होता तो अब तक यही रहा है कि कांग्रेस नेतृत्व बोलता रहा और पार्टी के बाकी नेता चुपचाप सुनते रहते थे. अब तो कांग्रेस में उलटी बयार बह रही है. नेतृत्व खामोश है - और नेता बोलते चले जा रहे हैं. कांग्रेस नेतृत्व की खामोशी से तो ऐसा लगता है जैसे वो चुपचाप सुन रहा है, लेकिन रिएक्ट नहीं कर रहा है. एकतरफा संवाद हमेशा ही खतरनाक होता है. चाहे वो नेतृत्व की तरफ से हो या फिर बाकी नेताओं की ओर से. ऐसी परिस्थितियां या तो तानाशाही के दायरे में आती हैं या फिर अराजकता के. दोनों ही हालात किसी भी राजनीतिक दल के लिए खतरनाक होते हैं और उसका असर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर देर सवेर पड़ता ही है.
एक तरफ राहुल गांधी कह रहे हैं कि उन्हें चुप कराने की कोशिश हो रही है, दूसरी तरफ वो कुछ बोल भी नहीं रहे हैं. हो सकता है विरोधी दलों के नेता ऐसा कर रहे हों या फिर राहुल गांधी को लग रहा हो, लेकिन कांग्रेस के नेताओं का तो कतई ऐसा इरादा नहीं होना चाहिये. फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि एक बाद एक कांग्रेस नेताओं के बयान आ रहे हैं जिनमें निशाने पर कांग्रेस नेतृत्व ही होता है. पहले तो बगावती तेवर वाले ऐसे नेताओं के निशाने पर सोनिया गांधी हुआ करती रहीं, लेकिन सलमान खुर्शीद ने जब से राहुल गांधी को 'छोड़ कर चले जाने वाले' की संज्ञा दे डाली है जिससे कोहराम मच गया है. कांग्रेस का हाल ये है कि पूरी पार्टी में कन्फ्यूजन बढ़ता जा रहा है. अब अगर आगे आकर कोई 'ऑल इज वेल' नहीं कहता तो तरह तरह की बातें तो चलती ही रहेंगी - ऐसे में तो पूरा दारोमदार सोनिया गांधी और नहीं तो राहुल गांधी पर ही आ जाता है कि आगे आयें और बतायें कि स्टेटस अपडेट क्या है.
बागियों को जवाब में तो सबूत ही मिल रहे हैं
अक्सर उजागर होती गलतियों को न्यूट्रलाइज करने के लिए ऐसा करने वालों को ही गलत ठहरा दिये जाने की कोशिश होती है. विरोधी राजनीतिक दलों की तो छोड़िये, कांग्रेस के नेता आपस में ही ऐसा कर रहे हैं. मालूम तो उन्हें भी होगा ही कि ये उपाय पेन किलर की तरह है जो तत्काल राहत भले दे दे लेकिन उसके साइड...
होता तो अब तक यही रहा है कि कांग्रेस नेतृत्व बोलता रहा और पार्टी के बाकी नेता चुपचाप सुनते रहते थे. अब तो कांग्रेस में उलटी बयार बह रही है. नेतृत्व खामोश है - और नेता बोलते चले जा रहे हैं. कांग्रेस नेतृत्व की खामोशी से तो ऐसा लगता है जैसे वो चुपचाप सुन रहा है, लेकिन रिएक्ट नहीं कर रहा है. एकतरफा संवाद हमेशा ही खतरनाक होता है. चाहे वो नेतृत्व की तरफ से हो या फिर बाकी नेताओं की ओर से. ऐसी परिस्थितियां या तो तानाशाही के दायरे में आती हैं या फिर अराजकता के. दोनों ही हालात किसी भी राजनीतिक दल के लिए खतरनाक होते हैं और उसका असर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर देर सवेर पड़ता ही है.
एक तरफ राहुल गांधी कह रहे हैं कि उन्हें चुप कराने की कोशिश हो रही है, दूसरी तरफ वो कुछ बोल भी नहीं रहे हैं. हो सकता है विरोधी दलों के नेता ऐसा कर रहे हों या फिर राहुल गांधी को लग रहा हो, लेकिन कांग्रेस के नेताओं का तो कतई ऐसा इरादा नहीं होना चाहिये. फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि एक बाद एक कांग्रेस नेताओं के बयान आ रहे हैं जिनमें निशाने पर कांग्रेस नेतृत्व ही होता है. पहले तो बगावती तेवर वाले ऐसे नेताओं के निशाने पर सोनिया गांधी हुआ करती रहीं, लेकिन सलमान खुर्शीद ने जब से राहुल गांधी को 'छोड़ कर चले जाने वाले' की संज्ञा दे डाली है जिससे कोहराम मच गया है. कांग्रेस का हाल ये है कि पूरी पार्टी में कन्फ्यूजन बढ़ता जा रहा है. अब अगर आगे आकर कोई 'ऑल इज वेल' नहीं कहता तो तरह तरह की बातें तो चलती ही रहेंगी - ऐसे में तो पूरा दारोमदार सोनिया गांधी और नहीं तो राहुल गांधी पर ही आ जाता है कि आगे आयें और बतायें कि स्टेटस अपडेट क्या है.
बागियों को जवाब में तो सबूत ही मिल रहे हैं
अक्सर उजागर होती गलतियों को न्यूट्रलाइज करने के लिए ऐसा करने वालों को ही गलत ठहरा दिये जाने की कोशिश होती है. विरोधी राजनीतिक दलों की तो छोड़िये, कांग्रेस के नेता आपस में ही ऐसा कर रहे हैं. मालूम तो उन्हें भी होगा ही कि ये उपाय पेन किलर की तरह है जो तत्काल राहत भले दे दे लेकिन उसके साइड इफेक्ट बड़े खतरनाक होते हैं. अव्वल तो ऐहतियाती उपाय ऐसे होने चाहिये कि बीमारी ही न हो. अगर बीमारी हो जाये तो जल्द से जल्द उसका इलाज होना चाहिये और साधारण इलाज से बात न बने तो सर्जरी का रास्ता अख्तियार करना ही चाहिये. ऐसा कुछ भी न हो तो आखिरकार बीमारी लाइलाज हो जाती है और कांग्रेस की मुश्किलें अब ऐसी ही लगने लगी हैं. अच्छी बात बस ये है कि कैंसर का भी इलाज होने लगा है जिसमें और कुछ नहीं तो मरीज की उम्र तो बढ़ाई ही जा सकती है.
हाल फिलहाल कांग्रेस के कई नेताओं ने पार्टी नेतृत्व को सवालों के कठघरे में खड़ा किया है. खास बात ये है कि ये नेता कांग्रेस नेतृत्व पर ऐसे सलाहकारों से घिरे होने की बात कर रहे हैं जो गलत राय देकर पार्टी को हर संभव नुकसान पहुंचा रहे हैं. अशोक तंवर, संजय निरूपम, सलमान खुर्शीद के बाद अब इसमें ज्योतिरादित्य सिंधिया भी शुमार हो गये हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया कभी राहुल गांधी के बेहद करीबी हुआ करते रहे - लेकिन बदले समीकरणों के बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया को महाराष्ट्र चुनाव का काम दे दिया गया है. सलमान खुर्शीद इस हद तक निराश हैं कि महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर पूरी तरह नाउम्मीद हैं.
जब सलमान खुर्शीद ने राहुल गांधी के इस्तीफे को 'छोड़ कर चले जाने जैसा' महसूस किया और कह दिया तो राशिद अल्वी ने घेर लिया. ऐसे ही जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस में आत्मावलोकन की बात कह दी तो अधीर रंजन चौधरी गलत साबित करने पर आमादा हो गये.
पश्चिम बंगाल से लाकर लोक सभा में कांग्रेस के नेता बनाये गये अधीर रंजन चौधरी का कहना है - अगर कुछ मुद्दे हैं तो उन्हें पार्टी स्तर पर उठाया जाये न कि सार्वजनिक रूप से.'
क्या अधीर रंजन को नहीं लगता कि जो दवा वो पिलाना चाहते हैं उसकी एक्सपायरी डेट कब की बीत चुकी है. इससे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जम्मू कश्मीर को लेकर धारा 370 पर कांग्रेस के स्टैंड को CWC की मीटिंग में भी उठाया था. नतीजा क्या हुआ? सिंधिया को भी जवाब उसी अंदाज में मिला - 'हुआ तो हुआ'! मध्य प्रदेश की उठापटक से दूर करने के लिए कभी सिंधिया को यूपी तो कभी महाराष्ट्र भेज कर बहलाया जा रहा है. ऐसा होने की वजह भी एक ही है, राहुल गांधी कुर्सी छोड़ चुके हैं और सिंधिया के विरोधी मौजूदा नेतृत्व को अपने तरीके से समझा बुझा कर फायदे के हिसाब से फैसले को प्रभावित कर रहे हैं.
सुना तो ये भी गया कि अशोक तंवर भी हरियाणा कांग्रेस की समस्या पार्टी फोरम पर ही उठाना चाहते थे, लेकिन मौका नहीं मिला. अब ये मौका नेतृत्व ने नहीं मुहैया करना चाहा या बीच के लोगों ने ही खेल कर दिया - और अशोक तंवर को पार्टी ही छोड़नी पड़ी. अशोक तंवर भी सिंधिया की ही तरह 23 मई से पहले राहुल गांधी के करीबी खांचे में फिट हुआ करते थे - लेकिन अब सब कुछ बदल चुका है.
सलमान खुर्शीद और सिंधिया को लेकर अधीर रंजन का कहना है, 'कई मौकों पर, राहुल गांधी ने साफ तौर पर कहा है कि उन्हें लगता है कि कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी कांग्रेस अध्यक्ष की नैतिक जवाबदेही है और इसीलिए उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी को त्याग देना उचित समझा.'
राशिद अल्वी तो सलमान खुर्शीद की बातों पर शायर बन जा रहे हैं - 'अब कांग्रेस की ऐसी स्थिति हो गई है कि इसे दुश्मनों की जरूरत नहीं है... घर को आग लग गई, घर के चिराग से...'
राहुल गांधी के इस्तीफे को लेकर राशिद अल्वी का कहना है कि राहुल गलत नहीं थे, उन्हें कुछ नेताओं का समर्थन नहीं मिला, इसलिए राहुल ने इस्तीफा दे दिया.
महाराष्ट्र कांग्रेस से संजय निरूपम ने मल्लिकार्जुन खड्गे जैसे नेताओं पर भड़ास निकाली थी. अब मल्लिकार्जुन खड्गे कह रहे हैं कि जब सत्ता नहीं होती, तो बोलने वालों की बाढ़ आ जाती है.'
मल्लिकार्जुन खड्गे के नजरिये से सोचें तो नेताओं को बगैर सत्ता हासिल किये चुप नहीं कराया जा सकता - और सत्ता हासिल करने की तो अभी अभी दूर दूर तक कोई संभावना नजर भी नहीं आ रही है.
बगावती तेवर अख्तियार किये नेताओं पर दूसरे खेमे से जो रिएक्शन आ रहे हैं वे सिर्फ गुमराह करने वाले लगते हैं - और ऐसा लगता है जैसे गुमराह करके वे नेताओं की बातों को सच साबित कर रहे हों. बेबुनियाद विरोध भी हकीकत को झुठलाने की नाकाम कवायद होती है जो आरोपों की अपनेआप पुष्टि कर देती है.
अब तो सोनिया गांधी या राहुल ही स्थिति साफ कर सकते हैं
कांग्रेस नेतृत्व को लेकर अब तक दो तरह की बातें सामने आयी हैं और दोनों ही मामलों में राहुल गांधी ही केंद्र बिंदु हैं.
एक, राहुल गांधी के भरोसेमंद लोगों को किनारे लगाने की कोशिश हो रही है. कहने का मतलब ये कि सोनिया गांधी के तात्कालिक तौर पर ही सही कुर्सी संभाल लेने के बाद सभी पुराने और बुजुर्ग नेता सक्रिय हैं जो राहुल राज में शनि की साढ़ेसाती की तरह जैसे तैसे वक्त गुजार रहे थे या बुरे वक्त के गुजर जाने का इंतजार कर रहे थे.
दो, राहुल गांधी के जाने के बाद जो अस्थायी समाधान निकला है वो किसी काम का नहीं है. कांग्रेस में फैसले वैसे ही हो रहे हैं जैसे अंतरिम अध्यक्ष के चुनाव से पहले हुआ करते रहे. ये फैसले बीच में CWC की एक कोर कमेटी लेती रही और तकरीबन वही नेता अब भी सलाहकार बने हुए हैं.
अशोक तंवर और संजय निरूपम से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक ऐसे सभी नेताओं के बयानों का इशारा एक ही है कि कांग्रेस में सोनिया बनाम राहुल के समर्थकों की जंग चल रही है. ऐसे में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली हालत हो गयी है. सोनिया गांधी सबसे लंबे समय तक कांग्रेस की अध्यक्ष रही हैं और उस पीरियड में खुद को खांचे में फिट कर चुके नेता एक बार फिर एक्टिव हैं और अपनी बातें जैसे तैसे मानने को मजबूर कर रहे हैं. जाहिर है ये वही नेता होंगे जिनमें से कुछ के नाम लेकर राहुल गांधी कह चुके हैं कि कैसे अपने निजी स्वार्थ के लिए उन पर दबाव बनाया गया.
जब ऐसे नेताओं के दबाव में राहुल गांधी को समझौते करने पड़ रहे थे और आखिरकार मैदान छोड़ना पड़ा तो सहज रूप से समझा जा सकता है कि उनके करीबियों के साथ क्या सलूक हो रहा होगा.
सवाल ये है कि ऐसी बातों पर फाइनल कॉल कौन लेगा? कौन स्थिति स्पष्ट करेगा? कौन आगे आकर कहेगा भी और सुनिश्चित भी करेगा - 'ऑल इज वेल'?
सोनिया गांधी के पास ही फिलहाल ऐसी सारी शक्तियां हैं, इसलिए वही ऐसा कर सकती हैं. सोनिया गांधी भी तो हर हालात से वाकिफ होंगी ही. सोनिया गांधी से बेहतर इसे कौन समझ सकता है कि ऐन चुनावों के बीच ऐसी बातों का क्या मतलब और कहां तक असर होता है. फिर तो सोनिया गांधी को ही आवाज उठा रहे नेताओं को समझाना होगा. आश्वस्त करना होगा कि वे परेशान न हों, उनके साथ वो किसी भी तरह की नाइंसाफी नहीं होने देंगी. अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो राहुल गांधी को ही सामने आकर स्थिति स्पष्ट करनी होगी.
कोर्ट में पेशी के लिए सूरत पहुंचे राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा है, 'मुझे चुप कराने के लिए बेकरार मेरे राजनीतिक विपक्षियों द्वारा दाखिल किए मानहानि के लिए पेश होने मैं आज सूरत में हूं.' राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के प्यार और समर्थन के लिए भी आभार जयाता है.
जैसे कांग्रेस कार्यकर्ताओं के प्यार और दुलार के लिए राहुल गांधी ने आभार व्यक्त किया है - दो शब्द और भी बोल दिये होते. ऐसे दो शब्द जो सिर्फ सूरत की सीमाओं तक ही सीमित न रह कर महाराष्ट्र और हरियाणा से लेकर यूपी के नेताओं तक भी पहुंच पाता. काम तो एक ट्वीट से भी चल जाता. वैसे राहुल गांधी अभी विदेश यात्रा पर थे और तारीख के सिलसिले में सूरत पहुंचे हैं. मोदी के नाम को लेकर आपराधिक मानहानि के केस में अब 10 दिसंबर की नयी तारीख मिली है - लेकिन 11 अक्टूबर को अभी अहमदाबाद के कोर्ट में एक पेशी बाकी है.
एक ट्वीट कर ही राहुल गांधी चाहें तो बता सकते हैं कि वायनाड के सांसद ने कांग्रेस को अमेठी की तरह नहीं छोड़ा है. जैसे वो अमेठी वालों को आश्वस्त किये कि जब भी जरूरत होगी उनकी आवाज बनने के लिए हाजिर मिलेंगे. राहुल गांधी अगर कांग्रेस के नेताओं की आवाज भले न उठा पा रहे हों - कम से कम सुन तो सकते ही हैं - और एक ट्वीट में भी ये बता सकते हैं कि वो वाकई सुन रहे हैं.
ज्यादा कुछ न सही राहुल गांधी कांग्रेस नेताओं को इतना यकीन तो दिला ही सकते हैं कि उन्हें हिमंता बिस्व सरमा या टॉम वडक्कन की तरह निराश होने की जरूरत नहीं है. राहुल गांधी को ये भी पता ही होगा कि ऐसे नेता जब निराश होते हैं तो उसका क्या नतीजा होता है.
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