कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की अंतरिम पारी बड़ी ही चुनौतीपूर्ण रही है. सबसे बड़ा चैलेंज किसी भी मुद्दे पर सारे विपक्षी दलों का साथ न मिलना रहा है. ऐसे में जबकि कांग्रेस में तूफान मचा हुआ है - ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) का बेहद नरम रूख काफी सुकून देने वाला है. साथ ही, उद्धव ठाकरे की सबको साथ मिल कर लड़ने की पहल और अपील भी मरहम का ही काम कर रही होगी.
GST, JEE और NEET परीक्षा को लेकर सोनिया गांधी की तरफ से बुलायी गयी बैठक में वे सारे अवयव देखने को मिले जिसकी अरसे से विपक्षी खेमे को तलाश थी. ममता बनर्जी और सोनिया गांधी का 'पहले आप, पहले आप' वाला सम्मान और उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) की मिलकर मोदी सरकार के खिलाफ लड़ने की ललकार, मजबूरन ही सही विपक्ष के नये तेवर और इरादे की तरफ इशारा तो कर रही है - लेकिन असली सवाल यही है कि क्या ये जोश टिकाऊ भी रहने वाला है?
विपक्ष की 'होंगे कामयाब' मुहिम
ये दूसरा मौका था जब सोनिया गांधी की बुलायी गयी बैठक में ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे दोनों ही मौजूद थे. इससे पहले ऐसा 22 मई, 2020 को हुआ था जब अम्फान तूफान से हुए नुकसान का जायजा लेने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोलकाता पहुंचे थे. प्रधानमंत्री मोदी के कोलकाता से रवाना हो जाने के फौरन बाद ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विपक्षी दलों की मीटिंग में पहुंच गयी थीं - मीटिंग वैसे वर्चुअल ही थी. वो विपक्षी खेमे के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और शिवसेना नेता की पहली मीटिंग रही.
मीटिंग में ममता बनर्जी से मुखातिब उद्धव ठाकरे का कहना रहा कि दीदी हम साथ रहेंगे तो हर मुश्किल आसान हो सकती है. उद्धव ठाकरे, दरअसल, एकता की ताकत का एहसास कराने की कोशिश कर रहे थे. अलग अलग बिखरे रहे तो डराया जाता रहेगा और एक होकर लड़े तो डराने तक में कामयाब हो सकते हैं. जाहिर है उद्धव ठाकरे के निशाने पर केंद्र की मोदी-शाह की जोड़ी ही रही.
बातों बातों में ही उद्धव ठाकरे ने ये सवाल भी उठाया कि पहले तो मिल कर ये तय कर...
कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की अंतरिम पारी बड़ी ही चुनौतीपूर्ण रही है. सबसे बड़ा चैलेंज किसी भी मुद्दे पर सारे विपक्षी दलों का साथ न मिलना रहा है. ऐसे में जबकि कांग्रेस में तूफान मचा हुआ है - ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) का बेहद नरम रूख काफी सुकून देने वाला है. साथ ही, उद्धव ठाकरे की सबको साथ मिल कर लड़ने की पहल और अपील भी मरहम का ही काम कर रही होगी.
GST, JEE और NEET परीक्षा को लेकर सोनिया गांधी की तरफ से बुलायी गयी बैठक में वे सारे अवयव देखने को मिले जिसकी अरसे से विपक्षी खेमे को तलाश थी. ममता बनर्जी और सोनिया गांधी का 'पहले आप, पहले आप' वाला सम्मान और उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) की मिलकर मोदी सरकार के खिलाफ लड़ने की ललकार, मजबूरन ही सही विपक्ष के नये तेवर और इरादे की तरफ इशारा तो कर रही है - लेकिन असली सवाल यही है कि क्या ये जोश टिकाऊ भी रहने वाला है?
विपक्ष की 'होंगे कामयाब' मुहिम
ये दूसरा मौका था जब सोनिया गांधी की बुलायी गयी बैठक में ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे दोनों ही मौजूद थे. इससे पहले ऐसा 22 मई, 2020 को हुआ था जब अम्फान तूफान से हुए नुकसान का जायजा लेने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोलकाता पहुंचे थे. प्रधानमंत्री मोदी के कोलकाता से रवाना हो जाने के फौरन बाद ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विपक्षी दलों की मीटिंग में पहुंच गयी थीं - मीटिंग वैसे वर्चुअल ही थी. वो विपक्षी खेमे के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और शिवसेना नेता की पहली मीटिंग रही.
मीटिंग में ममता बनर्जी से मुखातिब उद्धव ठाकरे का कहना रहा कि दीदी हम साथ रहेंगे तो हर मुश्किल आसान हो सकती है. उद्धव ठाकरे, दरअसल, एकता की ताकत का एहसास कराने की कोशिश कर रहे थे. अलग अलग बिखरे रहे तो डराया जाता रहेगा और एक होकर लड़े तो डराने तक में कामयाब हो सकते हैं. जाहिर है उद्धव ठाकरे के निशाने पर केंद्र की मोदी-शाह की जोड़ी ही रही.
बातों बातों में ही उद्धव ठाकरे ने ये सवाल भी उठाया कि पहले तो मिल कर ये तय कर लेना चाहिये कि डरना है या लड़ना है?
असल बात तो ये है कि चाहे ममता बनर्जी हों, उद्धव ठाकरे हों या फिर सोनिया गांधी - तीनों को ही मुश्किल वक्त में सभी के सपोर्ट और मदद की सख्त जरूरत है. अगर ऐसा हुआ तभी सब ये सोच पाने की स्थिति में होंगे कि डरना है कि लड़ना है? अगर बीते चुनावों की तरह यूं ही बिखरे रहे तो डरते डरते ही लड़ना होगा और ये मान लेना होगा कि हर डर के आगे जीत पक्की हो जरूरी नहीं है.
2019 की हार के बाद जब से सोनिया गांधी को दोबारा कमान संभालनी पड़ी है, ज्यादातर विरोध का बीड़ा अकेले ही उठाना पड़ा है. चाहें वो धारा 370 का मामला रहा हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून या एनआरसी का, विरोध तो सभी विपक्षी दलों ने किया लेकिन अलग अलग और नतीजा ये रहा कि विरोध बेअसर रहा.
पहले सोनिया गांधी किसानों के मुद्दे पर या किसी और मसले पर राष्ट्रपति भवन तक मार्च का कार्यक्रम बनातीं तो सभी भले न सही लेकिन ज्यादातर विपक्षी दलों के नेता साथ हुआ करते थे, लेकिन दिल्ली दंगे के वक्त सोनिया गांधी को ये काम अकेले ही करना पड़ा. यहां तक कि चीन के मुद्दे पर भी मोदी सरकार पर हमले के मामले में कांग्रेस पूरी तरह अकेले पड़ गयी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान तो आया, लेकिन विपक्षी खेमे से किसी ने भी कांग्रेस का साथ नहीं दिया.
महाराष्ट्र के महाविकास आघाड़ी गठबंधन में साथी होने के बावजूद शरद पवार प्रधानमंत्री मोदी के सपोर्ट में आये और कांग्रेस नेतृत्व को नसीहत देते रहे. मुद्दा राष्ट्रवाद का रहा इसलिए शिवसेना को भी बीजेपी का ही सपोर्ट करना पड़ा और ममता बनर्जी भी तब कांग्रेस के विरोधी साइड में भी बनी रहीं.
ममता बनर्जी के सामने तो अगले साल होने जा रहा पश्चिम बंगाल चुनाव है, लेकिन सुशांत सिंह राजपूत केस में सीबीआई जांच के बाद से उद्धव ठाकरे आने वाले दिनों की मुश्किलें सोच सोच कर ही परेशान हो रहे हैं. सुशांत सिंह राजपूत केस में उद्धव ठाकरे राजनीतिक लड़ाई पहले ही हार चुके हैं - और इसीलिए अब ममता बनर्जी के बहाने सोनिया गांधी से भी मदद चाहते हैं. सोनिया गांधी की कांग्रेस, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और उद्धव ठाकरे की शिवसेना तीनों की अपनी अपनी मुश्किलें हैं और चुनौतियां भी अलग ही हैं - लेकिन खतरा एक ही है. सभी की कॉमन दुश्मन दिनों दिन लगातार मजबूत होती जा रही बीजेपी ही है.
ममता और सोनिया को भी एक दूसरे की जरूरत है
विपक्षी दलों की मीटिंग में सोनिया गांधी और ममता बनर्जी को बड़े दिनों बाद एक दूसरे को हाथोंहाथ लेते देखा गया. 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने 10, जनपथ का खूब चक्कर लगाया था. ममता को तो तब भी कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन में कोई दिलचस्पी नहीं थी, बल्कि उनकी कोशिश इतनी ही भर रही कि कांग्रेस और लेफ्ट साथ मिल कर चुनाव न लड़ें, लेकिन राहुल गांधी ने ममता की परवाह नहीं की और वही किया जो ममता बनर्जी को मंजूर न था. 2019 के आम चुनाव में भी ममता बनर्जी की कोशिश रही कि कांग्रेस अलग अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ उनके नेतृत्व में गठबंधन स्वीकार कर ले लेकिन राहुल गांधी प्रदेश कार्यकर्ताओं के नाम पर टालते गये. यूपी में तो सपा-बसपा गठबंधन ने कांग्रेस को दरकिनार कर ही दिया था, लेकिन ममता बनर्जी चाहती थीं कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ, दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ और आंध्र प्रदेश में टीडीपी के साथ चुनावी गठबधंन करने को तैयार हो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला थोड़ा आसान होता, लेकिन राहुल गांधी हर मोड़ पर यू टर्न लेते गये - और चुनाव नतीजे आने के ठीक पहले तो चंद्रबाबू नायडू के राहुल गांधी को मीटिंग के लिए तैयार कर लेने के बावजूद ममता बनर्जी राजी नहीं हुईं.
आम चुनाव के दौरान तो होता यही रहा कि विपक्षी दलों की मीटिंग में सोनिया गांधी और राहुल गांधी किसी न किसी नेता को प्रतिनिधि बना कर भेज देते और घर बैठे रहते. जब आम चुनाव हुए तो गांधी परिवार ममता बनर्जी की रैलियों से दूरी बनाता रहा - और फिर धीरे धीरे ममता बनर्जी राहुल गांधी के साथ साथ सोनिया गांधी से भी दूरी बनाने लगीं. आम चुनाव के दौरान तो विपक्ष भी कई गुटों में बंटा हुआ था. जितने गुट थे उतने ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे. जब भी कोई कॉमन जमघट होती ये बंटवारा साफ दिखता. शरद पवार और देवगौड़ा से लेकर नायडू तक तमाम कोशिश करते रहे लेकिन सफलता नहीं मिल पायी.
विपक्ष की ये मीटिंग इस हिसाब से अलग ही नजारा पेश कर रही थी. काफी देर तक सोनिया गांधी और ममता बनर्जी को 'पहले आप, पहले आप' करते देखा गया. सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी से रिक्वेस्ट की कि मीटिंग का संचालन वो क्यों नहीं करतीं. उस पर ममता बनर्जी बोलीं - जब आप यहां मौजूद हैं तो मैं कैसे इसकी शुरुआत कर सकती हूं. बड़े दिनों बाद ऐसी आत्मीयता देख कर हर कोई हैरान रहा.
जो ममता बनर्जी कांग्रेस से करीब करीब मुंह फेर चुकी थीं वो राजीव गांधी की बात कर रही थीं. ममता ने ध्यान दिलाया कि पूर्व प्रधानमंत्री को सम्मान नहीं मिल रहा है. ममता का ये दांव भी इमोशनल कार्ड जैसा ही समझा जाएगा. ममता बनर्जी ने कहा कि बाकी प्रधानमंत्रियों की तरह राजीव गांधी को सम्मान नहीं मिल पा रहा है. बोलीं कि राजीव गांधी के नाम पर कोई स्कीम भी नहीं है. ले देकर राजीव गांधी के नाम पर एक खेल रत्न ही है. कांग्रेस नेतृत्व की कमजोर नस पकड़े हुए ममता बनर्जी ने मनरेगा का भी जिक्र किया कि महात्मा गांधी के नाम पर भी सिर्फ वही योजना बची है.
विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए आतुर और जूझ रहीं सोनिया गांधी के लिए ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे का मदद के लिए हाथ बढ़ाना सभी के लिए फायदेमंद तो है, लेकिन ये सब तभी तक हो पाता है जब तक कोई राहुल गांधी के प्रधानमंत्री पद पर दावे को चैलेंज न करे - क्योंकि ऐसा होते ही सारी सहृदयता और गर्मजोशी ठंडी पड़ जाती है.
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