उद्धव ठाकरे की सरकार में कांग्रेस (Sonia and Rahul Gandhi) भी साझीदार है. कांग्रेस का नंबर NCP के बाद आता है. स्पीकर कांग्रेस विधायक बनने जा रहा है. डिप्टी सीएम की एक कुर्सी पर कांग्रेस ने अब भी पेंच फंसाया हुआ है - फिर भी कांग्रेस नेतृत्व ने उद्धव ठाकरे के शपथग्रहण (ddhav Thackeray Oath) समारोह से दूर रहने का फैसला किया. सवाल भी फैसले पर इसीलिए उठता है.
आज अगर उद्धव ठाकरे की सरकार पर सेक्युलर कवर चढ़ा है तो उसके पीछे भी कांग्रेस का ही नाम लिया जा रहा है. महाराष्ट्र सरकार के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में अगर समन्वय समिति बनी है तो वो भी यूपीए का ही मॉडल है जिसे NAC यानी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के नाम से जाना जाता रहा है.
फिर भी कांग्रेस सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने शिवाजी पार्क से दूर रहने का फैसला किया तो क्यों - क्या विपक्ष का नेतृत्व करने में कांग्रेस की कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी है?
बार बार क्यों चूक जाता है कांग्रेस नेतृत्व?
महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार में कांग्रेस मजबूरी में शामिल हुई है. अगर कांग्रेस विधायकों का दबाव न होता तो वो भी जनादेश के साथ ही गयी होती, भले ही एनसीपी और शिवसेना मिल कर ही सरकार क्यों न बनाये होते. माना तो हरियाणा के बारे में भी यही जा रहा था कि अगर कांग्रेस नेतृत्व चुनाव से पहले वक्त रहते बदलाव का फैसला ले लिया होता तो नतीजे कहीं अलग हो सकते थे.
बेशक महाराष्ट्र में कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी बन चुकी है - और विपक्षी खेमे में भी तीसरी पायदान पर, फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर एनसीपी और शिवसेना दोनों से ही अच्छी पोजीशन में तो है.
आम चुनाव से पहले भी विपक्षी निगाहें घूम-फिर कर कांग्रेस पर ही आ टिकती थीं. शरद पवार से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक सब के सब राहुल गांधी से बात बात पर मीटिंग करते रहे - लेकिन वो कोई फैसला ही नहीं ले सके. ऐसा भी तो नहीं था कि तब भी राहुल गांधी कोई अकेले फैसला ले पाते हों. राज्यों में चुनाव जीतने के बाद भी मुख्यमंत्रियों के नाम भी मिलजुल कर ही...
उद्धव ठाकरे की सरकार में कांग्रेस (Sonia and Rahul Gandhi) भी साझीदार है. कांग्रेस का नंबर NCP के बाद आता है. स्पीकर कांग्रेस विधायक बनने जा रहा है. डिप्टी सीएम की एक कुर्सी पर कांग्रेस ने अब भी पेंच फंसाया हुआ है - फिर भी कांग्रेस नेतृत्व ने उद्धव ठाकरे के शपथग्रहण (ddhav Thackeray Oath) समारोह से दूर रहने का फैसला किया. सवाल भी फैसले पर इसीलिए उठता है.
आज अगर उद्धव ठाकरे की सरकार पर सेक्युलर कवर चढ़ा है तो उसके पीछे भी कांग्रेस का ही नाम लिया जा रहा है. महाराष्ट्र सरकार के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में अगर समन्वय समिति बनी है तो वो भी यूपीए का ही मॉडल है जिसे NAC यानी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के नाम से जाना जाता रहा है.
फिर भी कांग्रेस सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने शिवाजी पार्क से दूर रहने का फैसला किया तो क्यों - क्या विपक्ष का नेतृत्व करने में कांग्रेस की कोई दिलचस्पी नहीं रह गयी है?
बार बार क्यों चूक जाता है कांग्रेस नेतृत्व?
महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार में कांग्रेस मजबूरी में शामिल हुई है. अगर कांग्रेस विधायकों का दबाव न होता तो वो भी जनादेश के साथ ही गयी होती, भले ही एनसीपी और शिवसेना मिल कर ही सरकार क्यों न बनाये होते. माना तो हरियाणा के बारे में भी यही जा रहा था कि अगर कांग्रेस नेतृत्व चुनाव से पहले वक्त रहते बदलाव का फैसला ले लिया होता तो नतीजे कहीं अलग हो सकते थे.
बेशक महाराष्ट्र में कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी बन चुकी है - और विपक्षी खेमे में भी तीसरी पायदान पर, फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर एनसीपी और शिवसेना दोनों से ही अच्छी पोजीशन में तो है.
आम चुनाव से पहले भी विपक्षी निगाहें घूम-फिर कर कांग्रेस पर ही आ टिकती थीं. शरद पवार से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक सब के सब राहुल गांधी से बात बात पर मीटिंग करते रहे - लेकिन वो कोई फैसला ही नहीं ले सके. ऐसा भी तो नहीं था कि तब भी राहुल गांधी कोई अकेले फैसला ले पाते हों. राज्यों में चुनाव जीतने के बाद भी मुख्यमंत्रियों के नाम भी मिलजुल कर ही फाइनल हो पाया. जब मिलजुल कर ही फैसला हुआ करता रहा तो जिम्मेदारी भी सामूहिक ही समझी जानी चाहिये.
जो प्रयोग महाराष्ट्र में हुआ है, आम चुनाव में भी जीत का यही नुस्खा खोजा गया था. ये नुस्खा भी बीजेपी के बागी नेताओं की ओर से सुझाया गया था जिसकी अगुवाई अरुण शौरी कर रहे थे. फॉर्मूला था कि जिस राज्य में जो भी पार्टी मजबूत है, सभी उसका नेतृत्व स्वीकार करें - और उसमें कांग्रेस भी खुशी खुशी शामिल हो. इसी हिसाब से उन राज्यों में जहां कांग्रेस मजबूत स्थिति में रही वहां नेतृत्व की जिम्मेदारी उसे ही मिलती. अगर तब ऐसा हुआ होता तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, यूपी में मायावती और अखिलेश यादव, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और बिहार में तेजस्वी यादव कमान संभालते. वैसे भी बिहार में हुए टिकट बंटवारे में चली तो तेजस्वी यादव की ही रही, नतीजों में फेल हो गये वो अलग बात है.
झारखंड में भी हेमंत सोरेन ऐसा ही चाहते थे लेकिन कांग्रेस नहीं मानी. मानने को तो कांग्रेस विधानसभा चुनाव में भी नहीं मान रही थी. जब शिवसेना की तरह हेमंत सोरेन ने कांग्रेस को उसके वादे की याद दिलायी तो कांग्रेस ने जिद छोड़ी - और अब वो JMM नेता हेमंत सोरेन की अगुवाई में झारखंड विधानसभा चुनाव लड़ रही है.
कांग्रेस और एनसीपी की सोच एक ही जैसी है. वैसे भी एनसीपी तो कांग्रेस के ही जिगर का टुकड़ा है. मुमकिन है शिवसेना को पर सेक्युलर रंग चढ़ाने में बड़ी भूमिका एनसीपी नेता शरद पवार की ही रही हो - लेकिन बताया तो ऐसा ही गया कि सेक्युलर शब्द को अमलीजामा सोनिया गांधी के ही सख्त रूख के कारण पहनाया गया.
अब जब इतना सब हो चुका तो कांग्रेस को भला किस बात से परेहज है? कांग्रेस खेमे से एक दलील है कि सोनिया गांधी कतई नहीं चाहतीं कि उनके कार्यकाल में पार्टी की सेक्युलर छवि पर कोई और दाग लगे - जिसे वही पार्टी बरसों से सांप्रदायिक बताती रही है. वैसे शिवसेना के उभार को ही एक दौर में कांग्रेस नेतृत्व की दूरगामी सोच का ही नतीजा माना जाता है.
1. महाराष्ट्र सरकार PA के नये वर्जन का पायलट प्रोजेक्ट हो सकता है: उद्धव ठाकरे कहने भर को मुख्यमंत्री हैं, लेकिन फैसले उन्हें महा विकास अघाड़ी की समन्वय समिति के ही मानने होंगे. महाराष्ट्र में हो रहा प्रयोग एक तरीके से यूपीए के ही नये वर्जन का पायलट प्रोजेक्ट है. नये वर्जन में शिवसेना की एंट्री नया प्रयोग है. खास बात ये है कि महा विकास अघाड़ी में सेक्युलर दबदबा है, न कि हिंदुत्ववादी राजनीति का.
शिवाजी पार्क के मंच से कांग्रेस नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को संदेश दे सकता था कि वे एकजुट होकर आगे बढ़ें - कांग्रेस कदम कदम पर उनके पीछे मजबूती के साथ डटी हुई है. कांग्रेस ने मौके की अहमियत समझने में बड़ी भूल कर दी.
2. सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति में फिट होने का बड़ा मौका है: सोनिया गांधी को सबसे बड़ा मलाल रहा है कि संघ और बीजेपी ने कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी के तौर पर प्रचारित कर छवि खराब कर दी है. अगर कांग्रेस नेतृत्व को ये दाग जैसा लगता है तो शिवसेना के साथ मंच शेयर करने भर से बड़ा संदेश दिया जा सकता था, लेकिन कांग्रेस ने मौके को कुछ ज्यादा ही हल्के में ले लिया.
अगर, इतनी ही परहेज रहा तो राहुल गांधी को जनेऊधारी, शिवभक्त हिंदू के रूप में प्रोजक्ट करने और उसे स्थापित करने के लिए कांग्रेस क्यों जूझती रही?
3. क्षेत्रीय दलों का सपोर्ट कर उनके समर्थन से वापसी हो सकती है: आम चुनाव में कांग्रेस की जिद कितनी भारी पड़ी है उसे समझाने की जरूरत नहीं है. प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष का पद भी लगातार दूसरी बार गंवा चुकी है.
असल बात तो ये है कि हर सूबे में क्षेत्रीय पार्टियों को कांग्रेस की जरूरत महसूस हो रही होगी. कांग्रेस के साथ होने से भले ही बड़ा फायदा न हो, लेकिन लड़ाई में साथ होने पर वोटों के बंटवारे से तो बचा ही जा सकता है - आखिर यूपी में क्या हुआ? दिल्ली में क्या हुआ? बाकी जगह भी वैसा ही हाल है.
'सेक्युलर' सरकार को भी कांग्रेस का हाफ-सपोर्ट क्यों?
बड़ा ही छोटा सवाल है - आखिर क्या सोच कर सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने उद्धव ठाकरे के शपथग्रहण में न जाने का फैसला किया होगा - और क्या समझ कर मनमोहन सिंह को भी जाने से मना कर दिया होगा?
ऐसा क्यों लगता है जैसे महाराष्ट्र कांग्रेस के नेताओं के दबाव में कांग्रेस सरकार में शामिल तो हो गयी - लेकिन संजय निरूपम जैसे नेताओं के नजरिये से इत्तफाक रखते हुए हाफ-बायकॉट भी कर दिया.
सरकार में शामिल होने के पक्ष में खड़े पृथ्वीराज चव्हाण, अशोक चव्हाण और बालासाहेब थोराट जैसे नेताओं की भी बात मान ली - और विरोध में खड़े संजय निरूपम जैसे नेताओं को भी थोड़ा संतोष दे दिया.
कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस नेतृत्व महाराष्ट्र के नेताओं को ठीक वैसे ही समझता है जैसे टॉम वडक्कन के बीजेपी ज्वाइन कर लेने पर राहुल गांधी कह रहे थे कि - वो बड़े नेता नहीं हैं.
कांग्रेस नेतृत्व ने उद्धव ठाकरे के शपथग्रहण से दूरी बनाकर बहुत बड़ी गलती की है - लेकिन इतनी भी नहीं कि उसमें अब भूल सुधार का कोई मौका नहीं बचा है.
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