दशहरा स्पीच में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उन घटनाओं का प्रमुखता से जिक्र किया था जिसमें उदयपुर से लेकर देश के दूसरे तमाम हिस्सों में कट्टरपंथी मुस्लिमों ने लोगों की बर्बर हत्याएं की थीं. उन्होंने कहा था- मुस्लिम समाज आमतौर पर ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देता, लेकिन बर्बर घटनाओं को लेकर पहली बार लोग सामने आए और सार्वजनिक निंदा की. यह भी कहा- घटनाओं को लेकर हिंदुओं में बहुत आक्रोश था. दोहराव नहीं होना चाहिए और मुस्लिम समाज से प्रतिक्रियाएं आते रहनी चाहिए. बावजूद हफ्ताभर भी नहीं बीता, सड़कों पर सरेआम "गुस्ताख नबी की एक सजा, सिर तन से जुदा सिर तन से जुदा" की लगातार धमकियां दी जा रही हैं. उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम हर तरफ एक जैसे नारे. धमकियां देने वाले एक दो नहीं- एक बड़ा जुलूस और दर्जनों लोगों का कोरस.
दृश्य ना तो सीरिया का है ना ही अफगानिस्तान का और ना ही पाकिस्तान का. राजस्थान में जोधपुर की सड़कों पर भारी हुजूम नजर आया जो ईद मिलाद-उन-नबी के मौके पर नारे लगा रहा था. और नारे तब लगे जब जुलूस हिंदुओं के इलाके में पहुंचा. क्या इसे एक समूह को डराने की कोशिश नहीं मानना चाहिए. यह तो घर में घुसकर सीधे हत्या करने की धमकी जैसा ही है. स्वाभाविक है कि जुलूस जहां से गुजरा वहां लोग संगठित भीड़ से डरे हुए थे. नारों पर हल्की सी भी प्रतिक्रिया से बवाल मच जाता और फिर दबे कुचले मुसलमानों के उत्पीडन के नैरेटिव गढ़े जाने लगते. वह भीड़ जो एक मजहबी पहचान और एक मजहबी झंडे में यकीन करती है. जिसके लिए मजहब से बड़ा कुछ नजर नहीं आ रहा. डरे लोगों ने शिकायत दर्ज कराई और पुलिस ने सिर्फ एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया. जो व्यक्ति गिरफ्तार किया गया उसका नाम पहले भी साम्प्रदायिक घटनाओं में आ चुका है.
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यह स्थिति तब है जब मुस्लिमों के कुछ संगठनों ने जुलूस में सिर तन से जुदा का नारा नहीं लगाने की अपील...
दशहरा स्पीच में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उन घटनाओं का प्रमुखता से जिक्र किया था जिसमें उदयपुर से लेकर देश के दूसरे तमाम हिस्सों में कट्टरपंथी मुस्लिमों ने लोगों की बर्बर हत्याएं की थीं. उन्होंने कहा था- मुस्लिम समाज आमतौर पर ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देता, लेकिन बर्बर घटनाओं को लेकर पहली बार लोग सामने आए और सार्वजनिक निंदा की. यह भी कहा- घटनाओं को लेकर हिंदुओं में बहुत आक्रोश था. दोहराव नहीं होना चाहिए और मुस्लिम समाज से प्रतिक्रियाएं आते रहनी चाहिए. बावजूद हफ्ताभर भी नहीं बीता, सड़कों पर सरेआम "गुस्ताख नबी की एक सजा, सिर तन से जुदा सिर तन से जुदा" की लगातार धमकियां दी जा रही हैं. उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम हर तरफ एक जैसे नारे. धमकियां देने वाले एक दो नहीं- एक बड़ा जुलूस और दर्जनों लोगों का कोरस.
दृश्य ना तो सीरिया का है ना ही अफगानिस्तान का और ना ही पाकिस्तान का. राजस्थान में जोधपुर की सड़कों पर भारी हुजूम नजर आया जो ईद मिलाद-उन-नबी के मौके पर नारे लगा रहा था. और नारे तब लगे जब जुलूस हिंदुओं के इलाके में पहुंचा. क्या इसे एक समूह को डराने की कोशिश नहीं मानना चाहिए. यह तो घर में घुसकर सीधे हत्या करने की धमकी जैसा ही है. स्वाभाविक है कि जुलूस जहां से गुजरा वहां लोग संगठित भीड़ से डरे हुए थे. नारों पर हल्की सी भी प्रतिक्रिया से बवाल मच जाता और फिर दबे कुचले मुसलमानों के उत्पीडन के नैरेटिव गढ़े जाने लगते. वह भीड़ जो एक मजहबी पहचान और एक मजहबी झंडे में यकीन करती है. जिसके लिए मजहब से बड़ा कुछ नजर नहीं आ रहा. डरे लोगों ने शिकायत दर्ज कराई और पुलिस ने सिर्फ एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया. जो व्यक्ति गिरफ्तार किया गया उसका नाम पहले भी साम्प्रदायिक घटनाओं में आ चुका है.
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यह स्थिति तब है जब मुस्लिमों के कुछ संगठनों ने जुलूस में सिर तन से जुदा का नारा नहीं लगाने की अपील की थी. जुलूस में जिस तरह नारे लगाए गए और पुलिसिया कार्रवाई खानापूर्ति करने वाली नजर आ रही है वह साफ़ सबूत है कि पानी सिर के ऊपर जा चुका है. दूसरी तरफ संघ प्रमुख गंगा जमुनी तहजीब 2.0 तैयार करने की कोशिश में नजर आ रहे हैं. केरल, बंगाल और तेलंगाना जैसे राज्यों में यह नारा सामान्य है. वहां पांच साल का बच्चा भी अपने पिता के कंधों पर बैठकर हिंदुओं, ईसाईयों और बौद्धों के नरसंहार के लिए नारे लगाता नजर आ रहा है. उसी केरल में राहुल गांधी एक बुरके में लिपटी आठ साल की बच्ची का हाथ पकड़कर हिंदुओं के डर को और बढ़ा रहे हैं.
एक भीड़ दंगा करने पर आमादा है, सरकारें-पार्टियां क्यों थाम नहीं पा रही उन्हें
मोहन भागवत जी यह सिलसिला रुक नहीं रहा है. यह डर क्यों है? जनता ने सरकारों को किसलिए चुना है. सनक से भरे मुट्ठीभर लोग दिन रात देश में अराजकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं. चीजें खुली आंखों नजर आ रही हैं. लेकिन सत्ता के मद में चूर लोगों के माथे पर कोई शिकन ही नजर नहीं आ रही हैं. कांग्रेस-समाजवादियों को तो छोड़ ही दीजिए, क्या भाजपा को भी सत्ता ने कितना डरपोक बना दिया है कि वह इनकी रोकथाम के लिए जिम्मेदारी तय नहीं कर पा रही है. समझ में नहीं आता कि भारतीय सड़कों को सीरिया बनाने पर आमादा अंधी भीड़ को नियंत्रित करने की योजना कहीं नहीं दिख रही.
उलटे दिन रात इस्लाम का प्रचार करने वाली राणा अयूब जैसी पत्रकार भारत में मुसलमानों के उत्पीड़न का रोना रोती रहती है. भारत का लिबरल समाज उसे लोकतंत्रवादी और मानवतावादी पत्रकार का तमगा देते नजर आ रहा है. कुल मिलाकर स्थिति बहुत विस्फोटक है. राजनीतिक दलों का विजन और सरकारों की अक्षमता गंभीर हादसों का संकेत दे रही है. एक संगठित भीड़ लगातार तैयारी के साथ निकल रही है. लोगों को डरा धमका रही है. अगर प्रतिक्रियाएं हुईं तो एक भायावह मंजर सामने होगा और इसकी जिम्मेदारी किसके माथे पर मढी जाएंगी. चीजें पूरी तरह से नियत्रण से बाहर हो जाए उससे पहले इन्हें रोकना जरूरी है. दंगाइयों को खुलेआम इस तरह सड़कों पर घूमने की आजादी भला कैसे दी जा सकती है.
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