विधानसभा चुनाव तो महाराष्ट्र और हरियाणा में हो रहे हैं, लेकिन यूपी कांग्रेस में भी वैसा ही नजारा देखा जा रहा है. हर तरफ बगावत का आलम है - और बागी नेता सीधे सीधे मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व या फिर उसके सलाहकारों की टीम पर सवाल उठा रहे हैं.
हरियाणा चुनाव से पहले जब फेरबदल कर भूपिंदर सिंह हुड्डा को खुश करने की कोशिश हुई तो अशोक तंवर नाराज हो गये. हरियाणा की तरह ही महाराष्ट्र में संजय निरुपम दिल्ली के नेताओं के फैसले पर सवाल उठा रहे हैं - और पार्टी छोड़ने पर विचार करने लगे हैं.
और तो और अमेठी के बाद रायबरेली से भी कांग्रेस के लिए बुरी ही खबर आ रही है - अदिति सिंह ने तो पार्टी व्हिप को तोड़ कर अपने इरादे भी साफ कर दिये हैं.
ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस एक बार फिर उसी स्थिति में पहुंच गयी है, जहां राहुल गांधी की ताजपोशी से पहले खड़ी रही. एकबारगी लगा था कि सोनिया गांधी के फिर से मोर्चा संभाल लेने के बाद सब कुछ तो नहीं लेकिन कुछ न कुछ तो ठीक हो ही जाएगा - लेकिन ये क्या अब तो कुछ भी नहीं ठीक हो रहा है.
बड़े बेआबरू कर कांग्रेस के कूचे से निकलने की तैयारी
मध्य प्रदेश के दतिया में एक डॉक्टर हैं टीके धर. टीके धर नवरात्रों में देवी की जगह सोनिया गांधी की पूजा करते हैं - और वो भी अभी नहीं बीस साल पहले से. टीके धर चाहते हैं कि सोनिया गांधी एक दिन देश की प्रधानमंत्री बनें. 2004 में ऐसा मौका सोनिया गांधी के पास था भी, लेकिन खास परिस्थितियों में सोनिया गांधी ने अपनी जगह मनमोहन सिंह को PM बना दिया और वो दस साल तक कुर्सी पर बने भी रहे.
टीके धर सिर्फ पूजा ही नहीं करते बल्कि व्रत भी रखते हैं और फलाहार करते हैं. टीके धर का मानना है कि सोनिया गांधी देवी का अवतार हैं यही वजह है कि अपने घर के साथ साथ वो बैठते हैं सोनिया की तस्वीर जरूर रखते...
विधानसभा चुनाव तो महाराष्ट्र और हरियाणा में हो रहे हैं, लेकिन यूपी कांग्रेस में भी वैसा ही नजारा देखा जा रहा है. हर तरफ बगावत का आलम है - और बागी नेता सीधे सीधे मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व या फिर उसके सलाहकारों की टीम पर सवाल उठा रहे हैं.
हरियाणा चुनाव से पहले जब फेरबदल कर भूपिंदर सिंह हुड्डा को खुश करने की कोशिश हुई तो अशोक तंवर नाराज हो गये. हरियाणा की तरह ही महाराष्ट्र में संजय निरुपम दिल्ली के नेताओं के फैसले पर सवाल उठा रहे हैं - और पार्टी छोड़ने पर विचार करने लगे हैं.
और तो और अमेठी के बाद रायबरेली से भी कांग्रेस के लिए बुरी ही खबर आ रही है - अदिति सिंह ने तो पार्टी व्हिप को तोड़ कर अपने इरादे भी साफ कर दिये हैं.
ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस एक बार फिर उसी स्थिति में पहुंच गयी है, जहां राहुल गांधी की ताजपोशी से पहले खड़ी रही. एकबारगी लगा था कि सोनिया गांधी के फिर से मोर्चा संभाल लेने के बाद सब कुछ तो नहीं लेकिन कुछ न कुछ तो ठीक हो ही जाएगा - लेकिन ये क्या अब तो कुछ भी नहीं ठीक हो रहा है.
बड़े बेआबरू कर कांग्रेस के कूचे से निकलने की तैयारी
मध्य प्रदेश के दतिया में एक डॉक्टर हैं टीके धर. टीके धर नवरात्रों में देवी की जगह सोनिया गांधी की पूजा करते हैं - और वो भी अभी नहीं बीस साल पहले से. टीके धर चाहते हैं कि सोनिया गांधी एक दिन देश की प्रधानमंत्री बनें. 2004 में ऐसा मौका सोनिया गांधी के पास था भी, लेकिन खास परिस्थितियों में सोनिया गांधी ने अपनी जगह मनमोहन सिंह को PM बना दिया और वो दस साल तक कुर्सी पर बने भी रहे.
टीके धर सिर्फ पूजा ही नहीं करते बल्कि व्रत भी रखते हैं और फलाहार करते हैं. टीके धर का मानना है कि सोनिया गांधी देवी का अवतार हैं यही वजह है कि अपने घर के साथ साथ वो बैठते हैं सोनिया की तस्वीर जरूर रखते हैं.
टीके धर शायद इसलिए ऐसा कर रहे हैं क्योंकि वो कांग्रेस के नेता नहीं हैं. कई बार कांग्रेस कार्यकर्ताओं की ओर से भी ऐसे पोस्टर छपवाये और लगवाये जाते रहे हैं, लेकिन फिलहाल सब कुछ बदला बदला हुआ है. सोनिया गांधी के प्रति टीके धर की एक खास भावना है और वो उसी के अनुरूप वैसा कर रहे हैं - वरना, कांग्रेस में कई नेता सोनिया गांधी के नेतृत्व पर ही सवाल उठाने लगे हैं. सबसे लंबे वक्त तक कांग्रेस की कमान संभालने वाली सोनिया गांधी पर सवाल तो पहले भी उठे थे, लेकिन तब उनके विदेशी मूल के होने के कारण और उसी के चलते कांग्रेस टूट गयी थी और NCP बन गयी थी. कांग्रेस नेताओं के ताजा बगावती तेवर की वजह थोड़ी अलग है.
संजय निरुपम कांग्रेस छोड़ भी दें तो जाएंगे कहां?
संजय निरुपम और अशोक तंवर की नाराजगी की वजह एक ही है - लेकिन मुंबई कांग्रेस के नेता ने टिकट बंटवारे में पैसे के लेन देन को लेकर कोई आरोप नहीं लगाया है. संजय निरुपम ने दिल्ली में बैठे कांग्रेस नेताओं की निर्णय क्षमता पर सवाल उठाया है. संजय निरुपम टारगेट तो सोनिया गांधी के सलाहकारों को कर रहे हैं, लेकिन ये तो साफ है कि वो जिम्मेदार कांग्रेस नेतृत्व को ही मानते हैं.
संजय सिंह का कहना है कि वो पार्टी छोड़ने पर भी विचार करने लगे हैं क्योंकि सोनिया गांधी के साथ जुड़े लोग साजिश रच रहे हैं. संजय निरुपम का कहना है कि काबिल लोगों के साथ नाइंसाफी हो रही है.
अपनी बात रखने के लिए संजय निरुपम ने प्रेस कांफ्रेंस बुलायी और कहा - 'जिसको टिकट दिया गया है वह 77 साल के हैं. मेरे सीनियर हैं. ठीक से चल-फिर भी नहीं पाते हैं.'
संजय निरुपम का सवाल है - क्या टिकट देने से पहले मुझसे पूछना नहीं चाहिये था?
अशोक तंवर की तरह संजय निरूपम ने बीजेपी या किसी पार्टी से ऑफर के बारे में तो नहीं बताया है - लेकिन बागी तेवर वैसे ही हैं. चुनाव से पहले से ही कांग्रेस और एनसीपी से तमाम नेता बीजेपी और शिवसेना में जाने लगे थे. दरअसल, संजय निरूपम शिवसेना से ही कांग्रेस में आये हैं. पहले वो सामना के काम देखते थे और उनके शिवसेना छोड़ देने के बाद ही संजय राउत को वो जिम्मेदारी मिली.
सवाल है कि अगर संजय निरुपम कांग्रेस छोड़ दें तो कहां जाएंगे - बीजेपी या शिवसेना में? शिवसेना में अगर अंदर से बहुत विरोध न हो तो एंट्री मिल सकती है - लेकिन बीजेपी में तो जाने की कोई सूरत नहीं नजर आती. शिवसेना में भी तभी जब बीजेपी की ओर से कोई विरोध न जताया जाये. या फिर जैसे शिवसेना नारायण राणे को लेकर अपने विरोध से पीछे हट जाये.
संजय निरुपम का केस भी प्रियंका चतुर्वेदी से मिलता जुलता है. आम चुनाव के वक्त कांग्रेस से नाराज होकर प्रियंका चतुर्वेदी बीजेपी में जाने की कोशिश में थीं, लेकिन स्मृति ईरानी का मजाक उड़ाने के चलते उनकी रिक्वेस्ट रिजेक्ट हो गयी. संजय निरूपम और स्मृति ईरानी के बीच एक केस चल रहा है. ये केस स्मृति ईरानी की ओर से एक टीवी चैनल में संजय निरूपम की एक टिप्पणी को लेकर दर्ज कराया गया था.
क्या अशोक तंवर के साथ भी मार्गरेट अल्वा जैसा सलूक होगा?
संजय निरुपम को कहां एंट्री मिल पाएगी ये तो नहीं पता लेकिन अशोक तंवर तो साफ साफ कह चुके हैं कि बीजेपी की तरफ पिछले तीन महीने में उन्हें छह बार ऑफर मिल चुके हैं. हालांकि, अशोक तंवर का अभी तक कहना यही है कि वो कांग्रेस में बने रहेंगे.
सवाल यहां ये उठता है कि क्या कांग्रेस नेतृत्व अशोक तंवर के आरोपों को नजरअंदाज कर पाएगा?
अशोक तंवर ने भी वही काम किया है जैसा 2008 में मार्गरेट अल्वा ने किया था - और उनसे तत्काल सभी पदों से इस्तीफा मांग लिया गया. इस्तीफे में CWC की सदस्यता भी शामिल रही. मार्गरेट अल्वा अपने बेटे के लिए कर्नाटक में टिकट चाहती थीं और जब नहीं मिला तो वो बिफर उठी थीं.
अशोक तंवर ने सोहना विधानसभा सीट पर 5 करोड़ रुपये लेकर टिकट देने का आरोप लगाया है. इसके विरोध में अशोक तंवर ने दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय के सामने धरना भी दिया और चीजों को सुधारने के लिए कोशिश करते रहनी की बात भी कही.
अदिति सिंह तो रायबरेली को अमेठी बनानेवाली हैं
जिस तरीके से बीजेपी अदिति सिंह पर चारा डाल रही है और वो उसी तरफ खिंचती चली जा रही हैं - वो सब कांग्रेस नेतृत्व के लिए सबसे खतरनाक बात साबित हो सकती है. भले ही वक्त लगे लेकिन अदिति सिंह जिस राह पर चल पड़ी हैं वो रायबरेली को भी अमेठी बना सकती है.
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर 2 अक्टूबर को यूपी विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया था. कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया था, लेकिन अदिति सिंह ने कांग्रेस के फरमान को दरकिनार करते हुए सत्र में हिस्सा लिया और भाषण भी दिया. ये सब अदिति सिंह ने लखनऊ में प्रियंका गांधी वाड्रा के कांग्रेस संदेश मार्च को नजरअंदाज करते हुए किया. इससे पहले अदिति सिंह ने जम्मू-कश्मीर से जुड़ी धारा 370 हटाने के मोदी सरकार के फैसले का भी कुछ कांग्रेस नेताओं की तरह खुला सपोर्ट किया था.
अदिति सिंह की कांग्रेस के लिए कितनी अहमियत रही है इसे समझने के लिए उनके पिता के दबदबे को समझना होगा. अदिति सिंह के पिता अखिलेश सिंह रायबरेली सदर से अजेय विधायक रहे हैं. 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में अखिलेश सिंह को हराने के लिए सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने घर-घर घूम घूमकर वोट मांगे, लेकिन अखिलेश सिंह विजयी रहे. 2016 में अखिलेश सिंह को कांग्रेस में वापस बुलाया गया और अदिति सिंह को रायबरेली सदर से टिकट दिया गया - फिर अखिलेश सिंह ने अपनी राजनीतिक विरासत बेटी को सौंप दी. रायबरेली के रॉबिनहुड समझे जाने वाले अखिलेश सिंह के खिलाफ तीन दर्जन से ज्यादा मुकदमे दर्ज थे, जिनमें सबसे चर्चित रहा 1988 का सैयद मोदी हत्या कांड. वैसे 1996 में अखिलेश अदालत से बरी हो गये थे. 2003 में एक और हत्या के मामले में अखिलेश सिंह का नाम आने के बाद कांग्रेस ने निकाल दिया था.
2019 में राहुल गांधी भी अमेठी से हार गये लेकिन सोनिया गांधी की सीट बची रही तो उसकी बड़ी वजह अखिलेश सिंह ही रहे. इसी साल अगस्त में अखिलेश सिंह का लखनऊ के पीजीआई में निधन हो गया - वो लंबे वक्त से कैंसर से जूझ रहे थे.
रायबरेली संसदीय सीट के दायरे में पांच विधानसभा सीटें हैं जिनमें दो-दो कांग्रेस और बीजेपी के पास और एक समाजवादी पार्टी के कब्जे में है. बीजेपी ने सबसे पहले सोनिया गांधी के करीबी दिनेश सिंह को झटक लिया था और 2019 में उनके खिलाफ चुनाव भी लड़ाया था. अब अदिति सिंह पर डोरे डालने लगी है.
कुछ दिन पहले रायबरेली में जिला पंचायत अध्यक्ष के खिलाफ प्रस्ताव पेश होने को लेकर अदिति सिंह पर हमला हुआ था. अदिति सिंह को सपोर्ट करने प्रियंका गांधी पहुंची थीं और कहा था कि ये सभी की लड़ाई है. इस हमले को लेकर सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले दिनेश सिंह पर कांग्रेस ने उंगली उठायी थी - और प्रियंका गांधी ने कहा था कि अगर कोई दिनेश सिंह से संबंध रखेगा तो उसे कांग्रेस से निकाल दिया जाएगा.
ये सब अब बीते दिनों की बात हो गयी है. हमले के बाद अदिति सिंह ने यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार से सुरक्षा की मांग की थी - और अब उसे मंजूर करते हुए रायबरेली सदर विधायक को Y प्लस सुरक्षा दे दी गयी है.
जाहिर ये सब कुछ यूं ही तो हो नहीं रहा है!
अभी तो कांग्रेस को संभालना सोनिया के वश की भी बात नहीं
कांग्रेस में एक बार फिर जेनरेशन-गैप के चलते टकराव शुरू हो गया है. राहुल गांधी अपने तरीके से कांग्रेस को जिस भी 'मुकाम' पर ले गये थे वो न्यूट्रलाइज हो चुका है. राहुल गांधी के 'मुकाम' की पैमाइश के अपने अलग तरीके हो सकते हैं.
माना जा रहा था कि कांग्रेस के पुराने नेता राहुल गांधी के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रहे थे - और उनकी जगह जिन नये नेताओं को राहुल गांधी ने आगे बढ़ाया था वे खुद को साबित नहीं कर सके, लिहाजा राहुल गांधी को हथियार डाल देने के लिए मजबूर होना पड़ा. बीच में काफी दिनों तक कांग्रेस नेतृत्वविहीन बनी रही. जब सोनिया गांधी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनीं तो लगा कि अब स्थिति बदलेगी और जो राहुल गांधी से नहीं संभल रहा था वो सोनिया के आने से दुरूस्त हो जाएगा - क्योंकि उनके पास पुराना अनुभव है और सारे नेता राहुल की जगह उन्हें ज्यादा तवज्जो देते हैं. ऐसा हो न सका.
सोनिया गांधी के आने के साथ कांग्रेस के पुराने दिग्गज एक्टिव हो गये और राहुल गांधी के जमाने के नये कमांडर किनारे होने लगे. कमलनाथ के प्रभाव से ज्योतिरादित्य सिंधिया कमजोर होने लगे, अशोक गहलोत धीरे धीरे सचिन पायलट को हाशिये पर डालने लगे. भूपिंदर सिंह हुड्डा ने तो अशोक तंवर को लगभग ठिकाने ही लगा दिया. ये सब देख कर राहुल गांधी के करीबी नेताओं को लगने लगा कि उनके दिन लद गये - और सोनिया के करीबी फिर से उनके इर्द गिर्द मंडराने लगे और नये सिरे से शुरू हुए पीढ़ी-अंतराल के संघर्ष का खामियाजा कांग्रेस को एक बार फिर भुगतना पड़ रहा है.
अभी सोनिया गांधी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष हैं और राहुल गांधी वायनाड से सांसद भर हैं. राहुल गांधी के ट्विटर अकाउंट का संदेश तो यही है. अमेठी जाकर भी राहुल गांधी ने लोगों को यही समझाने की कोशिश की थी. फिर इसे समझना इतना आसान नहीं है.
दिल्ली में गांधी जयंती के मौके पर कांग्रेस संदेश यात्रा निकाली गयी थी - ये यात्रा राहुल गांधी के नेतृत्व में निकाली गयी थी और सोनिया गांधी ने समापन भाषण किया.
आखिर कांग्रेस नेता कैसे समझें कि किसे रिपोर्ट करना है? ये तो यही बता रहा है कि राहुल गांधी कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं. तो क्या एक बार फिर कांग्रेस में दो-दो पावर सेंटर बन गये हैं? अगर ऐसा है तो जो कुछ भी हो रहा है उसमें अजीबोगरीब तो कुछ भी नहीं लगता?
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