राजनीतिक दलों के नंबर के हिसाब से देखें तो सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की मीटिंग का स्कोर सबसे ज्यादा है - कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित 19 दलों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है.
ठीक पहले कपिल सिब्बल के डिनर में 17 विपक्षी दलों के 45 नेता शामिल हुए थे - ब्रेकफास्ट का न्योता तो राहुल गांधी ने भी 17 पार्टियों को ही भेजा था, लेकिन 15 ने ही मौजूदगी दर्ज करायी. उसके पहले वाली राहुल गांधी की मीटिंग में 14 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे.
पहल तो विपक्ष को एकजुट करने की ममता बनर्जी ने ही शुरू की थी, लेकिन राहुल गांधी के बाद कपिल सिब्बल के नेतृत्व में G-23 नेताओं ने जिस तरह का जमावड़ा दिखाया, सोनिया गांधी की मीटिंग में उससे कहीं आगे की उम्मीद रही.
2018 के राष्ट्रपति चुनाव और जीएसटी लाये जाने का मौका छोड़ दें तो कोरोना काल में सोनिया गांधी ने गैर-बीजेपी मुख्यमंत्री की मीटिंग बुलायी थी - और उसके बाद अब जाकर विपक्षी दलों की कोई ऐसी मीटिंग सोनिया गांधी के नेतृत्व में हुई है. सोनिया गांधी की मीटिंग में विपक्षी दिग्गजों की अच्छी शिरकत भी रही, लेकिन ये मीटिंग मुकम्मल नहीं तो उसके कुछ करीब तो होनी ही चाहिये थी.
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की विपक्षी दलों के नेताओं के साथ हुई वर्चुअल बहुत सारे मुद्दों पर सहमति भी बनी है और विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने 11 सूत्रीय मांग भी पेश की गयी है - और बस यही वे मुद्दे हैं जो विपक्ष के कॉमन एजेंडा जैसे लगते हैं.
कपिल सिब्बल के डिनर में कांग्रेस के G-23 नेताओं के दिमाग में एक तस्वीर बिलकुल साफ दिखी - केंद्र से पहले बीजेपी को राज्यों से भगाने के लिए सबसे पहले यूपी पर फोकस करना चाहिये - सोनिया गांधी की मीटिंग में सरासर अभाव नजर आता...
राजनीतिक दलों के नंबर के हिसाब से देखें तो सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की मीटिंग का स्कोर सबसे ज्यादा है - कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित 19 दलों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है.
ठीक पहले कपिल सिब्बल के डिनर में 17 विपक्षी दलों के 45 नेता शामिल हुए थे - ब्रेकफास्ट का न्योता तो राहुल गांधी ने भी 17 पार्टियों को ही भेजा था, लेकिन 15 ने ही मौजूदगी दर्ज करायी. उसके पहले वाली राहुल गांधी की मीटिंग में 14 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे.
पहल तो विपक्ष को एकजुट करने की ममता बनर्जी ने ही शुरू की थी, लेकिन राहुल गांधी के बाद कपिल सिब्बल के नेतृत्व में G-23 नेताओं ने जिस तरह का जमावड़ा दिखाया, सोनिया गांधी की मीटिंग में उससे कहीं आगे की उम्मीद रही.
2018 के राष्ट्रपति चुनाव और जीएसटी लाये जाने का मौका छोड़ दें तो कोरोना काल में सोनिया गांधी ने गैर-बीजेपी मुख्यमंत्री की मीटिंग बुलायी थी - और उसके बाद अब जाकर विपक्षी दलों की कोई ऐसी मीटिंग सोनिया गांधी के नेतृत्व में हुई है. सोनिया गांधी की मीटिंग में विपक्षी दिग्गजों की अच्छी शिरकत भी रही, लेकिन ये मीटिंग मुकम्मल नहीं तो उसके कुछ करीब तो होनी ही चाहिये थी.
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की विपक्षी दलों के नेताओं के साथ हुई वर्चुअल बहुत सारे मुद्दों पर सहमति भी बनी है और विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने 11 सूत्रीय मांग भी पेश की गयी है - और बस यही वे मुद्दे हैं जो विपक्ष के कॉमन एजेंडा जैसे लगते हैं.
कपिल सिब्बल के डिनर में कांग्रेस के G-23 नेताओं के दिमाग में एक तस्वीर बिलकुल साफ दिखी - केंद्र से पहले बीजेपी को राज्यों से भगाने के लिए सबसे पहले यूपी पर फोकस करना चाहिये - सोनिया गांधी की मीटिंग में सरासर अभाव नजर आता है.
बताते हैं कि कांग्रेस की तरफ से मायावती (Mayawati) की बीएसपी और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को न्योता ही नहीं भेजा गया था और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने दूरी बना ली - भला यूपी चुनाव जैसे बीजेपी को घेरने के बेहतरीन मौके पर विपक्ष एकजुट नहीं हो पा रहा है तो 2024 को लेकर अभी से अंदाजा लगा पाना ज्यादा मुश्किल भी नहीं लगता.
मुश्किल मोर्चे पर कमजोर किलेबंदी
विपक्ष की वर्चुअल मीटिंग की सोनिया गांधी तो होस्ट ही रहीं, कांग्रेस की तरफ से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की मौजूदगी महत्वपूर्ण रही.
सबसे महत्वपूर्ण लगा ममता बनर्जी का शामिल होना क्योंकि जिस दुखी मन के साथ वो दिल्ली से लौटी थीं, और राहुल गांधी पूरी महफिल ही लूटने में जुटे थे, तृणमूल कांग्रेस की तरफ से महज प्रतिनिधित्व नहीं नेता का होना कहीं ज्यादा जरूरी रहा.
विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने में सक्रिय शरद पवार की हिस्सेदारी और लालू यादव की तरफ से तेजस्वी यादव की नुमाइंदगी भी अहम समझी जा सकती है. तेजस्वी यादव ने जो बात कही वो भी ध्यान खींचने वाली रही - विपक्ष को चाहिये को वो अपने एजेंडे पर चुनाव लड़े, लेकिन मुद्दों में धार और नयापन लाने की भी जरूरत है.
सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई नेता डी राजा, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती और नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला के साथ साथ ममता बनर्जी के अलावा मुख्यमंत्रियों में शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे, डीएमके नेता एमके स्टालिन और JMM नेता हेमंत सोरेन ने हिस्सा लेकर सोनिया गांधी के प्रति समर्थक को मजबूती तो दी ही है.
सारी चीजें अपनी जगह सही और सकारात्मक हैं, लेकिन जो बात सबसे ज्यादा खटक रही है, वो है - बीजेपी के खिलाफ सबसे कठिन मोर्चे पर विपक्षी दलों की तरफ से सबसे कमजोर मोर्चाबंदी.
सोनिया गांधी की मीटिंग में आप नेता अरविंद केजरीवाल को न्योता न दिया जाना कोई खास बात नहीं लगती है - हो सकता है, ममता बनर्जी को ये बुरा लगता हो. ममता बनर्जी ने शुरू से ही अरविंद केजरीवाल को विपक्ष में साथ रखन की जोरदार पैरवी की है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व का परहेज बना हुआ है. वैसे भी ममता बनर्जी के खिलाफ दिल्ली दौरे में जो साजिश हुई, उसके बाद बहुत कुछ कहने की स्थिति में वो लगती भी नहीं हैं.
बीएसपी नेता मायावती को भी मीटिंग में न बुलाने की तो खास वजह है ही - 2019 के आम चुनाव में मायावती ने अखिलेश यादव के साथ मिल कर कांग्रेस नेतृत्व के साथ जो व्यवहार किया था, वो भूलने वाली तो नहीं है. बल्कि 2018 के आखिर से ही - मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में भी. राजस्थान का तो बदला तो बीएसपी विधायकों को कांग्रेस में लाकर अशोक गहलोत ने ले भी लिया - लेकिन यूपी की राजनीति में मायावती कितनी भी कमजोर क्यों न हो चुकी हों, नजरअंदाज तो नहीं ही किया जा सकता. कम से कम अभी तो बिलकुल नहीं.
सोनिया गांधी की मीटिंग के लिए सबसे बड़ा सेटबैक है अखिलेश यादव का दूरी बना लेना. राहुल गांधी की बैठकों में तो रामगोपाल यादव ही समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते रहे, लेकिन कपिल सिब्बल के यहां तो अखिलेश यादव खुद भी पहुंचे थे. अखिलेश यादव का मीटिंग में नहीं शामिल होना सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि बाकी विपक्षी दलों के लिए भी सबसे बड़ी फिक्र वाली बात है - वो भी तब जबकि लालू यादव ओबीसी पॉलिटिक्स की बदौलत अखिलेश यादव के नेतृत्व में यूपी में बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खड़ा करने की जोरदार कोशिश कर रहे हैं
प्रियंका गांधी भी यूपी चुनाव में गठबंधन की पक्षधर होने का इजहार कर चुकी हैं - बल्कि, जिस महिला के बदसलूकी का मुद्दा उठाया था वो सपा की ही नेता है. ममता बनर्जी के दिल्ली दौरे में भी ये संकेत देने की कोशिश की गयी थी कि बीजेपी के खिलाफ मोर्चेबंदी की शुरुआत यूपी से ही करनी होगी.
कोई दो राय नहीं कि अगर यूपी में विपक्ष मिल कर बीजेपी को कमजोर करने में सफल हो जाये तो 2024 में उसका सीधा असर देखने को मिल सकता है. बीजेपी नेतृत्व खुद भी यूपी को लेकर डरा हुआ है और कदम कदम पर सोच समझ कर ही आगे बढ़ा रहा है. दिल्ली में योगी आदित्यनाथ को बुलाकर यूपी से जुड़े सभी नेताओं के साथ बैठक के बाद अमित शाह जल्द ही यूपी में डेरा डालने वाले हैं.
असल में, पश्चिम बंगाल की हार के बाद बीजेपी में 2024 की चिंता बढ़ गयी है. बीजेपी को लगने लगा है कि हो सकता है पश्चिम बंगाल में अगली बार 2019 की तरह सीटें न मिलें, लेकिन अगर यूपी में कुछ भी गड़बड़ हो जाता है तो अगले आम चुनाव में नंबर जुटाना मुश्किल हो सकता है.
ऐसी हालत में अगर विपक्ष यूपी में ही एकजुट होकर बीजेपी को चैलेंज करने की कोशिश नही करता, तो भला कैसे समझा जाये कि आगे कोई करिश्मा कर देगा.
जगनमोहन रेड्डी तो एनडीए में न होकर भी खुल्लम खुल्ला बीजेपी के साथ ही रहते हैं. जब हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एकतरफा संवाद को लेकर ट्वीट किया था तो जगनमोहन रेड्डी ने कड़ा विरोध जताकर कर अपना स्टैंड भी साफ कर दिया था. नवीन पटनायक भले ही बीजेपी और कांग्रेस दोनों से बराबर दूरी जताने की कोशिश करते हों, लेकिन बीएसपी की ही तरह बीजेडी नेता के अंदर भी मोदी सरकार को लेकर एक सॉफ्ट कॉर्नर नजर तो आता ही है.
एजेंडा जरूर कॉमन है, सिर्फ साथ नहीं हैं सभी
विपक्षी दलों की तरफ से 11 सूत्रीय मांगों में अलग अलग विपक्षी दलों की मांगे तो शामिल हैं ही, लेकिन राहुल गांधी की डिमांड लिस्ट का दबदबा लगता है - मसलन, गरीबों के खातों में पैसे भेजने की न्याय योजना, मनरेगा और जम्मू-कश्मीर पर कांग्रेस का स्टैंड.
ताजा मांग आयकर दायरे से बाहर के सभी परिवारों को हर महीने ₹ 7500 ट्रांसफर करने की हो रही है - तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने और एमएसपी पर कानून बनाने की भी मांग की गयी है जिसे लेकर किसानों का आंदोलन चल रहा है.
पेगासस और राफेल डील की जांच की मांग के साथ ही, जम्मू-कश्मीर में सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने, जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने और फिर जल्द से जल्द स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराये जाने की भी मांग की गयी है.
मीटिंग में सोनिया गांधी की तरफ से जोर देकर कहा गया - आखिर में हमारा लक्ष्य 2024 का लोकसभा चुनाव ही है... हमें ऐसी सरकार के लिए योजना बनाकर काम करना होगा जो आजादी के आंदोलन के मूल्यों में विश्वास करती हो.
सोनिया गांधी ने ये भी समझाया कि सबकी अपनी अपनी हदें और आपस में मतभेद हो सकते हैं लेकिन ये वक्त ऐसी चीजों से ऊपर उठ कर सोचने का है. सारे नेताओं ने तो अपने अपने सुझाव दिये लेकिन ममता बनर्जी ने बातों बातों में बोल ही दिया कि विपक्षी खेमे में पिक-एंड-चूज की प्रैक्टिस घातक हो सकती है.
ममता बनर्जी ने भी सोनिया गांधी के निजी हितों को किनारे रखने की बात दोहरायी, लेकिन ये भी साफ साफ बोल दिया कि बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में सभी राजनीतिक दलों को इनवाइट करना ही चाहिये. जाहिर है ममता बनर्जी का इशारा अरविंद केजरीवाल और मायावती को लेकर ही रहा.
ममता बनर्जी ने ये भी दोहराया कि विपक्ष का नेता कौन होगा, ये भुला कर उन पार्टियों को भी लड़ाई में साथ लाना होगा जो कांग्रेस के साथ नहीं हैं - और हमेशा एक बात याद रहे कि लड़ाई सिर्फ बीजेपी से है.
माना जा रहा है कि प्रियंका गांधी के बीएसपी को बीजेपी की बी टीम बताने और मायावती को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता मानने के चलते ही बुलावा नहीं भेजा गया होगा - और अरविंद केजरीवाल को लेकर तो कांग्रेस नेतृत्व की हिचकिचाहट खत्म ही नहीं हो पा रही है. हालांकि, दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का वही स्टैंड नजर आया था जो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को बीजेपी के खिलाफ परोक्ष सपोर्ट का रहा.
मीटिंग के बाद लोक जनता दल के नेता शरद यादव ने बाकी बातों के अलावा ये भी बताया कि ममता बनर्जी ने बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट रखने के लिए एक कोर ग्रुप बनाने की सलाह दी है - लगे हाथ शरद यादव ने ये भी बता दिया - ये तो साफ है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ही है, लिहाजा सोनिया गांधी या राहुल गांधी ही कोर ग्रुप की अध्यक्षता करेंगे. शरद यादव ने विश्वास जताया कि मीटिंग में शामिल सभी लोगों की ऐसी ही भावना होगी, लेकिन ऐसा लगता तो बिलकुल नहीं है.
ममता बनर्जी ने जिस मजबूती के साथ मीटिंग में सबको साथ लेकर चलने और किसी से निजी परहेज न करने की सलाह दी है. नेता के नाम पर रिजर्वेशन को ताक पर रख देने की बात कही है - ममता बनर्जी का कद तो सोनिया गांधी से भी बड़ा नजर आने लगा है.
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