कांग्रेस (Congress) के अंदरखाने से खबर आयी है कि 2024 तक सोनिया गांधी ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनी रह सकती हैं. मतलब ये हुआ कि तब तक राहुल गांधी की नये सिरे से ताजपोशी के चांस तो बिलकुल भी नहीं हैं.
2024 से, दरअसल, मतलब, अगले आम चुनाव से है. अभी तीन साल का वक्त बाकी है और तब तक कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो चुके होंगे. तब तक कांग्रेस में भी पंजाब जैसी नयी समस्याएं जन्म ले चुकी होंगी. कुछ का हाल पंजाब जैसा भी हो चुका होगा.
राजस्थान तो अक्सर सुर्खियों में बना रहता है, लेकिन कांग्रेस के झगड़ों की फेहरिस्त छोटी नहीं है - छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हरियाणा और मध्य प्रदेश से भी कहीं आग कहीं धुआं जैसा माहौल तो बन ही चुका है.
सवाल ये है कि सोनिया गांधी के अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष बने रहने से या फिर राहुल गांधी (Sonia and Rahul Gandhi) की फिर से ताजपोशी हो जाने से ही कांग्रेस की सियासी सेहत पर कितना असर हो पाएगा?
2014 की बात अलग है, लेकिन 2019 में तो राहुल गांधी कांग्रेस का नेतृत्व कर ही चुके हैं और जिम्मेदारी लेते हुई अध्यक्ष पद से इस्तीफा भी दे चुके हैं - लेकिन क्या कांग्रेस के कामकाज में कोई व्यावहारिक बदलाव आया है?
पुरानी बातें छोड़ भी दें तो पंजाब के ही केस में सारी गतिविधियों के केंद्रबिंदु तो राहुल गांधी ही नजर आये. प्रियंका गांधी वाड्रा ने नवजोत सिंह सिद्धू से मुलाकात कराने से पहले राहुल गांधी की परमिशन ली - और राहुल गांधी के ग्रीन सिग्नल देने के बाद ही बात सोनिया गांधी तक पहुंची. वरना, कैप्टन अमरिंदर सिंह और सचिन पायलट तो दिल्ली में इंतजार करके लौट ही चुके थे.
कांग्रेस के राजनीतिक वारिस होने की वजह से ही तो राहुल गांधी की एक आम सांसद होते हुए, वो भी जो अपनी पुरानी सीट से हार...
कांग्रेस (Congress) के अंदरखाने से खबर आयी है कि 2024 तक सोनिया गांधी ही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनी रह सकती हैं. मतलब ये हुआ कि तब तक राहुल गांधी की नये सिरे से ताजपोशी के चांस तो बिलकुल भी नहीं हैं.
2024 से, दरअसल, मतलब, अगले आम चुनाव से है. अभी तीन साल का वक्त बाकी है और तब तक कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो चुके होंगे. तब तक कांग्रेस में भी पंजाब जैसी नयी समस्याएं जन्म ले चुकी होंगी. कुछ का हाल पंजाब जैसा भी हो चुका होगा.
राजस्थान तो अक्सर सुर्खियों में बना रहता है, लेकिन कांग्रेस के झगड़ों की फेहरिस्त छोटी नहीं है - छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हरियाणा और मध्य प्रदेश से भी कहीं आग कहीं धुआं जैसा माहौल तो बन ही चुका है.
सवाल ये है कि सोनिया गांधी के अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष बने रहने से या फिर राहुल गांधी (Sonia and Rahul Gandhi) की फिर से ताजपोशी हो जाने से ही कांग्रेस की सियासी सेहत पर कितना असर हो पाएगा?
2014 की बात अलग है, लेकिन 2019 में तो राहुल गांधी कांग्रेस का नेतृत्व कर ही चुके हैं और जिम्मेदारी लेते हुई अध्यक्ष पद से इस्तीफा भी दे चुके हैं - लेकिन क्या कांग्रेस के कामकाज में कोई व्यावहारिक बदलाव आया है?
पुरानी बातें छोड़ भी दें तो पंजाब के ही केस में सारी गतिविधियों के केंद्रबिंदु तो राहुल गांधी ही नजर आये. प्रियंका गांधी वाड्रा ने नवजोत सिंह सिद्धू से मुलाकात कराने से पहले राहुल गांधी की परमिशन ली - और राहुल गांधी के ग्रीन सिग्नल देने के बाद ही बात सोनिया गांधी तक पहुंची. वरना, कैप्टन अमरिंदर सिंह और सचिन पायलट तो दिल्ली में इंतजार करके लौट ही चुके थे.
कांग्रेस के राजनीतिक वारिस होने की वजह से ही तो राहुल गांधी की एक आम सांसद होते हुए, वो भी जो अपनी पुरानी सीट से हार चुका हो - हर महत्वपूर्ण फैसले में मुहर जरूरी होती है. आखिर राहुल गांधी के मुहर लगाने के बाद ही तो सोनिया गांधी भी दस्तखत करती हैं. 2024 तक वैसे भी राहुल गांधी कांग्रेस के जनाधार में कोई करिश्माई बदलाव ला नहीं सकते - और जब सोनिया गांधी को भी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की सहमति से ही फैसले लेने हैं, फिर फर्क क्या पड़ता है कि अध्यक्ष की कुर्सी पर कौन बैठा और किसी भी फैसले पर अंतिम मुहर कौन लगाता है?
रही बात 2024 में विपक्ष के नेतृत्व की तो कांग्रेस के हाथ से विपक्ष की कमान निकल चुकी है. शरद पवार और यशवत सिन्हा के साथ प्रशांत किशोर के एक्टिव होने से तो सिर्फ संभावना ही जतायी जा रही थी, लेकिन कोलकाता की शहीद दिवस रैली के मंच से तो ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने सब साफ कर ही दिया है कि उनका दिल्ली दौरा क्या मायने रखता है.
ममता बनर्जी ने लकीर खींच दी है
21 जुलाई 2021 को कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस ने जो कार्यक्रम किया उसकी पहली हकदार तो कांग्रेस है. 1993 में सचिवालय चलो मार्च के दौरान 13 लोगों की मौत हो गयी थी और बताया गया था कि ऐसा पुलिस की फायरिंग से हुआ. तृणमूल कांग्रेस हर साल उसी मौके को शहीद दिवस के रूप में मनाती रही है. जिस साल विधानसभा के चुनाव होते हैं - मुद्दा भी वही रहता है, लेकिन चूंकि ममता बनर्जी की नजर अब 2024 के आम चुनाव पर है, इसलिए अब वो शहीद दिवस के मौके पर केंद्र की मोदी सरकार और बीजेपी के खिलाफ हर राज्य में खेला करने के लिए विपक्ष को मोर्चा बनाने की अपील कर रही हैं.
जिस घटना को लेकर ममता बनर्जी शहीद दिवस मनाती आ रही हैं, तृणमूल कांग्रेस की स्थापना ही उसके पांच साल बाद हुई है. जब ये घटना हुई तब ममता बनर्जी कांग्रेस की यूथ कांग्रेस का नेतृत्व कर रही थीं. इस हिसाब से देखा जाये तो शहीद दिवस का आयोजन कांग्रेस की तरफ से होना चाहिये. चूंकि तृणमूल कांग्रेस बनाते वक्त भी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से बड़ा कोई नेता रहा नहीं, लिहाज वो शहीद दिवस जैसी कांग्रेस के हिस्से की चीजें भी अपने पास रख लीं. हालांकि, लेफ्ट शासन को बेदखल कर सत्ता पर काबिज होना भी ममता बनर्जी के लिए संभव नहीं था, लिहाजा 2011 के चुनाव में ममता बनर्जी ने कांग्रेस से हाथ मिलाये रखा. तब केंद्र में यूपीए की अगुवाई में बनी मनमोहन सिंह सरकार में भी शामिल रहीं, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही मौका देख कर ममता बनर्जी ने सपोर्ट वापस ले लिया.
पश्चिम बंगाल चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेहद एक्टिव रोल के बावजूद बीजेपी को शिकस्त देने के बाद ममता बनर्जी का कद विपक्ष में बढ़ चुका है - और कांग्रेस नेतृत्व को विपक्षी खेमे में प्रासंगिक बने रहने के लिए कमलनाथ को शरद पवार के घर भेजना पड़ रहा है. ऐसी सूरत में कांग्रेस को भी महसूस होने लगा है कि विपक्षी दलों के बीच उसका दबदबा खत्म हो चुका है.
बंगाल चुनाव से पहले तक ममता बनर्जी अपनी तरफ से सोनिया गांधी को सीनियर होने और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी की नेता के तौर पर सम्मान देती नजर आयी थीं. जब सोनिया गांधी ने कोविड 19 को लेकर गैर-बीजेपी मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलायी थी तब तो यही देखने को मिला था. विपक्ष की उस मीटिंग में पहली बार उद्धव ठाकरे भी शामिल थे.
दिल्ली में शरद पवार के घर बुलायी गयी विपक्षी दलों की मीटिंग से कांग्रेस को दूर रखा जाना सोनिया गांधी के लिए चिंता का कारण तो बना ही. बहरहाल, शहीद दिवस के कार्यक्रम में शरद पवार और विपक्ष के बाकी नेताओं के साथ पी. चिदंबरम की मौजूदगी ने तनाव का माहौल थोड़ा कम तो कर ही दिया है.
हो सकता है ये तब्दीली सिर्फ कमलनाथ और शरद पवार की मुलाकात से नहीं, बल्कि प्रशांत किशोर की राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ साथ सोनिया गांधी से वर्चुअल मुलाकात के बाद संभव हो पायी हो.
लेकिन कांग्रेस की मुश्किल इसके आगे भी कम नहीं होती. विपक्षी खेमे में भी राहुल गांधी को सोनिया गांधी की तरह नहीं लिया जाता. तेजस्वी यादव भले ही लंच करने में खुद को खुशकिस्मत समझें और उदयनिधि स्टालिन, राहुल गांधी के तमिलनाडु दौरे में कांग्रेस नेता को एंटरटेन करते नजर आयें - ममता बनर्जी के नजरिये को समझें तो वो राहुल गांधी को जैसे घास भी नहीं डालतीं, ऐसे व्यवहार करती हैं. ऐसा एक बार से ज्यादा देखने को मिला है.
ये भी हो सकता है कि विपक्षी खेमे के सीनियर नेता राहुल गांधी को बच्चे की तरह लेते हों, लेकिन ये भी तो हो सकता है राहुल गांधी भी उनको कांग्रेस के बुजुर्गों की तरह ही आउटडेटेड समझते रहे हों - असल वजह जो भी हो, लेकिन ये तो साफ है कि जब राहुल गांधी अपनी तरफ से कोई चुनावी चमत्कार नहीं दिखा लेते तब तक राहुल गांधी के साथ विपक्ष के ज्यादातर नेताओं का व्यवहार ममता बनर्जी जैसा नहीं तो भी मिलता जुलता ही रहेगा.
मौजूदा राजनीतिक समीकरणों के चलते जो हालात हैं, उसमें राहुल गांधी के फिर से अध्यक्ष बनने से बेहतर भी यही रहेगा कि सोनिया गांधी ही 2024 तक कांग्रेस की अध्यक्ष बनी रहें, अंतरिम अध्यक्ष ही सही.
विशेष परिस्थितियों में राहुल गांधी अगर कांग्रेस अध्यक्ष बनने को तैयार हो जाते हैं, तो विपक्षी गठबंधन के नाम पर उनको अपने लिए 'एकला मोर्चा' से ही संतोष करने को मजबूर होना पड़ सकता है - क्योंकि और कोई रास्ता फिलहाल नजर भी नहीं आ रहा है. क्योंकि ममता बनर्जी ने लकीर ही इतनी बड़ी खींच दी है.
कांग्रेस का झगड़ा खत्म करने का सिद्धू फॉर्मूला ही कारगर है
कांग्रेस की कई मुश्किलों की असली वजह वक्त रहते फैसला न ले पाना भी रहा है - पंजाब कम से कम इस मामले में मिसाल है क्योंकि अच्छा या बुरा कांग्रेस नेतृत्व ने सोचने समझने के बाद कोई एक फैसला तो लिया ही है.
कोई भी फैसला न लेने का फैसला भी कांग्रेस में पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को भी ज्यादा सूट करता था. सोनिया गांधी और राहुल गांधी भले ही राव के साथ किसी गैर-कांग्रेसी नेता जैसा व्यवहार करें, लेकिन फैसले लेने के मामले में तो उनके सबसे बड़े फैन नजर आते हैं.
सोनिया गांधी ने तो फैसले टाल देने के लिए कमेटियों का नुस्खा आजमाती रही हैं. किसी भी मामले में कमेटी बनाये जाने के बाद और कुछ हो न हो, तत्काल फैसले लेने से निजात तो मिल ही जाती है. राजस्थान के सचिन पायलट और अशोक गहलोत के झगड़े में भी ऐसी ही एक कमेटी बनी हुई है और वो फैसला टला ही हुआ है. कम से कम इस लिहाज से कांग्रेस में पहली सफल कमेटी तो मल्लिकार्जुन खड़गे पैनल ही माना जाएगा जो पंजाब समस्या सुलझाने के लिए बनाया गया था.
पंजाब के बाद हर किसी के दिमाग में राजस्थान कांग्रेस का झगड़ा ही आता है, लेकिन छत्तीसगढ़ के नेताओं के बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे सिद्धारमैया और मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार भी दिल्ली पहुंच कर राहुल गांधी से मुलाकात कर चुके हैं - और राहुल गांधी दोनों को मिलजुल कर काम करने की सलाह दे चुके हैं.
जाहिर है छत्तीसगढ़ में भी भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव को भी प्रियंका गांधी वाड्रा की तरफ से ऐसी ही सलाह दी गयी होगी, वरना - ऑपरेशन लोटस का क्या है कहीं भी कामयाब हो सकता है. हालांकि, अब तो आरोप ये भी लग रहा है कि कर्नाटक के केस में पेगासस भी ऑपरेशन लोटस का मददगार साबित हुआ था.
हरियाणा, मध्य प्रदेश और केरल का हाल भी मिलता जुलता ही है, लेकिन चुनाव की तारीख बहुत दूर होने से मामला उतना गंभीर नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र और तेलंगाना में क्रमशः नाना पटोले और रेवंत रेड्डी में तो पहले से ही नवजोत सिंह सिद्धू की झलक देखने को मिलती रही है.
अव्वल तो इसी साल जनवरी में ही G23 की डिमांड के मुताबिक कांग्रेस को काम करते हुए नजर आने वाला पूर्णकालिक अध्यक्ष मिल जाने की संभावना प्रबल नजर आ रही थी, लेकिन फिर विधानसभा चुनावों के कारण जून तक के लिए टाल दिया गया था - चुनाव बाद मई, 2021 में अपडेट आया कि कोविड 19 के असर के चलते ये मामला अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया गया है.
टाइम्स नाउ सूत्रों के हवाले से खबर दे रहा है कि सोनिया गांधी के 2024 तक कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बने रहने की सूरत में चार वर्किंग प्रेसीडेंट बनाये जा सकते हैं जो कामकाज में उनके मददगार साबित हों. ये वर्किंग प्रेसीडेंट सोनिया गांधी के साथ साथ राहुल गांधी की भी मदद करेंगे, ऐसा बताया गया है.
वर्किंग प्रेसीडेंट की रेस में पांच नाम भी सूत्रों ने लीक कर दिये हैं - गुलाम नबी आजाद, सचिन पायलट, कुमारी शैलजा, मुकुल वासनिक और रमेश चेन्नीथला. पांचवां कौन होगा देखना है.
गुलाम नबी आजाद और सचिन पायलट ऐसे दो नाम हैं जो कांग्रेस में काफी दिनों से नेतृत्व के निशाने पर रहे हैं - और राहुल गांधी के नजरिये से देखें तो ये भी डरपोक कैटेगरी में ही आएंगे. आजाद तो खुलेआम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ कर चुके हैं, लेकिन पायलट तो यही कहते आये हैं कि वो कांग्रेस छोड़ कर कहीं नहीं जा रहे हैं. मुश्किल ये है कि गांधी दरबार में सचिन पायलट की सफाई से ज्यादा अशोक गहलोत के आरोपों को अहमियत मिलती रही है.
अब अगर राष्ट्रीय स्तर पर भी चार-चार वर्किंग प्रेसीडेंट बनाने की सोनिया गांधी और राहुल गांधी के आदेश पर केसी वेणुगोपाल घोषणा करते हैं तो मान लेना होगा कि कांग्रेस हर राज्य में पंजाब मॉडल ही लागू करने जा रही है.
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