अस्सी-नब्बे के दशक के बच्चे अदरक की तरह कूटे गए हैं. ये जुमला बहुत आम है. हां भइया कूटे गए हैं. बात बिना बात मारे गए. बोलने पर मारे गए और न बोलने पर भी मारे गए. धीरे खाना, जल्दी खाना, खाना न खाना और प्लेट को चाट चाट कर खाना. इन पर भी मारे गए हैं. पढाई लिखाई, कम नंबर, स्कूल की शिकायत पर तो तसल्ली से लपेटे गए, मतलब वही मारे गए. बच्चे कच्ची मिट्टी होते हैं लेकिन उन्हें लोहे की तरह ठोंक पीट कर सही सांचे में ढालना माता पिता ने अपना कर्तव्य माना. आज भी पूरे परिवार के साथ हम बैठते हैं और काका-काकी, मामा-मामी के सामने पापा-मम्मी फ़ख्र से किस्से कहते हैं. 'अइसा रैपटा खाये हैं कि सुधर ही गए. फिर कभी नहीं बोले की अलां-फलां नहीं करेंगे तो मन मसोस के रह जाते हैं, कि, यार मम्मी /पापा ज़रा कोई और तरीका भी देख लिए होते.' लेकिन वही बात कि हमारे यहां मम्मी पापा यार नहीं होते. परिवार की इकाई भारत में बहुत महत्वपूर्ण है. पूरा समाज इस इकाई पर टिका है. किन्तु जनतांत्रिक भारत की सबसे छोटी इकाई जनतांत्रिक नहीं है -कभी नहीं रही और इसमें जनतंत्र लाने वाले आंदोलनकारियों का 'बिगड़ैल, गुस्सैल, मनबढ़ यहां तक की 'मंदबुद्धि' बोल बोल कर दमन कर दिया जाता था.
कभी सोचा है कि सदा सच बोलो केवल एक वाक्य बन कर क्यों रह गया? क्योंकि गलती करने के बाद ज़्यादातर सच बोलने वाले बच्चे के मम्मी पापा ने पहले कुटाई की, फिर झूठ न बोल पाने के लिए अपने 'अनुसाशन' की तारीफ की. यहां सच बोलने वाले बच्चे की हिम्मत और उसकी नैतिकता को कोई तवज्जो नहीं दी गयी. तो सच क्यों ही बोला जाये. झूठ जब पकड़ा जायेगा तब पिट लेंगे न!
स्कूल या पड़ोस में किसी का 'बुली' करना या डराना धमकाना, किसी खास विषय से डर, किसी...
अस्सी-नब्बे के दशक के बच्चे अदरक की तरह कूटे गए हैं. ये जुमला बहुत आम है. हां भइया कूटे गए हैं. बात बिना बात मारे गए. बोलने पर मारे गए और न बोलने पर भी मारे गए. धीरे खाना, जल्दी खाना, खाना न खाना और प्लेट को चाट चाट कर खाना. इन पर भी मारे गए हैं. पढाई लिखाई, कम नंबर, स्कूल की शिकायत पर तो तसल्ली से लपेटे गए, मतलब वही मारे गए. बच्चे कच्ची मिट्टी होते हैं लेकिन उन्हें लोहे की तरह ठोंक पीट कर सही सांचे में ढालना माता पिता ने अपना कर्तव्य माना. आज भी पूरे परिवार के साथ हम बैठते हैं और काका-काकी, मामा-मामी के सामने पापा-मम्मी फ़ख्र से किस्से कहते हैं. 'अइसा रैपटा खाये हैं कि सुधर ही गए. फिर कभी नहीं बोले की अलां-फलां नहीं करेंगे तो मन मसोस के रह जाते हैं, कि, यार मम्मी /पापा ज़रा कोई और तरीका भी देख लिए होते.' लेकिन वही बात कि हमारे यहां मम्मी पापा यार नहीं होते. परिवार की इकाई भारत में बहुत महत्वपूर्ण है. पूरा समाज इस इकाई पर टिका है. किन्तु जनतांत्रिक भारत की सबसे छोटी इकाई जनतांत्रिक नहीं है -कभी नहीं रही और इसमें जनतंत्र लाने वाले आंदोलनकारियों का 'बिगड़ैल, गुस्सैल, मनबढ़ यहां तक की 'मंदबुद्धि' बोल बोल कर दमन कर दिया जाता था.
कभी सोचा है कि सदा सच बोलो केवल एक वाक्य बन कर क्यों रह गया? क्योंकि गलती करने के बाद ज़्यादातर सच बोलने वाले बच्चे के मम्मी पापा ने पहले कुटाई की, फिर झूठ न बोल पाने के लिए अपने 'अनुसाशन' की तारीफ की. यहां सच बोलने वाले बच्चे की हिम्मत और उसकी नैतिकता को कोई तवज्जो नहीं दी गयी. तो सच क्यों ही बोला जाये. झूठ जब पकड़ा जायेगा तब पिट लेंगे न!
स्कूल या पड़ोस में किसी का 'बुली' करना या डराना धमकाना, किसी खास विषय से डर, किसी शिक्षक या बड़े से किसी वजह से ज़रूरत से ज़्यादा डरना या भीड़ को अथवा शोर को नापसन्द करना, दोस्तों के बीच पीयर प्रेशर ये सब मानसिक स्वस्थ पर असर डालते हैं. ये तमाम मुद्दे हमारे समाज में नकारे जाते रहे हैं. बचपन और किशोरावस्था की बहुत सी समस्याओं पर अगर सही समय पर सलाह न मिले तो वह ताउम्र किसी कुंठा का रूप ले सकतीं हैं. बहुत से स्कूल और मेंटल हेल्थ पर काम करने वाले तमाम संगठन इसके इर्द गिर्द जागरूकता बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं.
अब अस्सी और नब्बे के दशक वाले बड़े हो गए हैं. आज भी जब अपना बचपन याद आता है तब मन मसोस कर रह जाते हैं, लेकिन ज़्यादातर बदलाव लाने की नहीं सोचते. अगर सोचते होते तो यकीनन 'पेरेंटिंग यानि बच्चे के पालन पोषण' करने के बेहतर तरीकों पर शोध हुए होते और सभ्य समाज में इस पर चर्चा होती. आज भी बच्चे के कोमल मन को समझते हुए पालन पोषण की मानसिकता वाले माता पिता अमूमन 'साइंटिफ पेरेंट हैं भईया!', इस मज़ाक का केंद्र बनते हैं.
मेंटल हेल्थ के प्रतिबस ज़रा से जगरूक भारतीय समाज में अभी बाल मन, किशोर मानसिकता व घर में रहते हुए भी बालकों और किशोरों के मानसिक, शारीरिक हिंसा के प्रति जागरूकता न के बराबर है. ऐसे में महिला बाल विकास मंत्रालय की करता धर्ता स्मृति ईरानी का हालिया बयान, जहां उन्होंने मज़ाकिया ढंग से कहा कि, मनोवैज्ञानिक के पास जाने की बजाय उनकी मां एक थप्पड़ से उनके सारे ज्ञान चक्षुओं को ख़ोल देती थी, तमाम प्रश्न खड़े करता है.
क्या मनोवैज्ञानिक के पास जाना शर्मिंदगी का विषय है?
क्या मेंटल हेल्थ के प्रति जागरूकता केवल बड़े मंचों पर बोलने व हैशटैग लगाकर ट्रेंडिंग पोस्ट बनाने के लिए है? पद की महत्ता को भूल इस मज़ाक पर हंसा जाये या उनकी बुध्दि पर शोक व्यक्त किया जाएं ये सोचनीय है. बच्चे को सुधारने के लिए डंडे का इस्तेमाल पुराना तरीका है और चूंकि कभी इस पर न बगावत हुई, न सवाल उठाये गए इसे कारगर मान लिया गया.
किन्तु जिस समाज में बच्चे और बुज़ुर्ग दोनों के लिए एक समान प्रेम और देखभाल की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जाता है वहां बच्चों के पालन पोषण में ज़बान से ज़्यादा हाथ का प्रयोग क्यों शुरू हुआ इस पर शोध नहीं हुआ. यकीनन अनुशासन के दायरे कब शासन में बदल गए और कब इसे बचपन के हिस्से के रूप में स्वीकार किया गया ये भी हम नहीं जानते.
घर बाहर नौकरी परिवार आर्थिक मानसिक उलझनों से झुझते माता पिता जीवन के प्रति अपनी हताशा अक्सर मासूम बच्चे पर निकाल देते हैं. बच्चा कुछ कह नहीं पाता लेकिन बिना गलती हर एक थप्पड़ उसके ज़हन में गांठ की तरह रह जाता है- और ये चक्र चलता चला जाता है. लॉक डाउन के दौरान डोमेस्टिक वायलेंस की बढ़ी हुई शिकायतें बहस का मुद्दा कभी नहीं बनते ये इस समाज का दुर्भाग्य है.
अनुसाशन कैसे शासन और फिर घरेलू हिंसा का रूप ले लेता है ये सोचने का सही समय है. गाहे बगाहे हमें आपको खबर आती है कि फलां माता या पिता में बच्चे को इतना मारा कि अस्पताल ले जाना पड़ा. हम खबर पढ़ते हैं - मनन करते है और कहते हैं - अरे इतना थोड़े ना मरना होता है. एक थप्पड़ रखते काफी था! क्योंकि देश में महिला व बाल विकास को दिशा देने वालों का भी यही तो सोचना है.
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