओं पर काम करना होगा. 1960 और 70 के दशक का शिवसेना वापस नहीं लाया जा सकता है मगर बालासाहेब ठाकरे के कुछ उसूल थे. चाहे कोई पसंद करें या ना पसंद करें, चाहे कोई नैतिक साहस कहे या ना कहे, अपनी सोच और अपने विचार के साथ वह खड़े रहते थे, इसे लेकर जनता उन्हें पसंद करते थी. मौजूदा दौर में शिवसैनिक उद्धव ठाकरे में उसकी छाया भर पाते हैं और यही शिवसेना के लगातार नीचे जाने की वजह भी है.
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