रामलीला मैदान (Ramlila Maidan) में कांग्रेस की 'भारत बचाओ रैली' में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने जोर देते हुए देशवासियों से अपील की, 'अब वक्त आ गया है कि घरों से निकलिए और आंदोलन (Call for Agitation) कीजिए.'
ये उसी रैली की बात जिसमें राहुल गांधी ने रेप इन इंडिया पर माफी के पलटवार में सावरकर का जिक्र किया और नये सिरे से विवाद शुरू हो गया. रैली में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मौजूदगी से राहुल गांधी खासे उत्साहित दिखे और कार्यकर्ताओं को बब्बर शेर और शेरनियां जैसी उपाधि दे डाली. जाहिर है सोनिया गांधी ने भी कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाने के लिए ही ऐसा किया हो. कार्यकर्ताओं की बात और है, लेकिन सवाल ये है कि क्या वे लोग भी सोनिया गांधी की इस बात पर गंभीरता से सोचेंगे जो कांग्रेस के कार्यकर्ता नहीं हैं - लेकिन क्यों?
ऐसी अपील तो उन नेताओं की ओर से होती रही है जो जनता के मन की बात करते हैं. जनता जिन बातों से बेहाल हो चुकी होती है, उन मुद्दों को लेकर आवाज उठाते हैं. आवाज देते हैं तो उसमें कोई खास राजनीतिक मकसद साफ तौर पर नहीं नजर आता. मिसाल के तौर पर समय समय पर जेपी यानी जयप्रकाश नारायण और अन्ना हजारे ऐसा कर चुके हैं - और लोग घरों से निकल पड़े हैं. अन्ना की बात पर तो जगह जगह गलियों और सड़कों पर लोग निकले थे, जेपी के दौर में जेलों तक पहुंच गये थे.
सवाल है कि सोनिया गांधी की अपील को भी क्या लोग जेपी और अन्ना की अपील जैसा समझेंगे?
नेतृत्व कौन कर रहा है?
सोनिया गांधी उसी रामलीला मैदान में बने मंच पर थीं, जहां से 2011 में अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसे आंदोलन का नेतृत्व किया था जो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकार पर बहुत भारी पड़ा - पहले कांग्रेस को दिल्ली में 15 साल से जमी जमायी शीला दीक्षित की सरकार गंवानी पड़ी और फिर फिर केंद्र की सत्ता से भी छुट्टी हो गयी.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जो व्यक्ति आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था वो किसी राजनीतिक दल का मुखिया नहीं था. अन्ना आंदोलन से पहले जेपी के...
रामलीला मैदान (Ramlila Maidan) में कांग्रेस की 'भारत बचाओ रैली' में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने जोर देते हुए देशवासियों से अपील की, 'अब वक्त आ गया है कि घरों से निकलिए और आंदोलन (Call for Agitation) कीजिए.'
ये उसी रैली की बात जिसमें राहुल गांधी ने रेप इन इंडिया पर माफी के पलटवार में सावरकर का जिक्र किया और नये सिरे से विवाद शुरू हो गया. रैली में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मौजूदगी से राहुल गांधी खासे उत्साहित दिखे और कार्यकर्ताओं को बब्बर शेर और शेरनियां जैसी उपाधि दे डाली. जाहिर है सोनिया गांधी ने भी कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाने के लिए ही ऐसा किया हो. कार्यकर्ताओं की बात और है, लेकिन सवाल ये है कि क्या वे लोग भी सोनिया गांधी की इस बात पर गंभीरता से सोचेंगे जो कांग्रेस के कार्यकर्ता नहीं हैं - लेकिन क्यों?
ऐसी अपील तो उन नेताओं की ओर से होती रही है जो जनता के मन की बात करते हैं. जनता जिन बातों से बेहाल हो चुकी होती है, उन मुद्दों को लेकर आवाज उठाते हैं. आवाज देते हैं तो उसमें कोई खास राजनीतिक मकसद साफ तौर पर नहीं नजर आता. मिसाल के तौर पर समय समय पर जेपी यानी जयप्रकाश नारायण और अन्ना हजारे ऐसा कर चुके हैं - और लोग घरों से निकल पड़े हैं. अन्ना की बात पर तो जगह जगह गलियों और सड़कों पर लोग निकले थे, जेपी के दौर में जेलों तक पहुंच गये थे.
सवाल है कि सोनिया गांधी की अपील को भी क्या लोग जेपी और अन्ना की अपील जैसा समझेंगे?
नेतृत्व कौन कर रहा है?
सोनिया गांधी उसी रामलीला मैदान में बने मंच पर थीं, जहां से 2011 में अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसे आंदोलन का नेतृत्व किया था जो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकार पर बहुत भारी पड़ा - पहले कांग्रेस को दिल्ली में 15 साल से जमी जमायी शीला दीक्षित की सरकार गंवानी पड़ी और फिर फिर केंद्र की सत्ता से भी छुट्टी हो गयी.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जो व्यक्ति आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था वो किसी राजनीतिक दल का मुखिया नहीं था. अन्ना आंदोलन से पहले जेपी के आंदोलन से भी लोग इसीलिए जुड़ पाये क्योंकि उन्हें लगा कि वे उनके हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं.
बेशक सोनिया गांधी भी सत्ता पक्ष के खिलाफ वैसी ही लड़ाई की कॉल दे रही हैं, लेकिन सोनिया गांधी की अपील पर इसलिए यकीन नहीं हो रहा है - क्योंकि लग रहा है कि ये लड़ाई राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के मकसद से हो रही है. जब मुल्क की बड़ी आबादी नरेंद्र मोदी के कामों में ही खुश है तो मोदी सरकार के खिलाफ राहुल गांधी के लिए घरों से निकल कर आंदोलन क्यों करे?
सोनिया गांधी ने अपनी तरफ से समझाने की पूरी कोशिश भी की, 'किसी भी व्यक्ति, समाज और देश की जिंदगी में कभी-कभी ऐसा वक्त आता है कि उसे इस पार या उस पार का फैसला लेना पड़ता है... आज वही वक्त आ गया है... देश को बचाना है तो हमें कठोर संघर्ष करना होगा...'
अगर लोग सोनिया गांधी की अपील को लेकर गंभीरता से सोचें तो भी कुछ सवाल सहज तौर पर उठते हैं - आंदोलन की अगुवाई करने वाला कौन है?
रामलीला मैदान में पूरा गांधी परिवार मौजूद था. सोनिया गांधी के अलावा सिर्फ राहुल ही नहीं, प्रियंका गांधी वाड्रा भी. आम चुनाव के बाद ये पहला मौका रहा जब पूरा गांधी परिवार किसी सार्वजनिक मंच पर एक साथ दिखायी दिया. एक छोर पर सोनिया गांधी तो दूसरी छोर पर प्रियंका वाड्रा और बीच में राहुल गांधी - जो खाली जगह थे उसे गुलाम नबी आजाद, केसी वेणुगोपाल, अधीर रंजन चौधरी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह.
आम चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव हुए और फिलहाल झारखंड में चुनाव प्रक्रिया जारी है. सोनिया गांधी और प्रियंका तीनों ही चुनावों में झांकने तक नहीं गयीं. हरियाणा को लेकर प्रियंका गांधी की अनावश्यक विवादों से परहेज मान भी लें तो महाराष्ट्र और झारखंड में? झारखंड में पहले फेज के स्टार प्रचारकों में प्रियंका गांधी का नाम नहीं था. जब सवाल उठे तो दूसरे फेज वाले में डाल दिया गया - फिर बताया गया वो तो सिर्फ यूपी तक सीमित हैं. रामलीला मैदान के मंच से वो केंद्र के साथ साथ यूपी में भी सत्ताधारी बीजेपी पर हमला बोलते जरूर दिखीं.
रामलीला मैदान से पहले तक राहुल गांधी को छोड़ दें तो बाकी दोनों में से किसी ने भी विधानसभा चुनावों में जाकर नहीं बताया कि तब की राज्य सरकारें क्या गलत कर रही थीं - और कांग्रेस विकल्प क्यों बन सकती है?
झारखंड में चुनाव प्रचार को लेकर खबर आयी कि राहुल गांधी का वक्त मिलना ही मुश्किल है. कांग्रेस नेताओं को बताया गया कि चुनाव की तारीखें उनकी छुट्टों के प्रोग्राम से टकरा रही हैं. ज्यादा से ज्यादा वायनाड के चार दिन के दौरे से पहले एक दिन का वक्त निकाल सकते हैं. हुआ भी ऐसा ही. वायनाड से लौटे तो फिर से झारखंड में वोट मांगने गये. वोटों का हिसाब तो बाद में मालूम होगा. गोड्डा की रैली से नया विवाद खड़ा कर आये - 'रेप इन इंडिया.' फिर रामलीला मैदान से सावरकर विमर्श. बीजेपी तो बीजेपी, अब तो महाराष्ट्र में सेक्युलर सरकार वाले शिवसेना के नेता भी सावरकर पर नसीहत दे रहे हैं.
अब सोचने वाली बात है - जब कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ही कोई स्थायी नेतृत्व करने वाला ही नहीं दिखाई दे रहा हो - फिर घरों से कोई क्यों निकलेगा?
आंदोलन कौन करेगा?
नेतृत्व का जो सवाल है वो तो अपनी जगह है ही, बड़ा सवाल ये है कि आंदोलन में शामिल कौन होगा?
समझना ये भी जरूरी हो जाता है कि घरों से निकलने से आशय क्या है? घरों से निकल कर सड़क पर प्रदर्शन की अपेक्षा है? या फिर सोनिया गांधी वैसे ही काम के लिए घरों से निकलने को कह रही हैं जो पूर्वोत्तर के राज्यों और पश्चिम बंगाल में लोग कर रहे हैं?
कांग्रेस नेतृत्व को भी अब तक ये तो समझ आ ही चुका होगा कि जो लोग भी नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हैं वे घरों से निकल चुके हैं - समझने वाली बात ये है कि ये कहां के लोग हैं? साफ है, पश्चिम बंगाल, असम और आस पास के लोग हैं. दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्र हैं - बस. ये भी समझ लेना चाहिये कि ये सब सोनिया गांधी की अपील से पहले की बातें हैं. जिनको घरों से निकलना है निकल चुके हैं - और ये सोनिया गांधी की सार्वजनिक अपील से नहीं निकले हैं. हो सकता है - जैसा कि अमित शाह कह रहे हैं - विरोध प्रदर्शनों के पीछे कांग्रेस का हाथ हो भी, लेकिन अब इससे ज्यादा कुछ तो होने से रहा.
जब बिल को लेकर हर तरफ वाहवाही हो रही है. जब बहुमत वाह वाह कर रहा है - हो सकता है वो बीजेपी कार्यकर्ता या समर्थक हों - ऐसे में सोनिया गांधी की अपील पर आंदोलन में किसकी दिलचस्पी होगी?
वैसे भी सोनिया गांधी ने जैसे आंदोलन की तरफ इशारा किया है - वैसा तभी हो पाता है जब जेपी या अन्ना हजारे जैसा चेहरा हो और अरविंद केजरीवाल जैसा कोई आंदोलन का आर्किटेक्ट हो. कांग्रेस में फिलहाल तो कोई ऐसा दिखता भी नहीं - ले देकर राहुल गांधी हैं तो वो कुर्सी भी छोड़ चुके हैं और छुट्टी पर जाने के अगले मौके के इंतजार में हैं.
आंदोलन का मुद्दा क्या है?
अगला सवाल यही है कि आंदोलन का मुद्दा क्या है?
क्या मेक इन इंडिया और रेप इन इंडिया की तुकबंदी को लेकर छिड़ी बहस और बवाल को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन की जरूरत है? क्या रेप इन इंडिया पर माफी को वीर सावरकर से जोड़ देने पर मचे बवाल के लिए आंदोलन की जरूरत है?
रेप इन इंडिया और सावरकर पर चर्चा से इतर किसी मुद्दे पर फोकस तो लग नहीं रहा है - फिर किस मुद्दे पर आंदोलन करना है?
देश में बेरोजगारी के हाल पर तो कोई चर्चा होती नहीं. महंगाई ने क्या हाल कर रखा है, ये तो बहस का मुद्दा ही नहीं हो सकता - और अर्थव्यवस्था पर सही तस्वीर क्या है ये समझाने की भी किसी को फुर्सत नहीं है. जब भी ऐसी बातों पर बहस की स्थिति बनती है, तभी उसे रेप इन इंडिया और सावरकर से जोड़ कर किसी नयी सड़क पर मोड़ दिया जाता है.
अच्छा होगा, कांग्रेस विरोध किस बात का करना चाहती है - पहले तो वो इसे ही तय कर ले. सिर्फ तय करने से ही नहीं होने वाला. ध्यान रहे, मुद्दों को हाइलाइट करने के चक्कर में ऐसी बातों से न जोड़ दिया जाये कि असल मुद्दा पीछे छूट जाये और हाशिये के मुद्दों पर मुख्यधारा में बहस चलने लगे. अभी तो कांग्रेस की मुख्य समस्या यही है. जब तक वो इससे नहीं उबर जाती कुछ नहीं होने वाला.
सोनिया गांधी को पहले तो ये समझना होगा कि देश के नाम पर कांग्रेस को बचाने की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. मई, 2016 में भी लोकतंत्र बचाओ रैली जंतर मंतर पर हुई थी. रैली के आस पास रॉबर्ट वाड्रा के भी पोस्टर लगाये गये थे. मैसेज गया लोकतंत्र बचाने के नाम पर सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, रॉबर्ट वाड्रा को बचाना असली मकसद है - और सब टांय टांय फिस्स हो गया.
रामलीला मैदान से भी जो अपील सोनिया गांधी ने की है उसका भी वैसा ही हश्र होता नजर आ रहा है - अगर चीजों को ठीक से पेश नहीं किया गया तो हर बार ऐसा ही होगा. ठीक है?
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