यूपी में हुए उप चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार दोनों सीटों पर अपनी जमानत नहीं बचा पाये. देखा जाये तो दोनों ही उपचुनावों में कांग्रेस की भूमिका वोटकटवा जैसी ही रही. बावजूद इसके अखिलेश यादव और मायावती ने हाथ मिलाया और सत्ताधारी बीजेपी को हार का मुहं देखना पड़ा. हार भी किसी ऐसी गैरी सीट पर नहीं, बल्कि एक जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफे से खाली हुई थी और दूसरी जो डिप्टी सीएम केशव मौर्या के.
उपचुनाव के नतीजों के ठीक पहले सोनिया गांधी ने विपक्षी दल के नेताओं को डिनर पर बुलाया था जिसमें न तो अखिलेश यादव पहुंचे थे और न ही मायावती.
राष्ट्रपति चुनाव से पहले के लंच की तरह सोनिया के डिनर में भी खिचड़ी अधपकी रह गयी, फिर भी राहुल गांधी ताल ठोक कर कह रहे हैं कि कांग्रेस यूपी में नवनिर्माण के लिए तत्पर है.
कांग्रेस वोटकटवा रही फिर भी बीजेपी हारी
मायावती तो चुनाव पूर्व गठबंधन से इंकार करती ही रहीं, अखिलेश यादव ने भी साफ कर दिया था कि वो आगे से चुनावों में कांग्रेस के साथ नहीं जाने वाले. लिहाजा कांग्रेस ने यूपी के उप चुनाव में दोनों ही सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिये. फिर बीएसपी ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को समर्थन देने का ऐलान कर दिया. ये गठबंधन लोगों को पसंद भी आया और फूलपुर और गोरखपुर दोनों ही समाजवादी पार्टी के खाते में आ गयी. कांग्रेस के उम्मीदवार दोनों में से किसी भी सीट पर अपनी जमानत नहीं बचा पाये.
यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उप चुनाव में सपोर्ट के लिए पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का शुक्रिया अदा किया. इस दौरान यूपी में विपक्ष के नेता राम गोविंद चौधरी और मायावती की मुलाकात का वीडियो खूब वायरल हुआ.
नतीजे आने से पहले सोनिया गांधी के यहां आयोजित पॉलिटिकल डिनर में 19 पार्टियों के प्रतिनिधि शामिल हुए. सोनिया के डिनर में आये मेहमानों की मौजूदगी और नामौजूदगी से भी कुछ संकेत समझे जाने चाहिये. डिनर में तेजस्वी यादव का बड़ी बहन मीसा भारती के साथ पहुंचना और अखिलेश यादव और मायावती का नदारद रहना क्या संकेत हो सकता है? अखिलेश यादव ने चाचा रामगोपाल यादव और मायावती ने बीएसपी महासचिव सतीशचंद्र मिश्रा को भेजा था.
सोनिया के डिनर से ममता की दूरी क्यों?
डिनर में डी. राजा तो पहुंचे लेकिन सीताराम येचुरी ने अपनी जगह मोहम्मद सलीम को भेज दिया. सबसे ताज्जुब की बात तो ये रही कि शरद पवार और शरद यादव जैसे नेता तो डिनर में खुशी खुशी पहुंचे, यहां तक कि जीतनराम मांझी, और कनिमोझी भी नहीं चूके, लेकिन ममता बनर्जी ने न जाने क्यों दूरी बना ली.
ममता डिनर में क्यों नहीं आईं
हाल के दौर में देखें तो सोनिया गांधी के कार्यक्रमों में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खूब एक्टिव रही हैं. राष्ट्रपति चुनाव से पहले सोनिया ने अस्पताल से भी ममता का फोन किया था. फिर सोनिया के लंच में ममता आईं भी. मगर, इस बार ममता ने सुदीप बंदोपाध्याय को भेज दिया. ममता ऐसा पहले भी करती रही हैं, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल में ये कुछ ठीक नहीं लगता?
आखिर ममता के सोनिया के भोज में न आने की क्या वजह हो सकती है?
एक बात तो फिलहाल टीआरएस की ओर से ममता की कॉल भी लग रही है. टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव ने ममता से एक नये मोर्चे को लेकर संपर्क किया था. राव की कोशिश देश में एक गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस मोर्चे की कल्पना है. तो क्या इसी वजह से ममता ने प्रतिनिधि भेज कर रस्म अदायगी भी की और मीडिया के सवालों से भी बच गयीं? ये तो स्वाभाविक है कि अगर ममता डिनर में शामिल होतीं तो मीडिया के सवालों से सामना तो होता ही.
टीआरएस की कोशिश को लेकर कांग्रेस नेताओं की राय रही कि ये नये किस्म का तीसरा मोर्चा बीजेपी के प्लान का हिस्सा है. इसके तहत विपक्ष को बांटने की कोशिश है. ऐसे किसी संभावित मोर्चे में टीआरएस के अलावा टीडीपी और शिवसेना भी हिस्सा हो सकते हैं. खास बात ये भी रही कि सोनिया के डिनर का न्योता टीआरएस, टीडीपी और YSR कांग्रेस को नहीं भेजा गया था.
ममता के परहेज की एक वजह कांग्रेस नेतृत्व द्वारा उनकी एक अपील पर ध्यान नहीं दिया जाना भी हो सकता है. ममता और केजरीवाल की दोस्ती तो सबको पता ही है. नोटबंदी के विरोध में दोनों साथ मिल कर आजादपुर मंडी में रैली भी कर चुके हैं. दोनों का बीजेपी और मोदी विरोध एक दूसरे को सूट भी करता है.
सोनिया की इस मीटिंग में भी केजरीवाल विमर्श का हाशिये से भी बाहर रहना भी ममता को नागवार गुजरा हो सकता है. यूपी उप चुनाव में जीत के बाद अगर अखिलेश यादव और मायावती आगे भी एक दूसरे का सपोर्ट जारी रखने को तैयार होते हैं, फिर तो कांग्रेस की भूमिका उनके बीच अपनेआप खत्म हो जाती है.
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में सोनिया गांधी ने कहा था कि वो समान विचार वाली पार्टियों को साथ लाने की कोशिश कर रही हैं. सोनिया ने एक तरीके से भावनात्मक अपील भी की थी कि देश का ख्याल है तो सबको साथ आना ही पड़ेगा - लेकिन लगता है किसी ने ध्यान नहीं दिया. तो क्या यही सब वजह है कि सोनिया गांधी जब भी विपक्षी दलों को साथ लेकर सियासी खिचड़ी पकाने की कोशिश करती हैं, वो अधपकी रह जाती है?
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