सोशल मीडिया है बड़ी सही चीज. इसके आने के बाद देश का हर आदमी रायचंद है. मतलब जो अपने घर पर ये राय नहीं रख पाता कि रात के खाने में चावल रहेगा या सिर्फ रोटी से ही काम चलाना पड़ेगा? वो भी यहां राय रखने के लिए स्वतंत्र है. अच्छा चूंकि सोशल मीडिया की बदौलत लोगों के अंदर 'राय' वाले इंस्टिंक्ट डेवेलोप हुए हैं तो ये समर्थन और विरोध दोनों में रहती है. समर्थन तक तो फिर भी मामला ठीक है लेकिन जब बात विरोध की आती है तो सोशल मीडिया पर लोगों का रुख देखने वाला रहता है. हर आदमी बस इसी बात को लेकर प्रयासरत रहता है कि कुछ भी हो जाए महफ़िल उसी को लूटनी है. इस बात को समझने के लिए कहीं दूर क्या ही जाना. बीते दिनों हुए इजराइल फिलिस्तीन संघर्ष को ही देख लीजिए. यहां भारत में देश का बहुसंख्यक इजराइल के साथ था. तो वहीं दूसरे छोर पर अल्पसंख्यक फिलिस्तीन का दामन थामे था. मतलब फिलिस्तीन समर्थक लोगों का रवैया था तो ऐसा कि बर्मा, बांग्लादेश छोड़ दीजिए मंगोलिया या रशिया में भी यदि किसी ने किसी के साथ ज्यादती की तो उसे भी इजराइली बनाकर कहा जा रहा था कि देखो देखो इजराइल कैसे फिलिस्तीन पर जुल्म कर रहा है.
यहां भारत में फिलिस्तीन के प्रति मुसलमानों का हाल तो ऐसा था कि, अगर कहीं से सही समय पर सही फंडिंग हो गयी होती. तो ये भाई लोग भी दो तीन मोर्टार, 5-6 रॉकेट लॉन्चर फिलिस्तीन की तरफ से इजराइल पर दाग आते. विरोध क्यों था इसपर छत्तीस तर्क हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण वही था धर्म वाला एंगल. इजराइल यहूदी थे और फिलिस्तीनी मुसलमान.
फिर क्या था, खूब विरोध हुआ. कड़े शब्दों में निंदा भी हुई. नेतन्याहू का पुतला जलाया गया फिलिस्तीन ज़िंदाबाद, इजराइल मुर्दाबाद के नारे लगे. फिर हमास की बदौलत समझौता हुआ और...
सोशल मीडिया है बड़ी सही चीज. इसके आने के बाद देश का हर आदमी रायचंद है. मतलब जो अपने घर पर ये राय नहीं रख पाता कि रात के खाने में चावल रहेगा या सिर्फ रोटी से ही काम चलाना पड़ेगा? वो भी यहां राय रखने के लिए स्वतंत्र है. अच्छा चूंकि सोशल मीडिया की बदौलत लोगों के अंदर 'राय' वाले इंस्टिंक्ट डेवेलोप हुए हैं तो ये समर्थन और विरोध दोनों में रहती है. समर्थन तक तो फिर भी मामला ठीक है लेकिन जब बात विरोध की आती है तो सोशल मीडिया पर लोगों का रुख देखने वाला रहता है. हर आदमी बस इसी बात को लेकर प्रयासरत रहता है कि कुछ भी हो जाए महफ़िल उसी को लूटनी है. इस बात को समझने के लिए कहीं दूर क्या ही जाना. बीते दिनों हुए इजराइल फिलिस्तीन संघर्ष को ही देख लीजिए. यहां भारत में देश का बहुसंख्यक इजराइल के साथ था. तो वहीं दूसरे छोर पर अल्पसंख्यक फिलिस्तीन का दामन थामे था. मतलब फिलिस्तीन समर्थक लोगों का रवैया था तो ऐसा कि बर्मा, बांग्लादेश छोड़ दीजिए मंगोलिया या रशिया में भी यदि किसी ने किसी के साथ ज्यादती की तो उसे भी इजराइली बनाकर कहा जा रहा था कि देखो देखो इजराइल कैसे फिलिस्तीन पर जुल्म कर रहा है.
यहां भारत में फिलिस्तीन के प्रति मुसलमानों का हाल तो ऐसा था कि, अगर कहीं से सही समय पर सही फंडिंग हो गयी होती. तो ये भाई लोग भी दो तीन मोर्टार, 5-6 रॉकेट लॉन्चर फिलिस्तीन की तरफ से इजराइल पर दाग आते. विरोध क्यों था इसपर छत्तीस तर्क हो सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण वही था धर्म वाला एंगल. इजराइल यहूदी थे और फिलिस्तीनी मुसलमान.
फिर क्या था, खूब विरोध हुआ. कड़े शब्दों में निंदा भी हुई. नेतन्याहू का पुतला जलाया गया फिलिस्तीन ज़िंदाबाद, इजराइल मुर्दाबाद के नारे लगे. फिर हमास की बदौलत समझौता हुआ और हैप्पी एंडिंग पर सब अपने अपने घर, अपने काम पर लौट गए. तो क्या पिक्चर खत्म हो गई है? अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा कर लिया है. लाखों लोग बेघर हो गए हैं. सत्ता की चाशनी में डूबा रसगुल्ला खाने के लिए तमाम लोगों को तालिबान मौत के घाट उतार चुका है.
ऐसे में सवाल ये उठता है कि तालिबान की इस करतूत पर आखिर वो तमाम कलम क्यों खामोश हैं जिन्होंने उस वक़्त खून उगल दिया था जब इजराइल फिलिस्तीन से और फिलिस्तीन इजराइल से अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा था. युद्ध चाहे दो देशों के बीच हो या दो खानदान के, मौत उसका सियाह पक्ष होती है. सब जानते हैं जब दो गुटों में युद्ध होगा तो दोनों ही गुटों से कुछ लोग घायल होंगे कुछ अपनी जान से हाथ धो बैठेंगे.
ऐसे में सिर्फ एक गुट की बात करना, उस गुट में हुई मौतों को मुद्दा बनाना और उसकी आड़ लेकर विक्टिम कार्ड खेलना और राजनीति करना क्या ये नैतिकता का तकाजा है? फिलिस्तीन मामले पर दिन रात शोर करने वालों की चुप्पी क्या सिर्फ इसलिए है क्योंकि इसबार अफगानिस्तान और तालिबान मामले में शोषित और शोषण करने वाले दोनों ही लोग मुसलमान हैं, इस्लाम को मानने वाले हैं.
यदि ऐसा है बल्कि ऐसा ही है तो इसे सीधी और साधारण भाषा में दोगलेपन की संज्ञा दी जाएगी और हर सूरत में इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए.अफ़ग़ानिस्तान मामले में ठीक वैसा ही शोर भारत समेत दुनिया भर के मुसलमानों को करना चाहिए जैसा अभी हमने बीते दिनों इजराइल फिलिस्तीन विवाद में देखा था. चूंकि इतने बड़े मसले पर लोग चुप हैं तो हम भी इतना जरूर कहेंगे कि विरोध के स्वर कभी सिलेक्टिव नहीं होने चाहिए.
यदि ऐसा हो रहा है तो हम न केवल खुद के चरित्र को संदेह के घेरों में डाल रहे हैं बल्कि कहीं न कहीं दुनिया को ये भी बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जब बात धर्म की आती है तो हमारा चाल चरित्र और चेहरा पूर्व की अपेक्षा कहीं ज्यादा घिनौना हो जाता है. हम फिर इस बात को दोहराना चाहेंगे कि अफ़ग़ानिस्तान में भले ही शोषित और शोषण करने वाला दोनों ही इस्लाम धर्म के अनुयायी हों.
लेकिन देश दुनिया की नजर उन लोगों खासकर मुसलमानों पर है, जिन्होंने फिलिस्तीन मामले में इजराइल को मुंह तोड़ जवाब देने की वकालत की थी. दुनिया यही चाहती है कि ये लोग अफगानिस्तान मामले पर वैसे ही मुखर हों जैसे वो फिलिस्तीन पर हुए थे.अंत में हम बस ये कहकर अपनी बातों को विराम देंगे कि हम अन्याय के साथ तभी खड़े हो सकते हैं जब हम धर्म, जाति, हिंदू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी से ऊपर उठें और पूर्णतः न्यूट्रल हों. बात बहुत सीधी और साफ है कि सिलेक्टिव होकर न तो कभी समस्या का हल निकला है और न ही कभी निकलेगा.
मुद्दों को लेकर सिलेक्टिव होना और कुछ नहीं बस अपने आप को धोखा देना है और जो बात दुख का पर्याय है वो ये कि अफगानिस्तान मामले में सिलेक्टिव होकर हम सिर्फ और सिर्फ इंसानियत, भाईचारे और सेक्युलरिज्म को शर्मसार कर रहे हैं. कुल मिलाकर गाजा विवाद के लिए इजराइल को कोसने वाले फिलिस्तीन के समर्थक जब आज अफगानिस्तान मामले पर मुंह में दही जमाए बैठे हैं तो उनका ये दोगलापन कचोटने वाला है.
ये भी पढ़ें -
अशरफ गनी के अफगानिस्तान छोड़ने पर सवाल उठा रहे लोग नजीबुल्लाह का हश्र नहीं जानते
भारत ही तो बचाएगा अफगानी हिन्दुओं-सिखों को...
काबुल में CNN की रिपोर्टर का हुलिया एक दिन में बदला, समझ लीजिए बाकी अफगान महिलाओं का हश्र
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.