कांग्रेस अधिवेशन में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के भाषण के बाद काफी देर तक कंफ्यूजन बना रहा. हर तरफ बात होने लगी कि सोनिया गांधी ने संन्यास की घोषणा कर दी है - लगे हाथ रायबरेली लोक सभा सीट पर उनके उत्तराधिकारी की भी चर्चा शुरू हो गयी.
रायबरेली सीट को लेकर कुछ नाम भी सामने आ गये. जाहिर है पहला नाम तो प्रियंका गांधी का ही रहने वाला था. ये चर्चा तो पहले भी रही है कि अगर सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ती हैं तो कांग्रेस प्रियंका गांधी को उतार सकती है - लेकिन सवाल ये उठ खड़ा होता है कि उत्तराधिकारी बेटा होगा या बेटी? ये सवाल भी कांग्रेस में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के मुकाबले प्रियंका गांधी के साथ अब तक महसूस किये गये भेदभाव के चलते ही उठता रहा है.
लेकिन अभी तो अमेठी सीट पर भी फैसला होना बाकी है. एक चर्चा ये रही है कि अमेठी से राहुल गांधी की जगह बीजेपी नेता स्मृति ईरानी को चैलेंज करने के लिए प्रियंका गांधी चुनाव मैदान में उतर सकती हैं.
अगर ऐसा हुआ तो ये सवाल भी उठेगा कि राहुल गांधी डर कर भाग गये. पिछली बार तो दो जगह से चुनाव लड़े थे, इसलिए ऐसे सवाल नहीं पूछे गये. जहां से जीतेंगे वहां तो जाएंगे ही. ऐसा भी नहीं लगता कि कांग्रेस अमेठी जैसी अपनी सीट बीजेपी के लिए पूरी तरह छोड़ देगी - राहुल गांधी को लेकर ये तो मान कर चलना ही चाहिये कि जो शख्स प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से न डरने की बात करता हो, वो भला स्मृति ईरानी से क्यों डरेगा?
ऐसे में राहुल गांधी के 2024 में अमेठी सीट से उम्मीदवार की सार्वजनिक घोषणा होने तक संभावना बनी हुई है. हालांकि, ये काफी जोखिमभरा फैसला होगा. कहीं अमेठी के लोगों ने दोबारा राहुल गांधी से मुंह मोड़ लिया तो?
ऐसे में जबकि अमेठी सीट पर फैसला नहीं हो जाता, रायबरेली सीट से भी प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) का चुनाव लड़ना पक्का नहीं माना जा सकता. और प्रियंका गांधी के चुनावी राजनीति से दूर रहने की सूरत में शीला कौल के किसी रिश्तेदार का भी जिक्र होने लगा है. शीला कौल,...
कांग्रेस अधिवेशन में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के भाषण के बाद काफी देर तक कंफ्यूजन बना रहा. हर तरफ बात होने लगी कि सोनिया गांधी ने संन्यास की घोषणा कर दी है - लगे हाथ रायबरेली लोक सभा सीट पर उनके उत्तराधिकारी की भी चर्चा शुरू हो गयी.
रायबरेली सीट को लेकर कुछ नाम भी सामने आ गये. जाहिर है पहला नाम तो प्रियंका गांधी का ही रहने वाला था. ये चर्चा तो पहले भी रही है कि अगर सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ती हैं तो कांग्रेस प्रियंका गांधी को उतार सकती है - लेकिन सवाल ये उठ खड़ा होता है कि उत्तराधिकारी बेटा होगा या बेटी? ये सवाल भी कांग्रेस में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के मुकाबले प्रियंका गांधी के साथ अब तक महसूस किये गये भेदभाव के चलते ही उठता रहा है.
लेकिन अभी तो अमेठी सीट पर भी फैसला होना बाकी है. एक चर्चा ये रही है कि अमेठी से राहुल गांधी की जगह बीजेपी नेता स्मृति ईरानी को चैलेंज करने के लिए प्रियंका गांधी चुनाव मैदान में उतर सकती हैं.
अगर ऐसा हुआ तो ये सवाल भी उठेगा कि राहुल गांधी डर कर भाग गये. पिछली बार तो दो जगह से चुनाव लड़े थे, इसलिए ऐसे सवाल नहीं पूछे गये. जहां से जीतेंगे वहां तो जाएंगे ही. ऐसा भी नहीं लगता कि कांग्रेस अमेठी जैसी अपनी सीट बीजेपी के लिए पूरी तरह छोड़ देगी - राहुल गांधी को लेकर ये तो मान कर चलना ही चाहिये कि जो शख्स प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से न डरने की बात करता हो, वो भला स्मृति ईरानी से क्यों डरेगा?
ऐसे में राहुल गांधी के 2024 में अमेठी सीट से उम्मीदवार की सार्वजनिक घोषणा होने तक संभावना बनी हुई है. हालांकि, ये काफी जोखिमभरा फैसला होगा. कहीं अमेठी के लोगों ने दोबारा राहुल गांधी से मुंह मोड़ लिया तो?
ऐसे में जबकि अमेठी सीट पर फैसला नहीं हो जाता, रायबरेली सीट से भी प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) का चुनाव लड़ना पक्का नहीं माना जा सकता. और प्रियंका गांधी के चुनावी राजनीति से दूर रहने की सूरत में शीला कौल के किसी रिश्तेदार का भी जिक्र होने लगा है. शीला कौल, पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की रिश्तेदार थीं, और वो दो बार रायबरेली से सांसद भी रह चुकी हैं.
शीला कौल का जिक्र पहले भी कई दिनों तक होता रहा. ये तब की बात है जब प्रियंका गांधी के पास रहा दिल्ली का बंगला खाली करा दिया गया था. तब कयास लगाये जा रहे थे कि प्रियंका गांधी लखनऊ में भी डेरा जमा सकती हैं, ताकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मजबूत करना आसान हो सके. तब शीला कौल के बंगले को साफ सुथरा भी किये जाने की जोरदार चर्चा रही.
लेकिन ये सब बातें तो तब होनी चाहिये जब सोनिया गांधी सक्रिय राजनीति से अपने संन्यास की घोषणा कर दें, लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं है. सोनिया गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा को अपनी राजनीति के अंतिम पड़ाव के रूप में जिक्र जरूर किया है, लेकिन उसके तो कई और भी मतलब हो सकते हैं.
कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में गुलाबी स्वागत की भी जोरदार चर्चा रही है. प्रियंका गांधी के लिए रेड कार्पेट की जगह गुलाबी स्वागत का भव्य इंतजाम किया गया था. करीब दो किलोमीटर तक सड़क पर 6 हजार किलोग्राम से ज्यादा गुलाब के फूलों का इस्तेमाल किया गया - और सड़क के दोनों तरफ रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधान पहने लोक कलाकारों ने भी अपनी प्रस्तुति के साथ स्वागत किया.
स्वागत का ये आयोजन रायपुर के महापौर एजाज ढेबर की तरफ से किया गया था. एजाज ढेबर ने अपनी तैयारी के बारे में बताया भी, मैं हमेशा से अपने वरिष्ठ नेताओं के स्वागत के लिए कुछ नया करने की कोशिश करता हूं... प्रियंका जी के स्वागत के लिए अधिवेशन आयोजन स्थल के रास्ते में विभिन्न स्थानों पर मंच बनाए गये थे... जहां समर्थकों ने उन पर गुलाब के फूल भी बरसाये.
अच्छी बात है. जैसी जिसकी श्रद्धा, लेकिन सवाल ये है कि ऐसा स्वागत सिर्फ प्रियंका गांधी के लिए ही क्यों? सोनिया गांधी के लिए क्यों नहीं?
अव्वल तो ऐसा स्वागत राहुल गांधी का होना चाहिये था. वो तो कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा पूरी करने के बाद रायपुर पहुंचे थे - तो क्या हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद प्रियंका गांधी की हैसियत बढ़ गयी है?
संन्यास का इशारा या कोई खास संकेत?
सोनिया गांधी ने कांग्रेस अधिवेशन में जितना बताया नहीं, उससे ज्यादा उलझा दिया है. जैसे नुक्तों के हेर फेर से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं, सोनिया गांधी के भाषण में एक शब्द को पहली बार में ठीक से न सुने जाने के कारण कंफ्यूजन पैदा हो गया.
सोनिया गांधी के भाषण में अंग्रेजी के एक शब्द को लेकर कंफ्यूजन हुआ. अंग्रेजी भाषा का वो शब्द है कुड (COLD). सोनिया गांधी ने अपनी तरफ से ये बताने की कोशिश की कि काश ऐसा हो पाता, लेकिन लोगों ने ये समझ लिया कि वो अपनी आखिरी बारी की बात कर रही हैं.
सोनिया गांधी ने समझाया कि कैसे 2004 और 2009 में कांग्रेस की जीत और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सक्षम नेतृत्व से निजी तौर पर संतोष मिला. सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की भी तारीफ की. ये भी याद दिलाया कि कैसे जमीन से जुड़ा एक नेता कांग्रेस के सबसे बड़े पद पर पहुंच गया.
असल में ये बोल कर सोनिया गांधी अपनी तरह से बीजेपी की तरफ से उठाये जा रहे सवालों के जवाब देने की कोशिश कर रही थीं. अमित शाह जब अध्यक्ष थे तो कहा करते थे कि एक छोटा सा कार्यकर्ता अगर अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंच सकता है तो ये बीजेपी में ही संभव है, न कि परिवारवादी पार्टियों में. अमित शाह समझाते थे कि कांग्रेस में अगर कोई अध्यक्ष बनेगा तो वो गांधी परिवार से ही बन सकता है. राहुल गांधी को भी ये बात बहुत बुरी लगती थी. जब 2019 के चुनाव में कांग्रेस की हार हुई तो राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया - और अड़ गये कि अब जो भी कांग्रेस अध्यक्ष होगा गांधी परिवार से बाहर का ही होगा. खैर, अब तो राहुल गांधी की ये जिद पूरी भी हो चुकी है.
और ऐसी ही बातों के बीच सोनिया गांधी कह डाला, '... लेकिन मुझे सबसे ज्यादा खुशी की बात ये होती जब मेरी पारी भारत जोड़ो यात्रा के साथ खत्म हो पाती, जो कांग्रेस के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था.'
असल में सोनिया गांधी ये बताना चाह रही थीं कि अगर भारत जोड़ो यात्रा के बाद उनको राजनीतिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह छुट्टी मिल जाती तो वो कहीं ज्यादा खुश होतीं, लेकिन उनकी बातों से लगता है कि अभी वो राहुल गांधी को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं. लगता तो ऐसा ही है.
सोनिया गांधी के भाषण के बाद उनके संन्यास की खबर चलने लगी तो कांग्रेस नेताओं की तरफ से सफाई दी जाने लगी. कांग्रेस महासचिव कुमार शैलजा से जब पूछा गया तो बोलीं, 'देखिये उनके अध्यक्ष पद की पारी खत्म हुई है न... नये अध्यक्ष बने हैं न... तो ये तो एक टेन्योर की बात है... उनका टेन्योर खत्म हुआ है... अपनी बात रखी है... और नये अध्यक्ष ने भी कहा है कि वो सोनिया जी का मार्गदर्शन लेते रहेंगे.'
फिर कांग्रेस प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह भी सामने आये. कहने लगे मालूम नहीं कहां से ये अफवाह फैल गयी है. अखिलेश प्रताप सिंह ने कहा कि सोनिया गांधी ने ऐसी कोई बात तो कही नहीं है - और जोर देकर कहा, 'वो हम सब की मुखिया हैं.'
लेकिन मुखिया तो सोनिया गांधी ताउम्र रहेंगी. जिस लहजे में अखिलेश प्रताप समझा रहे हैं, सारी ही पार्टियों में सीनियर नेताओं को अभिभावक के तौर पर पेश किया जाता रहा है. समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह से सारा पावर अखिलेश यादव की तरफ शिफ्ट हो गया लेकिन उनका कद तो वैसे ही बरकरार रहा. यहां तक कि यूपी चुनाव 2022 में अखिलेश यादव उनको अपने विधानसभा क्षेत्र में वोट मांगने के लिए बुला लाये थे. ये बात अलग है कि वो बेटे के लिए वोट मांगना ही भूल गये थे. मांगे जरूर लेकिन जब बताया गया - और क्या मार्गदर्शक मंडल में भेज दिये जाने के बावजूद लालकृष्ण आडवाणी को लेकर बीजेपी नेताओं के मुंह से ऐसी सम्मानजनक बातें सुनने को नहीं मिलतीं. मोदी-शाह भी मिलने जाते हैं तो बयान तो ऐसे ही आते हैं.
मान लेते हैं कि सोनिया गांधी ने औपचारिक तौर पर अपने संन्यास की घोषणा नहीं की है, लेकिन संकेत में कुछ न कुछ संदेश देने की कोशिश तो लगती ही है.
राहुल गांधी भरोसा क्यों नहीं दिला पा रहे हैं?
सोनिया गांधी की राजनीतिक पारी को लेकर कई बार ऐसी चर्चाएं हो चुकी हैं. 2017 में राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने के बाद भी सोनिया गांधी की राजनीतिक पारी को लेकर सवाल पूछे जाने लगे थे. तब भी कांग्रेस नेताओं की तरफ से साफ किया गया कि वो राजनीति में बनी रहेंगी.
और पूछे जाने पर सोनिया गांधी ने अपने तरीके से समझाने की कोशिश की, 'अब वो हमारे भी नेता हैं.'
तब सोनिया गांधी के यूपीए की चेयरपर्सन की जिम्मेदारी से निजात पाने की भी चर्चा होने लगी थी. लेकिन 2019 के आम चुनाव के बाद ऐसी नौबत आयी की सोनिया गांधी को फिर से कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनना पड़ा.
फिर एक ऐसा भी मौका आया जब सवाल खड़े होने लगे कि जब कांग्रेस के पास कोई स्थायी अध्यक्ष है ही नहीं तो फैसले कौन ले रहा है - और सोनिया गांधी को कार्यकारिणी की मीटिंग बुला कर कहना पड़ा, 'मैं ही हूं कांग्रेस अध्यक्ष... मैं ही सारे फैसले लेती हूं.'
कुछ देर के लिए ये सवाल तब भी उछला जब अक्टूबर, 2022 में कांग्रेस अध्यक्ष का जीतने के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे को सोनिया गांधी ने कार्यभार सौंप दिया था. जिस गौरव की बात सोनिया गांधी ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में की है, मल्लिकार्जुन खड़गे को हैंडओवर देते वक्त भी किया था.
सोनिया गांधी का कहना रहा, 'मैं राहत महसूस कर रही हूं... मैं इसे साफ करना चाहती हूं... राहत इसलिए कि आपने इतने सालों तक प्यार और सम्मान दिया है, ये मेरे लिए गौरव की बात है... इसका एहसास मुझे अपने जीवन की आखिरी सांस तक रहेगा.'
बोलीं, '... ये सम्मान एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी थी... मुझसे अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार जितना बन पड़ा उतना किया... मैं सबको दिल से धन्यवाद देती हूं कि आपने अपना सहयोग और समर्थन मुझे दिया - अब ये जिम्मेदारी खड़गे जी के ऊपर आ गई है.'
जैसे सोनिया गांधी ने कांग्रेस की सरकार चलाने के लिए मनमोहन सिंह को चुना था, वैसे ही संगठन के कामकाज के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को चुना गया है. चुने जाने का तरीका जो भी हो. मल्लिकार्जुन खड़गे भी राहुल गांधी के लिए करीब करीब उसी भूमिका में हैं.
मल्लिकार्जुन खड़गे को जिम्मेदारी सौंप कर तो सोनिया गांधी राहत महसूस कर रही हैं, लेकिन लगता नहीं कि राहुल गांधी को लेकर अब भी उनको भरोसा हो रहा है. जिस तरीके से राहुल गांधी बार बार राजनीति को लेकर अपनी अनिच्छा जता चुके हैं, सोनिया गांधी का डर लगना स्वाभाविक ही है.
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