कांग्रेस के मौजूदा सेट अप में राहुल गांधी का रोल जगजाहिर है. दलगत राजनीति और सत्ता की राजनीति को लेकर भी राहुल गांधी सबको अपनी राय बता चुके हैं - फिर भी राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के गुरु समाजवादी नेता शरद यादव की मानें तो वो कांग्रेस के लिए 24x7 काम करते हैं, लेकिन सोनिया गांधी का दावा है कि कांग्रेस में सारे फैसले वही लेती हैं.
सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) 2019 के आम चुनाव के नतीजे आने के बाद से कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं - और अब नये अध्यक्ष के रूप में अशोक गहलोत का नाम उछला है. ये भी सोनिया गांधी के विदेश दौरे से पहले अशोक गहलोत से हुई की मुलाकात के बाद. जिसके बाद खबर आयी थी कि सोनिया गांधी ने उस मुलाकात में ही अशोक गहलोत को कामकाज संभालने के लिए बोल दिया था.
अगर वास्तव में सोनिया गांधी ने ऐसा कहा है, को उनका बोल भर देना ही कांग्रेस के संगठन चुनाव के नतीजे के तौर पर देखा जाना चाहिये - क्योंकि चुनाव होने पर भी अगर कोई नामांकन दाखिल करने लड़ता भी है तो भी उसका मतलब विरोध के एक प्रतीक से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है.
जो कुछ होने वाला है, वो सब उसके बाद की बात होगी. हां, आगे ये सवाल खड़ा हो सकता है कि उस चुने हुए अध्यक्ष को बाकी कांग्रेसी लेते कैसे हैं? जाते जाते 'कठपुतली' बता गये गुलाम नबी आजाद की तरह या फिर उसका जादू चलने लगे और लोगों की गलतफहमियां दूर हो जायें.
फर्ज कीजिये अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ जाने के बाद भी कपिल सिब्बल की तरह कोई कांग्रेस नेता फैसलों पर सवाल खड़ा करने लगे. कपिल सिब्बल वाले अंदाज में ही ये पूछे कि ये ऊलजुलूल फैसले कौन ले रहा है? क्योंकि तब तो वो ये तो कह नहीं सकता कि 'जब कांग्रेस के पास कोई स्थायी अध्यक्ष है ही नहीं तो फैसले कौन लेता है?' वैसे तरीके से सवाल तो तब पूछे...
कांग्रेस के मौजूदा सेट अप में राहुल गांधी का रोल जगजाहिर है. दलगत राजनीति और सत्ता की राजनीति को लेकर भी राहुल गांधी सबको अपनी राय बता चुके हैं - फिर भी राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के गुरु समाजवादी नेता शरद यादव की मानें तो वो कांग्रेस के लिए 24x7 काम करते हैं, लेकिन सोनिया गांधी का दावा है कि कांग्रेस में सारे फैसले वही लेती हैं.
सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) 2019 के आम चुनाव के नतीजे आने के बाद से कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं - और अब नये अध्यक्ष के रूप में अशोक गहलोत का नाम उछला है. ये भी सोनिया गांधी के विदेश दौरे से पहले अशोक गहलोत से हुई की मुलाकात के बाद. जिसके बाद खबर आयी थी कि सोनिया गांधी ने उस मुलाकात में ही अशोक गहलोत को कामकाज संभालने के लिए बोल दिया था.
अगर वास्तव में सोनिया गांधी ने ऐसा कहा है, को उनका बोल भर देना ही कांग्रेस के संगठन चुनाव के नतीजे के तौर पर देखा जाना चाहिये - क्योंकि चुनाव होने पर भी अगर कोई नामांकन दाखिल करने लड़ता भी है तो भी उसका मतलब विरोध के एक प्रतीक से ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है.
जो कुछ होने वाला है, वो सब उसके बाद की बात होगी. हां, आगे ये सवाल खड़ा हो सकता है कि उस चुने हुए अध्यक्ष को बाकी कांग्रेसी लेते कैसे हैं? जाते जाते 'कठपुतली' बता गये गुलाम नबी आजाद की तरह या फिर उसका जादू चलने लगे और लोगों की गलतफहमियां दूर हो जायें.
फर्ज कीजिये अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ जाने के बाद भी कपिल सिब्बल की तरह कोई कांग्रेस नेता फैसलों पर सवाल खड़ा करने लगे. कपिल सिब्बल वाले अंदाज में ही ये पूछे कि ये ऊलजुलूल फैसले कौन ले रहा है? क्योंकि तब तो वो ये तो कह नहीं सकता कि 'जब कांग्रेस के पास कोई स्थायी अध्यक्ष है ही नहीं तो फैसले कौन लेता है?' वैसे तरीके से सवाल तो तब पूछे भी नहीं जा सकते.
क्या भविष्य की उस नयी संभावित व्यवस्था में अशोक गहलोत भी सोनिया गांधी की तरह डंके की चोट पर दावा कर सकेंगे कि फैसले तो वो ही लेते हैं? और अगर ऐसा दावा अशोक गहलोत करते हैं तो भी, क्या कांग्रेस के लोग मान भी लेंगे?
ये तो चुनाव के बाद की संभावनाएं हैं, लेकिन उससे पहले भी कुछ बुनियादी सवाल हैं. ऐसे सवाल जिनके जवाब आगे बढ़ने से पहले सोनिया गांधी को खोज लेना चाहिये. हो सके तो राहुल गांधी को साथ बिठा कर जवाब ढूंढ़ने का प्रयास करना चाहिये. और अगर ऐसी कोई स्थिति बने तो सबसे पहले राहुल गांधी को भी सोनिया गांधी की तरफ से ये साफ हिदायत होनी चाहिये कि वो मोबाइल तो छूएंगे नहीं - और पिडि को भी आस पास फटकने नहीं दिया जाएगा. कम से कम उतनी देर के लिए, जब तक कि दोनों किसी नतीजे पर नहीं पहुंच जाते.
पहला सवाल तो यही होना चाहिये कि कांग्रेस को किसी स्थायी अध्यक्ष की जरूरत ही क्यों है? एक सवाल ये भी हो सकता है कि अध्यक्ष की जरूरत पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए चाहिये या फिर बीजेपी और मोदी सरकार से जूझने के लिए?
राहुल गांधी की बातों और अब तक के एक्शन से यही समझ में आया है कि वो एक ऐसा अध्यक्ष चाहते हैं जो बीजेपी और मोदी-शाह के परिवारवाद की राजनीति पर हमले से कांग्रेस को बचा सके - और वो आगे भी सिस्टम को बदलने के मिशन में वैसे ही जुटे रहें जैसे बीते करीब दो दशक से जूझ रहे हैं.
संघ, बीजेपी और मोदी सरकार से लड़ाई तो अपनी जगह है ही. सोनिया गांधी की अपनी और राहुल गांधी के लिए भी प्रवर्तन निदेशालय के पचड़े भी अभी वैसे ही बने हुए हैं - ऐसे हालात में कांग्रेस अध्यक्ष की चुनाव प्रक्रिया खत्म होने से पहले सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पहले से ही ये सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि नया एक्सपेरिमेंट नये सिरे से गले की हड्डी न बन जाये और कांग्रेस की कमान हाथ फिसल न जाये?
गांधी परिवार को अब 'एक्सीडेंटल कांग्रेस प्रेसिडेंट' चाहिये
गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल के कांग्रेस से चले जाने के बाद G-23 जैसा बागी कहा जाने वाला गुट छिन्न भिन्न हो चुका है. आनंद शर्मा के हाव भाव भी सबको समझ आ ही रहा है - और शशि थरूर और मनीष तिवारी कुछ कुछ बोल कर या सवाल उठाकर एक तरीके से जिंदा होने के सबूत पेश कर रहे हैं.
ये G-23 गुट की सोनिया गांधी की लिखी चिट्ठी ही थी जिसमें कांग्रेस के लिए एक स्थायी अध्यक्ष की सशर्त मांग की गयी थी. शर्त ये थी कि अध्यक्ष ऐसा होना चाहिये जो काम करता हुआ भी नजर आये. ऐसी मांग की जरूरत राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते उनकी कार्यशैली देखने समझने और परखने के बाद ही आयी होगी, ऐसा लगता है.
अगर सवाल ये है कि कांग्रेस को कैसे अध्यक्ष की जरूरत है, तो उसमें भी शर्त ये है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी को कैसे कांग्रेस अध्यक्ष की जरूरत महसूस हो रही है?
एक बात तो माननी पड़ेगी, राहुल गांधी पिछले तीन साल से अपने स्टैंड पर टिके हुए हैं. कांग्रेस अध्यक्ष अब गांधी परिवार से नहीं होना चाहिये. राहुल गांधी की राजनीति को देखते हुए उनके विरोधी भले ये कहें कि वो जिम्मेदारी से भाग रहे हैं, लेकिन वे ऐसे क्यों नहीं समझते कि राहुल गांधी भी तो गांधी परिवार से ही हैं - अगर इरादा बदल दिये तो कमिटमेंट का क्या होगा?
फिर तो राजनीतिक विरोधियों को परिवारवाद की राजनीति पर हमले का सिलसिला खत्म होने से ही रहा. गांधी परिवार से बाहर के अध्यक्ष को लेकर सोनिया गांधी का डर स्वाभाविक है. सोनिया गांधी को अगर लगता है कि कुछ ऐसा वैसा हुआ तो कांग्रेस की कमान गांधी परिवार के हाथ से फिसल जाएगी.
हो सकता है राहुल गांधी को ऐसा डर न लगता हो. राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान हाथ से फिसल जाने की फिक्र नहीं होगी, ऐसा भी नहीं लगता. राहुल गांधी के डर की परिभाषा भी तो अलग ही है. जो संघ और बीजेपी से डरे वो डरपोक, बाकी सब निडर. कांग्रेस नेताओं को तो वो इसी पैमाने पर तौलते रहे हैं.
ऐसा लगता है राहुल गांधी को आरसीपी सिंह जैसे नेता की तलब हो रही होगी, लेकिन आरसीपी सिंह को जेडीयू का अध्यक्ष बनाये जाने के बाद का खतरा तो देख ही चुके हैं. हो सकता है राहुल गांधी के मन में ऐसा कोई भरोसा हो कि अगर निडर कांग्रेसी होगा तो वो आरसीपी सिंह जैसा व्यवहार नहीं करेगा. आरसीपी सिंह में सत्ताधारी जेडीयू के प्रमुख कर्ताधर्ता हुआ करते थे. प्रशांत किशोर को जेडीयू से निकाल दिये जाने के बाद नीतीश कुमार के बाद नंबर दो की स्थिति के मजे ले रहे थे.
नीतीश कुमार के सामने तब भी परिवारवाद जैसी कोई चुनौती नहीं रही, और न अभी है. फिर भी नीतीश कुमार को आरसीपी सिंह की जरूरत महसूस हुई - और वो जरूरत भी राहुल गांधी की अपेक्षाओं से मिलती जुलती रही, जो बीजेपी से हर तरीके से डील कर सके. एक दिन ऐसा भी आया जब आरसीपी सिंह ने बीजेपी से अपने लिए डील कर लिया. वो डील भी बहुत लंबी नहीं चली, लेकिन नीतीश कुमार को झटका तो लगा ही.
जैसे सोनिया गांधी ने 2004 में मनमोहन सिंह के रूप में कांग्रेस के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार खोज लिया था, ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को भी वैसे ही कांग्रेस नेता की जरूरत होगी जो कांग्रेस का कामधाम संभाल सके - एक एक्सीडेंटल कांग्रेस प्रेसिडेंट.
मुश्किल ये है कि अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी और राहुल गांधी को ऐसे कांग्रेस नेता की जरूरत होगी जिसमें मनमोहन सिंह की कुछ ही खूबियां हों. हजार जवाबों से अच्छी खामोशियां अख्तियार करने वाला तो बिलकुल नहीं, लेकिन रिमोट पूरे कार्यकाल कनेक्टेड रहे. सिग्नल वीक होने पर भी नेटवर्क पूरा पकड़े ही, ऐसा टस से मस नहीं होने वाला.
अशोक गहलोत ऐसे पैमानों पर खरा उतरते हैं या नहीं, ये कहना मुश्किल है. खासकर, उन दिनों को याद किया जाये जब उन पर अजय माकन के फोन न उठाने के आरोप लगे थे. तब तो अजय माकन गांधी परिवार के मैसेंजर बन कर ही उनको फोन कर रहे थे. तब क्या होगा जब अशोक गहलोत कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने के बाद नया रंग दिखाने लगे? वैसे उम्र के इस पड़ाव पर अशोक गहलोत खतरों के खिलाड़ी बन जाएंगे, ऐसा तो लगता नहीं. अब हर कोई पीवी नरसिम्हा राव जैसा तो होता नहीं जिसमें उम्र और जिम्मेदारियां बढ़ने के साथ ही निखार भी आ जाये.
क्या अशोक गहलोत जादू की छड़ी हैं?
कांग्रेस में अध्यक्ष पद को लेकर अशोक गहलोत भले ही आनाकानी कर रहे हों, लेकिन ये तो वो भी खुल कर कहते हैं कि राजस्थान में कांग्रेस की राजनीति के लिए वो स्थायी जादूगर हैं. अब भी वो गांधी परिवार को यही समझाना चाहते हैं कि अगर उनको राजस्थान से हटाया गया तो सूबे में कांग्रेस का हाल दिल्ली जैसा ही हो जाएगा.
अशोक गहलोत को मालूम है कि जिन लोगों को अब तक वो 'निकम्मा, नकारा और पीठ में छुरा भोंकने वाला' बताते रहे, उनके हटते ही राजस्थान कांग्रेस पर काबिज हो जाएंगे. सुनने में ये भी आया है कि कांग्रेस की भाई-बहन की जोड़ी यानी राहुल और प्रियंका गांधी ने सचिन पायलट को इशारों इशारों में आश्वस्त किया है कि चिंता न करें उनके भी अच्छे दिन आने वाले हैं. सार्वजनिक तौर पर तो राहुल गांधी, सचिन पायलट के धैर्य की तारीफ कर ही चुके हैं.
राजस्थान की बात और है, लेकिन सवाल ये है कि क्या दिल्ली के लिए भी अशोक गहलोत कांग्रेस के लिए जादू की छड़ी साबित हो सकते हैं?
अशोक गहलोत की जिन खूबियों की वजह से सोनिया गांधी और राहुल गांधी उन पर भरोसा करते हैं, दिल्ली की राजनीति में खुद को फाजिल समझने वाले कांग्रेसियों की महफिल में वो मिसफिट पाये जाते हैं. बेपरवाह दिखने वाला. क्या पहना है और क्या नहीं, ऐसी चीजों से दूर दूर तक का नाता नहीं रखने वाला. गांधीवादी जीवन जीते हुए निष्ठावान कांग्रेसी बने रहना ही अशोक गहलोत का सरमाया है - सोनिया गांधी और राहुल गांधी तो अशोक गहलोत की इन्हीं खासियतों के कायल हैं, जबकि ये चीजें बाकियों की आंखों में खटकती है. अशोक गहलोत अपनी ऐसी ही छवि के कारण राहुल गांधी के निडर कैटेगरी में फिट हो जाते हैं - और सचिन पायलट को लेकर संशय खत्म होने का नाम ही नहीं लेता.
जब अशोक गहलोत कहते हैं, अच्छी अंग्रेजी बोलने से कुछ नहीं होता, अच्छा दिखने से कुछ नहीं होता' - मान कर चलना चाहिये उनके निशाने पर सिर्फ सचिन पायलट ही नहीं होते. दरअसल, ऐसी बातें बोल कर अशोक गहलोत उन सभी सो कॉल्ड सीनियर कांग्रेस नेताओं को टारगेट कर रहे होते हैं जो स्वयंभू काबिल बनते हैं.
नये कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर जिस तरीके का गंभीर विमर्श चल रहा है, ऐसा लगता है कि मौजूदा हालात को देखते हुए ये सख्त जरूरत लगने लगी है - लेकिन क्या सोनिया गांधी और राहुल गांधी के मन में नये कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर कोई साफ तस्वीर बन रही है?
जो कांग्रेस में नये सिरे से जान फूंक सके: देश के राजनीतिक हालात और अलग अलग बने समीकरण को देखते हुए गांधी परिवार को एक ऐसे मैनेजर की जरूरत है जो कांग्रेस में हर स्तर पर जान फूंक दे.
हो सकता है ये रोल कुछ देर के लिए प्रशांत किशोर को लेकर भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के मन में रहा हो, लेकिन वो अशोक गहलोत जैसा भरोसा तो दे नहीं सकते. और बगैर पक्की रसीद लिए वो किसी रोल के लिए तैयार भी नहीं होते. बात बिगड़ जाने की एक बड़ी वजह तो ऐसी ही रही होगी.
कांग्रेस को एक ऐसे अध्यक्ष की जरूरत है जो कार्यकर्ताओं में जोश तो भर ही दे, कांग्रेस के प्रति जनता का खोया हुआ विश्वास भी वापस दिला दे. देखा जाये तो यूपी चुनाव में प्रियंका गांधी वाड्रा ने कार्यकर्ताओं में जोश तो भर दिया, लेकिन कांग्रेस के प्रति लोगों के मन में पैठ बना चुकी धारणा को कमजोर नहीं कर सकीं. चुनाव नतीजों से बड़ा कोई सबूत नहीं होता.
जो बीजेपी से पूरे वक्त दो-दो हाथ कर सके: कांग्रेस का नया अध्यक्ष जो भी बने, बीजेपी और मोदी सरकार से दो-दो हाथ करना आसान नहीं होगा. ये काम वही कर सकता है जिस किसी तरह के दाग के छींटे भी न पड़े हों. जिसे अपने करीबियों पर जांच एजेंसियों के दबाव और एक्शन की परवाह तक न हो.
ऐसे पैमाने पर देखें तो अशोक गहलोत को कांग्रेस के साथ साथ परिवार की भी लड़ाई लड़नी पड़ती है, जब उनके भाई के ठिकानों की जांच पड़ताल शुरू हो जाती है. जयपुर से दिल्ली शिफ्ट होने की सूरत में अशोक गहलोत ये सब कैसे मैनज कर पाते हैं, देखा जाना बाकी है.
जो नया कुछ करे न करे यथास्थिति बनाये रखे: गांधी परिवार को एक ऐसे अध्यक्ष की जरूरत है जो नया कुछ करे या न भी कर सके तो कम से कम यथास्थिति तो बनाये ही रखे. कांग्रेस जिस पोजीशन में खड़ी है, उससे नीचे न जाने पाये. फिलहाल दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, आगे भी ये हैसियत बनी रहे ताकि प्रवर्तन निदेशालय जैसी उलझनों की स्थिति में मीडिया के सामने कम से कम दो चुने हुए मुख्यमंत्री मोर्चा तो संभाल ही सकें.
बतौर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का दावा जो भी हो, लेकिन ये तो कांग्रेस के ही नेता बताते रहे हैं कि राहुल गांधी ही डीफैक्टो अध्यक्ष बने हुए हैं. गुलाम नबी आजाद के दावे को मान लें तो ये स्थिति 2013 से बनी हुई है जब राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया था.
फिर तो नया अध्यक्ष ऐसा भी हो सकता हो जो रबर स्टांप की तरह सिर्फ रस्मअदायगी से मतलब रखे. जहां कहा जाये चुपचाप दस्तखत कर दे. जो राहुल गांधी डिक्टेट करें बगैर कोई सवाल पूछे चुपचाप नोट कर ले - और सबसे बढ़ कर राहुल गांधी की सारी गलतियों को आगे बढ़ कर शिरोधार्य करने की क्षमता रखता हो.
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