सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया है, राहुल गांधी को नहीं. राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. 2017 में गुजरात विधानसभा के चुनाव खत्म हो जाने के बाद सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान पूरी तरह सौंप दी थी. कहा भी था - 'राहुल गांधी मेरे भी नेता हैं.' खुद के चुनाव लड़ने का फैसला भी कांग्रेस पर ही छोड़ दिया था. कांग्रेस का फैसला रहा कि सोनिया गांधी रायबरेली से और राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ें.
सोनिया गांधी तो रायबरेली से जीत गयीं लेकिन राहुल गांधी हार गये. राहत की बात इतनी ही रही कि दूसरी सीट वायनाड से राहुल गांधी चुनाव जीत गये.
हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया - लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी ने उसे खारिज कर दिया. लगा राहुल गांधी फिर से काम पर जुटेंगे, लेकिन अब संसदीय दल ने सोनिया गांधी को नेता चुन लिया है.
सोनिया गांधी के कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने से सत्ताधारी बीजेपी को कितना फर्क पड़ेगा, अभी कहना मुश्किल है. फिर भी सोनिया गांधी के मोर्चे पर वापस आने का असर तो चौतरफा होगा - खासकर विपक्षी खेमे में.
सोनिया को फिर मोर्चे पर क्यों आना पड़ा?
सबसे बड़ा सवाल, फिलहाल, तो यही है कि सोनिया गांधी को राजनीतिक जंग के मैदान में मोर्चे पर क्यों लौटना पड़ा है?
सोनिया गांधी ने राजनीति से संन्यास तो नहीं लिया था, लेकिन सारी जिम्मेदारी राहुल गांधी को सौंप दी थी. एक तो सोनिया गांधी की सेहत ठीक नहीं रह रही थी, दूसरे बेटे को देश की राजनीति में स्थापित करना भी था - ताकि देश की सबसे पुरानी पार्टी की विरासत को संभाल कर राहुल गांधी उसे आगे बढ़ा सकें. अफसोस, ऐसा नहीं हो पाया.
2017 में राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद सोनिया गांधी ने संकेत दिये थे कि सक्रिय राजनीति से तो वो बिलकुल दूर रहेंगी, लेकिन यूपीए की चेयरपर्सन होने के नाते - विपक्षी खेमे को एकजुट रखने की कोशिश जरूर करेंगीं. आम चुनाव से काफी पहले से लेकर अभी तक सोनिया गांधी...
सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया है, राहुल गांधी को नहीं. राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. 2017 में गुजरात विधानसभा के चुनाव खत्म हो जाने के बाद सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान पूरी तरह सौंप दी थी. कहा भी था - 'राहुल गांधी मेरे भी नेता हैं.' खुद के चुनाव लड़ने का फैसला भी कांग्रेस पर ही छोड़ दिया था. कांग्रेस का फैसला रहा कि सोनिया गांधी रायबरेली से और राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ें.
सोनिया गांधी तो रायबरेली से जीत गयीं लेकिन राहुल गांधी हार गये. राहत की बात इतनी ही रही कि दूसरी सीट वायनाड से राहुल गांधी चुनाव जीत गये.
हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया - लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी ने उसे खारिज कर दिया. लगा राहुल गांधी फिर से काम पर जुटेंगे, लेकिन अब संसदीय दल ने सोनिया गांधी को नेता चुन लिया है.
सोनिया गांधी के कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने से सत्ताधारी बीजेपी को कितना फर्क पड़ेगा, अभी कहना मुश्किल है. फिर भी सोनिया गांधी के मोर्चे पर वापस आने का असर तो चौतरफा होगा - खासकर विपक्षी खेमे में.
सोनिया को फिर मोर्चे पर क्यों आना पड़ा?
सबसे बड़ा सवाल, फिलहाल, तो यही है कि सोनिया गांधी को राजनीतिक जंग के मैदान में मोर्चे पर क्यों लौटना पड़ा है?
सोनिया गांधी ने राजनीति से संन्यास तो नहीं लिया था, लेकिन सारी जिम्मेदारी राहुल गांधी को सौंप दी थी. एक तो सोनिया गांधी की सेहत ठीक नहीं रह रही थी, दूसरे बेटे को देश की राजनीति में स्थापित करना भी था - ताकि देश की सबसे पुरानी पार्टी की विरासत को संभाल कर राहुल गांधी उसे आगे बढ़ा सकें. अफसोस, ऐसा नहीं हो पाया.
2017 में राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद सोनिया गांधी ने संकेत दिये थे कि सक्रिय राजनीति से तो वो बिलकुल दूर रहेंगी, लेकिन यूपीए की चेयरपर्सन होने के नाते - विपक्षी खेमे को एकजुट रखने की कोशिश जरूर करेंगीं. आम चुनाव से काफी पहले से लेकर अभी तक सोनिया गांधी अपनी तरफ से कोशिश भी खूब की, लेकिन बात नहीं बन पायी. विपक्ष का तो हाल ये है कि चुनाव नतीजों से पहले प्रस्तावित मीटिंग अब तक नहीं हो सकी है. न ही उसकी कोई तारीख तय हो पा रही है. दरअसल, विपक्ष के सारे बड़े नेता अपने अपने स्तर पर हार की समीक्षा में जुटे हैं. एग्जिट पोल के बाद थोड़ी देर के लिए टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू सक्रिय जरूर थे, लेकिन नतीजों ने तो सबको खामोश ही कर दिया.
2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद सोनिया गांधी को भी लगा होगा कि राहुल गांधी 2019 में कांग्रेस को अच्छे मार्क्स दिलाएंगे. ऐसा नहीं हो सका. पांच साल बाद भी कांग्रेस इस काबिल न हो सकी कि उसे लोक सभा में तकनीकी तौर पर विपक्ष का नेता पद हासिल हो सके - और तो और 2014 में जिसे लोक सभा में विपक्ष का नेता बनाया था वो मल्लिकार्जुन खड्गे भी चुनाव हार गये. अगर वायनाड से नहीं लड़े होते तो राहुल गांधी के लिए संसद में एंट्री भी नहीं हो पाती. राहुल गांधी अमेठी से ही खुद अपना चुनाव हार गये - अब इससे अजीब बात क्या होगी.
क्या मान लिया जाये कि राहुल गांधी फेल हो चुके हैं?
राहुल गांधी की जगह सोनिया गांधी के फिर से नेता चुने जाने के कई मायने हो सकते हैं - आखिर सोनिया गांधी के कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने को कैसे देखा जा सकता है?
1. एक बात तो साफ है कि कांग्रेस में नेतृत्व संकट काफी गहरा हो गया है. कांग्रेस को ऐसे नेतृत्व की सख्त आवश्यकता है कि जो पार्टी को सत्ता भले न दिला पाये, कम से कम नेता प्रतिपक्ष का पद तो दिला ही दे.
2. राहुल गांधी की अमेठी से हार इस बात का सबूत है कि गांधी परिवार का तिलिस्म अब धूमिल होने लगा है. कांग्रेस पार्टी के भीतर नेताओं की जो भी मजबूरी हो, सियासी मैदान में जनता का पूरी तरह मोहभंग हो चुका है.
3. प्रियंका गांधी वाड्रा को अरसे से कांग्रेस के लिए तुरूप का पत्ता माना जाता रहा, लेकिन आम चुनाव में वो कोई करिश्मा नहीं दिखा पायीं. रैलियों के मामले में भी वो फिसड्डी रहीं. बल्कि राहुल गांधी का स्ट्राइक रेट भी प्रियंका वाड्रा से बेहतर रहा.
4. पहली मुश्किल तो ये है कि कांग्रेस को एक नेता की जरूरत है और दूसरी ये कि गांधी परिवार से अलग किसी नेता के नाम पर कांग्रेस नेताओं का एकजुट रहना मुश्किल हो जाता है. घूम-फिर का दारोमदार गांधी परिवार पर ही आ जाता है और मजबूरन उसे फेमिली पॉलिटिक्स के ताने सुनते रहने पड़ते हैं.
5. सोनिया की मोर्चे पर वापसी से ये भी साफ हो चुका है कि राहुल गांधी पूरी तरह फेल हो चुके हैं. न तो राहुल गांधी कांग्रेस को खड़ा कर पा रहे हैं, न ही वो विपक्षी खेमे में अपनी स्वीकार्यता बढ़ा पा रहे हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी को भले ही अपना नेता मान लें, लेकिन विपक्ष राहुल गांधी को सोनिया गांधी के बेटे से ज्यादा तवज्जो नहीं देने को तैयार हो रहा है.
पांच साल बाद भी 44 से 52 ही
2014 में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गयी थी. पांच साल बाद भी बहुत कुछ बदला नहीं है - 44 से कांग्रेस सांसदों की संख्या 52 तक ही पहुंच पायी है. सबसे बुरी बात ये है कि पांच साल के कड़े संघर्ष के बाद भी कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल नहीं होने जा रहा है. कांग्रेस की ये सबसे बड़ी चुनौती है.
सोनिया गांधी ने संसदीय दल की नेता चुने जाने के बाद कांग्रेस पार्टी को वोट देने वाले 12.13 करोड़ मतदाताओं का शुक्रिया अदा किया. आखिर ये ही वे मतदाता हैं जिनके बूते कांग्रेस जहां भी हो, खड़ी तो हो पा रही है.
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में आईं सोनिया गांधी से मोदी सरकार की वापसी को लेकर सवाल पूछा गया था, जवाब मिला - 'आने ही नहीं देंगे उन्हें.' ऐन चुनावों के बीच रायबरेली में भी सोनिया गांधी ने ये एहसास कराने की कोशिश की थी. तब सोनिया गांधी ने समझाने की कोशिश की कि 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी अजेय माने जा रहे थे, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें भी हरा दिया.
सोनिया गांधी को 2004 जैसे नतीजे की उम्मीद रही होगी. शायद सोनिया गांधी ये अंदाजा नहीं लगा पायीं कि मोदी-शाह की बीजेपी अटल-आडवाणी वाली 'शाइनिंग इंडिया' पार्टी से काफी आगे निकल चुकी है.
मुमकिन है सोनिया गांधी को बच्चों पर पक्का यकीन रहा हो. हर इंसान अपनी औलाद से तो खुद से ज्यादा ही उम्मीद करता है. जाहिर है, ऐसी उम्मीदें टूटती हैं तो चुनौतियों काफी बढ़ जाती हैं और फिर कमान खुद संभालने के लिए आगे आना पड़ता है.
राहुल गांधी तो बतौर कांग्रेस अध्यक्ष ही मैदान में डटे रहे, हालांकि, इस्तीफे के वक्त उनकी बातों से ऐसा लगा जैसे उन्हें खुली छूट नहीं मिली थी - और वो ज्यादा अधिकारों की ओर इशारा कर रहे थे. राहुल तो राहुल, प्रियंका वाड्रा भी कोई चमत्कार नहीं दिखा पायीं - हालांकि, उनके हाथ भी बंधे हुए ही थे. प्रियंका ने जिन हालात में कार्यभार संभाला परिस्थितियां भी बेहद प्रतिकूल रहीं. पहले यूपी दौरे में तो राहुल गांधी ने प्रियंका वाड्रा को बोलने ही नहीं दिया. खुद ही सारी बातें करते रहे. दूसरी बार जैसे ही वो लखनऊ पहुंचीं पुलवामा हमला हो गया. प्रियंका वाड्रा को सारे कार्यक्रम स्थगित कर दिल्ली लौटना पड़ा. सार्वजनिक तौर पर पहली बात अपनी बात कहने का मौका अहमदाबाद जाकर मिला. यूपी के लोगों से संवाद स्थापित करने के लिए प्रियंका वाड्रा को काफी इंतजार करना पड़ा था.
CWC की मीटिंग में इस्तीफा देने और खारिज हो जाने के बाद पहली बार राहुल गांधी कांग्रेस के किसी कार्यक्रम में शामिल हुए थे - और राजनीतिक तौर पर ताकतवर होने का एहसास कराने के लिए काफी जोशीला भाषण भी दिया, 'हम 52 सांसद हैं और मैं गारंटी देता हूं कि ये 52 ही बीजेपी से इंच- इंच लड़ने के लिए काफी हैं... सभी कांग्रेस सदस्यों को ये याद रखना है कि हम सब संविधान के लिए लड़ रहे हैं और बिना किसी भेदभाव के हर देशवासी के लिए लड़ रहे हैं... हमें मजबूत और आक्रामक रहना होगा.'
राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवालिया निशान लग जाने और मल्लिकार्जुन खड्गे के चुनाव हार जाने के बाद - अब सोनिया गांधी लोक सभा में मोदी सरकार 2.0 के खिलाफ मोर्चा संभालने वाली हैं. राहुल गांधी भले ही इंच-इंच की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर रहे हों, कतार में पीछे ही नजर आएंगे. ये दिन कब तक देखने पड़ेंगे, सोनिया के लिए सोचना भी मुश्किल हो रहा होगा.
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